मौजूं दुनिया इतनी डरावनी क्यूं हैं?
मौजूं दुनिया इतनी डरावनी क्यूं हैं? सनसनाते हुये हवाई जहाज गगनचुंभी बिल्डिंगो को चीर डालते हैं, और फिर इनसानी गोश्त लपलपाती हुई लपटों में भूनते जाते हैं। फिर असलहों से लैस कई मुल्कों की फौज धरती के एक कोने पर आसमान से उतरती हैं और मौत का तांडव का शुरु कर देती है। अल्लाह हो अकबर के नारे बारुदी शोलों के भेंट चढ़ जाती हैं। फतह और शिकस्त के खेल में एक दूसरे को हलाक करते हुये सभ्य दुनिया के निर्माण की बात नब्ज के लहू को ठंडा कर जाती है, फिर सवालात दर सवालात खुद से जूझना पड़ता है।
धुंधली हो चुकी परिकथाओं को कई बार जेहन में लाने की कोशिश करता हूं, शायद जादुई किस्सागोई खौलती हुई खंजरों के घाव को तराश कर कुछ देर के लिए अलग कर दे। उन चुंबनों की कंपकंपाहट को भी समेटने की कोशिश करता हूं जो कभी जिंदगी की हरियाली में यकीन दिलाती थी। लेकिन एके -47 की तड़तड़ाहट खौलते हुये शीशे की तरह कानों के अंदर पिघलता हुआ बेचैनी के कगार पर खड़ा देता है। लाल सलाम जिंदाबाद!! माओत्से तुंग जिंदाबाद!! की गूंज की निरर्थकता शरीर को सुन्न कर देता है। लोभ में गले तक डूबी हुई काहिल सरकार की निर्मम असंवेदनशीलता मुर्दे जैसी बदूब से भरी हुई लगती है। तभी रेडियो पर पूर्ण अर्थ पसारते हुये एक अनचाहा गीत गूंज उठता है....कहां हैं, कहां है, कहां है, जिन्हें नाज है हिंद पर वे कहा हैं।
“स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, हम इसे लेकर रहेंगे”, “तूम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूगा”..ये सब तो बस नारे हैं, नारों का क्या। क्या हम वाकई में आजाद हो चुके हैं? संविधान तो आजादी की पूरी गारंटी देता है, उसकी हिफाजत के लिए एक पूरा तंत्र खड़ा है, फौज है, असलहा है....फिर हाथ में बंदूक लेकर खूनी क्रांति की बात करने वाले तथाकथित बागी क्यों? क्यों? क्यों?
नगरों और महानगरों में बिल्डिंगों की कतारें खड़ी की जा रही हैं, ऊंची, गंगनचुंभी, तमाम तरह के ऐशो आराम से मुतमइन। ये विकास की गारंटी दे रहीं है, गांवों और कस्बों से निकलने वाले लोग अपनी सारी उर्जा इन बिल्डिंगों में एक घोंसला बनाने के लिए लगा रहे हैं, शिक्षा की सार्थकता को इसी से रेखांकित किया जा रहा है। बिल्डिंगों में बने घोसले यह बताते हैं कि आप विकास के किस मंजिल पर पांव रखे हैं, फिर आने वाले नश्लों को भी उसी कतार में हांकने की जद्दोजहद से थककर चूर होते लोग...इंसान को ढालने वाला सांचा कहां है?? और इस सांचे की जरूरत है भी या नहीं??
विशाल तादाद में खड़ी कंपनियों की कतारें...ताबड़तोड़ जाब का आफर, गले में टाई होना जरूरी। संगठित सूदखोर बैंकों का विस्तार, शहर-शहर गांव-गांव को अपने लपेट में लेने की वैज्ञानिक योजना से लैस, लेकिन मानवीयता का नकाब ओढ़े। जवाबदेही की गारंटी पर सोने की तरह खरा उतरने की गहरी साजिश से भरी हुई। प्रचार तंत्रों का खौफनाक हमला, जिसने हर किसी के लिए उसकी चौहद्दी निर्धारित कर दी है...अचिन्हित, और अनदेखी चौहद्दी। व्यक्ति के वजूद का यशोगान करके उसको उसके वजूद के दायरे में कैद करने के षडयंत्र को अमली जामा पहनाते प्रचारतंत्र। मैं में विभाजित समष्टि और मैं दायरे में सिमटा हुआ तमाम तंत्रों से जूझता इनसान। क्या मैं वादी सभ्यता अपने क्लाइमेक्स पर पहुंच गई है या अभी कुछ कदम और चलना बाकी है??
सभ्यता की शुरुआत, धरती पर विचरण करता बिना कपड़ों का नंग धड़ंग आदमी। सभ्यता का क्लाइमेक्स पबों, रेस्त्राओं में बिना कपड़ों का थिरकता नंग धड़ंग आदमी। लेकिन भूख के चेहरा आज भी नहीं बदला।
आंखों के सामने अंधेरा छाने पर चारों ओर अंधकार ही दिखता है, मनिषियों ने बंद आंखों से रोशनी की तलाश की है...और गहन अंधकार में पड़े लोगों के पथ पर रोशनी बिखेरी हैं....आंखे बंद कर लेता हूं...शायद कोई रश्मि फूटे...क्या यह अंधकार से भागना है?? या फिर खुद से??
जीसस डेथ के बाद किस किंगडम की बात करता है?? ईश्वर का किंगडम!! यदि ईश्वर का किंगडम डेथ के बाद शुरु होता है तो यह किसका किंगडम है ? जीसस झूठ बोलता है। अल्लाह कियामत के दिन की बात करता है, और कियामत के दिन इनसान के कृत्यों का लेखा जोखा करने के बाद जन्नत और दोजख की बात करता है...वह भी झूठ बोलता है। हिन्दु मनिषियों ने स्वर्ग और नरक की कल्पना की है....झूठ से भरी हुई कल्पना। लेकिन इनके इरादे नेक थे, ईश्वर के राज्य के नाम से ये लोग धरती पर कल्पनातीत ईश्वरीय व्यवस्था लाने की योजना पर काम कर रहे थे।.....अब तो बंदूक गरज रहे हैं....आदर्श राज्य घायल है....क्या बंदूकों के बिना रूस में लेनिन के नेतृत्व में वोल्शेविक क्रांति संभव था?? बिल्कुल नहीं। क्या चिंदबरम की फौज दंतेवाड़ा की जंगलों में पिकनिक मनाने गई थी? बिल्कुल नहीं। वे लोग माओवादियों को टारगेट कर रहे थे। ऐसे में माओवादियों ने उन्हें खाक में मिला दिया तो एक तरह से उन्होंने युद्ध के नियम का ही पालन किया। चिदंबरम की फौज और माओवादी निर्मम और निरर्थक युद्ध में फंसते जा रहे हैं।
दिनकर की एक कविता याद आ रही है....
वह कौन रोता है वहां
इतिहास के अध्याय पर
जिसमें लिखा है नौजवानों
के लहू का मोल है,
जो आप तो लड़ता नहीं
लड़वा किशोरों को मगर
आश्वत होकर सोचता
शोणित बहा, लेकिन
गई बच लाज सारे देश की।
धुंधली हो चुकी परिकथाओं को कई बार जेहन में लाने की कोशिश करता हूं, शायद जादुई किस्सागोई खौलती हुई खंजरों के घाव को तराश कर कुछ देर के लिए अलग कर दे। उन चुंबनों की कंपकंपाहट को भी समेटने की कोशिश करता हूं जो कभी जिंदगी की हरियाली में यकीन दिलाती थी। लेकिन एके -47 की तड़तड़ाहट खौलते हुये शीशे की तरह कानों के अंदर पिघलता हुआ बेचैनी के कगार पर खड़ा देता है। लाल सलाम जिंदाबाद!! माओत्से तुंग जिंदाबाद!! की गूंज की निरर्थकता शरीर को सुन्न कर देता है। लोभ में गले तक डूबी हुई काहिल सरकार की निर्मम असंवेदनशीलता मुर्दे जैसी बदूब से भरी हुई लगती है। तभी रेडियो पर पूर्ण अर्थ पसारते हुये एक अनचाहा गीत गूंज उठता है....कहां हैं, कहां है, कहां है, जिन्हें नाज है हिंद पर वे कहा हैं।
“स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, हम इसे लेकर रहेंगे”, “तूम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूगा”..ये सब तो बस नारे हैं, नारों का क्या। क्या हम वाकई में आजाद हो चुके हैं? संविधान तो आजादी की पूरी गारंटी देता है, उसकी हिफाजत के लिए एक पूरा तंत्र खड़ा है, फौज है, असलहा है....फिर हाथ में बंदूक लेकर खूनी क्रांति की बात करने वाले तथाकथित बागी क्यों? क्यों? क्यों?
नगरों और महानगरों में बिल्डिंगों की कतारें खड़ी की जा रही हैं, ऊंची, गंगनचुंभी, तमाम तरह के ऐशो आराम से मुतमइन। ये विकास की गारंटी दे रहीं है, गांवों और कस्बों से निकलने वाले लोग अपनी सारी उर्जा इन बिल्डिंगों में एक घोंसला बनाने के लिए लगा रहे हैं, शिक्षा की सार्थकता को इसी से रेखांकित किया जा रहा है। बिल्डिंगों में बने घोसले यह बताते हैं कि आप विकास के किस मंजिल पर पांव रखे हैं, फिर आने वाले नश्लों को भी उसी कतार में हांकने की जद्दोजहद से थककर चूर होते लोग...इंसान को ढालने वाला सांचा कहां है?? और इस सांचे की जरूरत है भी या नहीं??
विशाल तादाद में खड़ी कंपनियों की कतारें...ताबड़तोड़ जाब का आफर, गले में टाई होना जरूरी। संगठित सूदखोर बैंकों का विस्तार, शहर-शहर गांव-गांव को अपने लपेट में लेने की वैज्ञानिक योजना से लैस, लेकिन मानवीयता का नकाब ओढ़े। जवाबदेही की गारंटी पर सोने की तरह खरा उतरने की गहरी साजिश से भरी हुई। प्रचार तंत्रों का खौफनाक हमला, जिसने हर किसी के लिए उसकी चौहद्दी निर्धारित कर दी है...अचिन्हित, और अनदेखी चौहद्दी। व्यक्ति के वजूद का यशोगान करके उसको उसके वजूद के दायरे में कैद करने के षडयंत्र को अमली जामा पहनाते प्रचारतंत्र। मैं में विभाजित समष्टि और मैं दायरे में सिमटा हुआ तमाम तंत्रों से जूझता इनसान। क्या मैं वादी सभ्यता अपने क्लाइमेक्स पर पहुंच गई है या अभी कुछ कदम और चलना बाकी है??
सभ्यता की शुरुआत, धरती पर विचरण करता बिना कपड़ों का नंग धड़ंग आदमी। सभ्यता का क्लाइमेक्स पबों, रेस्त्राओं में बिना कपड़ों का थिरकता नंग धड़ंग आदमी। लेकिन भूख के चेहरा आज भी नहीं बदला।
आंखों के सामने अंधेरा छाने पर चारों ओर अंधकार ही दिखता है, मनिषियों ने बंद आंखों से रोशनी की तलाश की है...और गहन अंधकार में पड़े लोगों के पथ पर रोशनी बिखेरी हैं....आंखे बंद कर लेता हूं...शायद कोई रश्मि फूटे...क्या यह अंधकार से भागना है?? या फिर खुद से??
जीसस डेथ के बाद किस किंगडम की बात करता है?? ईश्वर का किंगडम!! यदि ईश्वर का किंगडम डेथ के बाद शुरु होता है तो यह किसका किंगडम है ? जीसस झूठ बोलता है। अल्लाह कियामत के दिन की बात करता है, और कियामत के दिन इनसान के कृत्यों का लेखा जोखा करने के बाद जन्नत और दोजख की बात करता है...वह भी झूठ बोलता है। हिन्दु मनिषियों ने स्वर्ग और नरक की कल्पना की है....झूठ से भरी हुई कल्पना। लेकिन इनके इरादे नेक थे, ईश्वर के राज्य के नाम से ये लोग धरती पर कल्पनातीत ईश्वरीय व्यवस्था लाने की योजना पर काम कर रहे थे।.....अब तो बंदूक गरज रहे हैं....आदर्श राज्य घायल है....क्या बंदूकों के बिना रूस में लेनिन के नेतृत्व में वोल्शेविक क्रांति संभव था?? बिल्कुल नहीं। क्या चिंदबरम की फौज दंतेवाड़ा की जंगलों में पिकनिक मनाने गई थी? बिल्कुल नहीं। वे लोग माओवादियों को टारगेट कर रहे थे। ऐसे में माओवादियों ने उन्हें खाक में मिला दिया तो एक तरह से उन्होंने युद्ध के नियम का ही पालन किया। चिदंबरम की फौज और माओवादी निर्मम और निरर्थक युद्ध में फंसते जा रहे हैं।
दिनकर की एक कविता याद आ रही है....
वह कौन रोता है वहां
इतिहास के अध्याय पर
जिसमें लिखा है नौजवानों
के लहू का मोल है,
जो आप तो लड़ता नहीं
लड़वा किशोरों को मगर
आश्वत होकर सोचता
शोणित बहा, लेकिन
गई बच लाज सारे देश की।
जबर्दस्त लेखन.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteइसे 11.04.10 की चर्चा मंच (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
http://charchamanch.blogspot.com/
समस्या बड़ी गंभीर है, बल्कि कई समस्याओं का झोल है. गरीबी, भूख, बेरोजगारी, आतंक, जुर्म, नाइन्साफी, एक और दौलत का अम्बार, दूसरी ओर दो जून की रोटी तक नहीं.. सरकारों का मूर्ति प्रेम और गांव में हवाई अड्डा बनाने की सनक..
ReplyDeleteवह कौन रोता है वहाँ ।
ReplyDeleteकल हमारी बारी है ।
कल पढ़ा था .कुछ कहने की स्थिति में तब भी नहीं था.....ओर अब भी नहीं....... कुछ जरूर प्रत्यक्षा जी के ब्लॉग पर उड़ेल आया हूँ
ReplyDeleteLots of casinos even have sportsbooks, bingo and poker rooms hooked up. Funds can simply be transferred from one tab to a different, giving real-money players in even more choice. Simply log into your most popular on line casino or sports betting web site to play lots of of slots video games, craps, blackjack and roulette, or have a guess on the big soccer match or UFC fight. 1xbet Whether you live miles from Las Vegas, or even your nearest on line casino or bookmakery, the truth is most land-based casinos and sportsbooks can't compete with what on-line casinos and gambling websites have to offer. Internet gambling can provide hassle-free sign-ups, super-quick banking and a choice of video games and sports betting alternatives received't|you will not} discover in a stay setting.
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