काशी में एक दिन
---हरिशंकर राढ़ी
गेस्ट हाउस में नहा - धोकर लगभग ११ बजे हम काशी विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए चल पड़े। काशी में रिक्शे अभी बहुत चलते हैं, भले ही स्वचालित वाहनों की संखया असीमित होती जा रही हो। रिक्शे की सवारी का अपना अलग आनन्द और महत्त्व है। इधर रिक्शा चला और उधर विचारों की श्रृंखला शुरू हो गई।
काशी यानी वाराणसी अर्थात बाबा विश्वनाथ की नगरी। उत्तर भारत की सांस्कृतिक राजधानी। एक ऐसा विलक्षण शहर जहाँ लोग जीने ही नहीं मरने भी आते हैं। मेरी दृष्टि में यह विश्व का ऐसा इकलौता शहर होगा जहाँ पर मरने का इतना महत्त्व है। इस शहर का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी कि भारतीय संस्कृति। कितना पीछे जाएं ? सतयुग तक का प्रमाण तो हरिश्चंद की कथाओं में ही मिल जाता है। पौराणिक मान्यताओं पर विश्वास करें तो भोले नाथ की नगरी स्वयं भोलेनाथ ने ही बसाई थी। या तो वे कैलाश पर रहते या फिर काशी में । एक मित्र के मजाक को लें तो यह बाबा भोलेनाथ की शीतकालीन राजधानी थी क्योंकि शीतकाल में तो कैलाश पर रहने लायक ही नहीं होता।
बनारस एक स्थान नहीं, एक संस्कृति का नाम है- ज्ञान की संस्कृति, अध्यात्म की संस्कृति, सभ्यता की संस्कृति, संगीत की संस्कृति, मस्त मौलेपन की संस्कृति और भांग की संस्कृति। सब कुछ एक साथ। आदि शंकराचार्य को शास्त्रार्थ करना है तो काशी आते हैं, मंडन मिश्र की काशी और उनकी पत्नी से विवश होते हैं कि परकाया प्रवेश से काम शास्त्र तक की शिक्षा लेनी पड ती है। तथागत को भी काशी आना पड ता है और अशोक महान को बौद्ध धर्म का प्रचार यहीं से शुरू करना पड ता है। सारनाथ यहीं बनता है। गोस्वामी जी अपना अजर- अमर रामचरित मानस यहीं पूरा करते हैं ।कबीर का लहरतारा, रामानन्द का योग, उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की लमही और जय शंकर प्रसाद की कामायनी, सब कुछ तो यहीं काशी में ही है।
अभी प्रसिद्ध अंगरेजी कवि वाल्काट को पढ़ रहा था , उसमें भी बनारस का संदर्भ है। बनारस तो हिन्दू परिवारों की नाम सूची में सम्मिलित रहा है। कितने लोग बनारसी दास की संज्ञा से विभूषित हुए और बनारसी दास चतुर्वेदी को तो हिन्दी साहित्य में कौन नहीं जानता ?बनारस में रहने वाले कई लोगों का तो उपनाम ही बनारसी बाबू हुआ करता था।
यही वह काशी है। साधु- सन्यासी यहां- वहां घूम रहे हैं। राँड -साँड - सन्यासी , इनसे बचे तो सेवै काशी । हमारा रिक्शा इस बीच जाम-जूम से निकलता हुआ विश्वनाथ जी पहुँच जाता है। अभी रिक्शे से ठीक से उतर भी नहीं पाया हूँ और एक एजेण्ट साथ लग जाता है। अपने आप बोले जा रहा है- बाबूजी, साढ़े ११ बज गए हैं और बारह बजे मंदिर बन्द हो जाएगा। लाइन बहुत लम्बी है। आपको बिना लाइन के दर्शन करा दूँगा। जो मर्जी दे दीजिएगा। मैं कुछ भी उत्तर नहीं देता हूँ। मुझे यह भी पता नहीं कि मंदिर कब बन्द होता है! पता नहीं यह पंडा जी सच बोल रहा है या नहीं! साथ में पत्नी और बच्चे हैं , उसे मालूम है कि ऐसी स्थिति में लोग कष्ट नहीं उठा सकते। धूप भी बहुत तेज है । मैं कुछ नहीं बोलता हूँ और वह जानता है कि मौनम स्वीकार लक्षणम्।अब वह आगे- आगे हो लेता है और मैं सपरिवार पीछे-पीछे। पतली गली का रास्ता लेता है और मैं समझ जाता हूँ कि यह पीछे की तरफ से ले जाएगा। इसी बीच उसका चेला आ जाता है और वह हमारी बागडोर उसके हाथ में सौंपकर शायद और किसी भक्त की तलाश में निकल जाता है और चेले से कह जाता है कि बाबूजी को ठीक से दर्शन करा देना और जो दें , ले लेना ठकठेना मत करना ।
प्रसाद की एक दूकान पर वह रुकता है । उसकी सेट दूकान होगी । वहां जूते - चप्पल उतारते हैं और हस्त प्रक्षालन करते हैं । दूकान पर मोबाइल वगैरह के लिए लॉकर भी है पर हमने अपना सारा मोबाइल कमरे पर ही छोड़ दिया था। दूकानदार प्रसाद की कई टोकरियाँ जल्दी- जल्दी बनाता है किन्तु मैं भी सतर्क हूँ। एक की कीमत सौ रुपए! मैं एक ही लेता हूँ , परिवार तो एक ही है। वे जिद करते हैं किन्तु मैं भी टस से मस नहीं होता हूँ।
हमें पिछले दरवाजे से प्रवेश मिलता है । पुलिस है सुरक्षा जांच भी है पर शायद दिखावा ही है। अन्दर वह हमें एक अन्य पंडितजी को सुपुर्द कर देता है । वे हमें मुख्य गर्भगृह के सामने बिना रोक-टोक ले जाता है। मेरा गोत्र पूछता है और पूजा करवाता है। मंत्र बुलवाता है और मेरा शुद्ध उच्चारण सुनकर कुछ सहम सा जाता है। खैर पूजा के बाद वह हमें मंदिर में प्रवेश करा देता है बिना पंक्ति के ही । पुलिस का एक सिपाही द्वार पर खड़ा है जो हमें रोकता ही नहीं । प्रवेश करने में मुझे संकोच होता है क्योंकि मैं पंक्ति में नहीं था। मैं पंडित जी की तरफ मुड कर देखता हूँ तो वह कहता है जाइए जाइए, दर्शन करिए। सिपाही हमें अन्दर की तरफ धक्का देता है और हम लोग ज्योतिर्लिग के सामने । दर्शन , प्रसाद और फिर बाहर। किसका कितना हिस्सा है यह मुझे नहीं मालूम।
फिर पंडा मंदिर का इतिहास बताता है। सवा मन सोने का कलश , मंदिर ध्वंश और ज्ञानवापी मस्जिद का वृत्तांत। मुझे मालूम है किन्तु बच्चों को नहीं । ज्यादा बोलता देखकर मैं उसे बताता हूँ कि मै रामेश्वरम तक सात ज्योतिर्लिंगों की और अन्य बहुत से तीर्थस्थलों की यात्रा कर चुका हूँ तो उसका स्वर बदल जाता है । यहां वहां पूजा करवा कर वह हमें मुक्त करता है किन्तु समुचित दक्षिणा के बाद । चलिए दर्शन तो यथासमय हो गया । शुल्क के बिना तो शायद कुछ भी संभव नहीं । बाहर निकलते ही दर्शन एजेण्ट साथ लग लेता है और पचपन रुपये देकर उससे पिंड छुड़ाता हूँ।
मैं बच्चों को बताता हूँ मंदिर के पास ही गंगा जी भी हैं और बच्चे कैसे कि जिद न पकड़ें ? रास्ता मुझे भी भूल रहा है। पिछली बार विश्वनाथ जी का दर्शन लगभग बीस साल पहले किया था। तबसे बनारस आना जाना कई बार हुआ पर दर्शन नहीं। अभी पिछले साल ही तीन बार गया। एक पुलिस वाले से गंगा का रास्ता हिन्दी में पूछता हूँ और वह बड़ी प्रसन्नतापूर्वक भोजपुरी में रास्ता बताता है। मैं उसे धन्यवाद देता हूँ तो वह मेरा मुँह ताकता है। अभी शायद यहां इतनी औपचारिकता नहीं पहुँची है हालांकि काशी तो सभ्यता की नगरी है।
यहां दशाश्वमेध घाट है । यह समय अच्छा नहीं है, दोपहर है । काशी की तो सुबह मशहूर है । पर गंगा की दुर्दशा देखी नहीं जा रही है । सिकुड कर पतली सी , गरीबी की मार झेलती या किसी असाध्य रोग से पीडि त । विश्वास नहीं हो रहा कि यह वही पतित पावनी गंगा है जो स्वर्ग से उतरी थी। जो पानी अमृत था वह अब प्रदूषण से काला हो गया है। कुछ नावें है जो यात्रियों को उसपार ले जाने का आमंत्रण दे रही हैं। इसी गंगा ने काशी को तीन तरफ वेष्टित किया हुआ है और यहां की गंगा को ही देखकर भगवान भोलेनाथ काशी में डेरा डाला था। यही वह दशाश्वमेध घाट है जहाँ ब्रह्मा ने दस अश्वमेध यज्ञ किया था और जिस घाट पर नहा लेने मात्र अश्वमेध यज्ञ का पुण्य मिलता है। पर हमारा विकास हो गया है और हम गंगा को इस लायक छोड़ें कि वह नहाने तो क्या देखने योग्य तो बचे ! मैं लौट तो रहा था पर पैर नहीं उठ रहे थे।
गेस्ट हाउस में नहा - धोकर लगभग ११ बजे हम काशी विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए चल पड़े। काशी में रिक्शे अभी बहुत चलते हैं, भले ही स्वचालित वाहनों की संखया असीमित होती जा रही हो। रिक्शे की सवारी का अपना अलग आनन्द और महत्त्व है। इधर रिक्शा चला और उधर विचारों की श्रृंखला शुरू हो गई।
काशी यानी वाराणसी अर्थात बाबा विश्वनाथ की नगरी। उत्तर भारत की सांस्कृतिक राजधानी। एक ऐसा विलक्षण शहर जहाँ लोग जीने ही नहीं मरने भी आते हैं। मेरी दृष्टि में यह विश्व का ऐसा इकलौता शहर होगा जहाँ पर मरने का इतना महत्त्व है। इस शहर का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी कि भारतीय संस्कृति। कितना पीछे जाएं ? सतयुग तक का प्रमाण तो हरिश्चंद की कथाओं में ही मिल जाता है। पौराणिक मान्यताओं पर विश्वास करें तो भोले नाथ की नगरी स्वयं भोलेनाथ ने ही बसाई थी। या तो वे कैलाश पर रहते या फिर काशी में । एक मित्र के मजाक को लें तो यह बाबा भोलेनाथ की शीतकालीन राजधानी थी क्योंकि शीतकाल में तो कैलाश पर रहने लायक ही नहीं होता।
बनारस एक स्थान नहीं, एक संस्कृति का नाम है- ज्ञान की संस्कृति, अध्यात्म की संस्कृति, सभ्यता की संस्कृति, संगीत की संस्कृति, मस्त मौलेपन की संस्कृति और भांग की संस्कृति। सब कुछ एक साथ। आदि शंकराचार्य को शास्त्रार्थ करना है तो काशी आते हैं, मंडन मिश्र की काशी और उनकी पत्नी से विवश होते हैं कि परकाया प्रवेश से काम शास्त्र तक की शिक्षा लेनी पड ती है। तथागत को भी काशी आना पड ता है और अशोक महान को बौद्ध धर्म का प्रचार यहीं से शुरू करना पड ता है। सारनाथ यहीं बनता है। गोस्वामी जी अपना अजर- अमर रामचरित मानस यहीं पूरा करते हैं ।कबीर का लहरतारा, रामानन्द का योग, उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की लमही और जय शंकर प्रसाद की कामायनी, सब कुछ तो यहीं काशी में ही है।
अभी प्रसिद्ध अंगरेजी कवि वाल्काट को पढ़ रहा था , उसमें भी बनारस का संदर्भ है। बनारस तो हिन्दू परिवारों की नाम सूची में सम्मिलित रहा है। कितने लोग बनारसी दास की संज्ञा से विभूषित हुए और बनारसी दास चतुर्वेदी को तो हिन्दी साहित्य में कौन नहीं जानता ?बनारस में रहने वाले कई लोगों का तो उपनाम ही बनारसी बाबू हुआ करता था।
यही वह काशी है। साधु- सन्यासी यहां- वहां घूम रहे हैं। राँड -साँड - सन्यासी , इनसे बचे तो सेवै काशी । हमारा रिक्शा इस बीच जाम-जूम से निकलता हुआ विश्वनाथ जी पहुँच जाता है। अभी रिक्शे से ठीक से उतर भी नहीं पाया हूँ और एक एजेण्ट साथ लग जाता है। अपने आप बोले जा रहा है- बाबूजी, साढ़े ११ बज गए हैं और बारह बजे मंदिर बन्द हो जाएगा। लाइन बहुत लम्बी है। आपको बिना लाइन के दर्शन करा दूँगा। जो मर्जी दे दीजिएगा। मैं कुछ भी उत्तर नहीं देता हूँ। मुझे यह भी पता नहीं कि मंदिर कब बन्द होता है! पता नहीं यह पंडा जी सच बोल रहा है या नहीं! साथ में पत्नी और बच्चे हैं , उसे मालूम है कि ऐसी स्थिति में लोग कष्ट नहीं उठा सकते। धूप भी बहुत तेज है । मैं कुछ नहीं बोलता हूँ और वह जानता है कि मौनम स्वीकार लक्षणम्।अब वह आगे- आगे हो लेता है और मैं सपरिवार पीछे-पीछे। पतली गली का रास्ता लेता है और मैं समझ जाता हूँ कि यह पीछे की तरफ से ले जाएगा। इसी बीच उसका चेला आ जाता है और वह हमारी बागडोर उसके हाथ में सौंपकर शायद और किसी भक्त की तलाश में निकल जाता है और चेले से कह जाता है कि बाबूजी को ठीक से दर्शन करा देना और जो दें , ले लेना ठकठेना मत करना ।
प्रसाद की एक दूकान पर वह रुकता है । उसकी सेट दूकान होगी । वहां जूते - चप्पल उतारते हैं और हस्त प्रक्षालन करते हैं । दूकान पर मोबाइल वगैरह के लिए लॉकर भी है पर हमने अपना सारा मोबाइल कमरे पर ही छोड़ दिया था। दूकानदार प्रसाद की कई टोकरियाँ जल्दी- जल्दी बनाता है किन्तु मैं भी सतर्क हूँ। एक की कीमत सौ रुपए! मैं एक ही लेता हूँ , परिवार तो एक ही है। वे जिद करते हैं किन्तु मैं भी टस से मस नहीं होता हूँ।
हमें पिछले दरवाजे से प्रवेश मिलता है । पुलिस है सुरक्षा जांच भी है पर शायद दिखावा ही है। अन्दर वह हमें एक अन्य पंडितजी को सुपुर्द कर देता है । वे हमें मुख्य गर्भगृह के सामने बिना रोक-टोक ले जाता है। मेरा गोत्र पूछता है और पूजा करवाता है। मंत्र बुलवाता है और मेरा शुद्ध उच्चारण सुनकर कुछ सहम सा जाता है। खैर पूजा के बाद वह हमें मंदिर में प्रवेश करा देता है बिना पंक्ति के ही । पुलिस का एक सिपाही द्वार पर खड़ा है जो हमें रोकता ही नहीं । प्रवेश करने में मुझे संकोच होता है क्योंकि मैं पंक्ति में नहीं था। मैं पंडित जी की तरफ मुड कर देखता हूँ तो वह कहता है जाइए जाइए, दर्शन करिए। सिपाही हमें अन्दर की तरफ धक्का देता है और हम लोग ज्योतिर्लिग के सामने । दर्शन , प्रसाद और फिर बाहर। किसका कितना हिस्सा है यह मुझे नहीं मालूम।
फिर पंडा मंदिर का इतिहास बताता है। सवा मन सोने का कलश , मंदिर ध्वंश और ज्ञानवापी मस्जिद का वृत्तांत। मुझे मालूम है किन्तु बच्चों को नहीं । ज्यादा बोलता देखकर मैं उसे बताता हूँ कि मै रामेश्वरम तक सात ज्योतिर्लिंगों की और अन्य बहुत से तीर्थस्थलों की यात्रा कर चुका हूँ तो उसका स्वर बदल जाता है । यहां वहां पूजा करवा कर वह हमें मुक्त करता है किन्तु समुचित दक्षिणा के बाद । चलिए दर्शन तो यथासमय हो गया । शुल्क के बिना तो शायद कुछ भी संभव नहीं । बाहर निकलते ही दर्शन एजेण्ट साथ लग लेता है और पचपन रुपये देकर उससे पिंड छुड़ाता हूँ।
मैं बच्चों को बताता हूँ मंदिर के पास ही गंगा जी भी हैं और बच्चे कैसे कि जिद न पकड़ें ? रास्ता मुझे भी भूल रहा है। पिछली बार विश्वनाथ जी का दर्शन लगभग बीस साल पहले किया था। तबसे बनारस आना जाना कई बार हुआ पर दर्शन नहीं। अभी पिछले साल ही तीन बार गया। एक पुलिस वाले से गंगा का रास्ता हिन्दी में पूछता हूँ और वह बड़ी प्रसन्नतापूर्वक भोजपुरी में रास्ता बताता है। मैं उसे धन्यवाद देता हूँ तो वह मेरा मुँह ताकता है। अभी शायद यहां इतनी औपचारिकता नहीं पहुँची है हालांकि काशी तो सभ्यता की नगरी है।
यहां दशाश्वमेध घाट है । यह समय अच्छा नहीं है, दोपहर है । काशी की तो सुबह मशहूर है । पर गंगा की दुर्दशा देखी नहीं जा रही है । सिकुड कर पतली सी , गरीबी की मार झेलती या किसी असाध्य रोग से पीडि त । विश्वास नहीं हो रहा कि यह वही पतित पावनी गंगा है जो स्वर्ग से उतरी थी। जो पानी अमृत था वह अब प्रदूषण से काला हो गया है। कुछ नावें है जो यात्रियों को उसपार ले जाने का आमंत्रण दे रही हैं। इसी गंगा ने काशी को तीन तरफ वेष्टित किया हुआ है और यहां की गंगा को ही देखकर भगवान भोलेनाथ काशी में डेरा डाला था। यही वह दशाश्वमेध घाट है जहाँ ब्रह्मा ने दस अश्वमेध यज्ञ किया था और जिस घाट पर नहा लेने मात्र अश्वमेध यज्ञ का पुण्य मिलता है। पर हमारा विकास हो गया है और हम गंगा को इस लायक छोड़ें कि वह नहाने तो क्या देखने योग्य तो बचे ! मैं लौट तो रहा था पर पैर नहीं उठ रहे थे।
इसी तरह के एजेंट नुमा पंडों या पंडे नुमा एजेंटों ने तीर्थों को बदनाम कर दिया है...
ReplyDelete@ हम गंगा को इस लायक छोड़ें कि वह नहाने तो क्या देखने योग्य तो बचे !
ReplyDeleteयह बहुत ज़रूरी है।
badiya sansmaran...
ReplyDeleteकर पतली सी , गरीबी की मार झेलती या किसी असाध्य रोग से पीडि त । विश्वास नहीं हो रहा कि यह वही पतित पावनी गंगा है जो स्वर्ग से उतरी थी।
ReplyDelete" kyaa khun smejh nahi aa rha.....behd dyniy sthithi hai"
regards
accha rochak varnan hai.. dhanywad..
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन संस्मरण है कुछ hindi Guide भी पढ़े
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