ओकरे किरुआ परी
-- हरि शंकर राढ़ी
उस समय लगभग साढ़े बारह बज रहे थे। धूप अपने पूरे यौवन पर थी। गर्मी से बुरा हाल था लेकिन इस सांस्कृतिक नगरी में बिजली गुल थी । भूख लगी हुई थी और हम खाना खाने एक होटल में गए। उसका इनवर्टर फेल हो चुका था और जेनेरेटर था नहीं । गर्मी से बैठा नहीं जा रहा था और हम अपनी भूख लेकर वापस आ गए। चारो तरफ जेनेरेटर दनदना रहे थे। रिक्शे पर बैठे और हम कैण्ट की तरफ चल दिए और उसी के साथ मेरे विचारों की श्रृंखला भी।
पूरे यूपी में बिजली का बुरा हाल है और हम कहते हैं कि बड़ा विकास हुआ है। अब तो विकास दिखता नहीं , दिखाया जाता है। विकास के आंकड़ों से विकास सिद्ध किया जाता है।विकास हुआ कितना है यह तो भुक्तभोगी ही जानता है। मुझे याद है, मेरे गांव का विद्युतीकरण वर्ष १९८८ में हुआ था और वह भी व्यक्तिगत प्रयासों से ।उस दौरान बीस से बाइस घंटे बिजली रहा करती थी। न्यूनतम १८ घंटे तो रहती ही थी और कभी-कभी तो २४ घंटे भी मिल जाती थी । सरकार कह सकती है कि तब आबादी कम थी । तर्क ढॅँूढ लेना कोई बहुत मुश्किल कार्य नहीं होता ।आबादी बढ ी है पर बिजली की खपत व्यक्तिगत रूप में कम ,पारिवारिक रूप में ज्यादा होती है। आज यूपी में बिजली का आपूर्ति आधिकारिक तौर पर छः घंटे है और कट पिट कर यह तीन - चार घंटे बैठती है । अर्थात आपूर्ति एक तिहाई हो चुकी है जबकि आबादी तो तीन गुना नहीं बढ़ी है । कीमतें तो करीब पंद्रह गुना बढ चुकी हैं। मुझे यह भी ठीक से याद है कि तब घरेलू उपभोग की बिजली पांच सौ वाट लोड तक सत्रह रुपये प्रति माह के दर से थी।इतना विकास हुआ तो उत्पादन क्यों नहीं बढ ा ?
प्रश्न इच्छा शक्ति और जनकल्याण की भावना का है। नब्बे के दशक से क्षेत्रीय राजनीति का बोलबाला हो गया। छोटी- छोटी राजनैतिक पार्टियाँ अस्तित्व में आईं और विकास की जगह जातिवाद का पत्ता खूब चला। आजादी के चालीस साल बाद जब शिक्षा का इतना विकास हो चुका था, जातिवाद केवल शीर्षक बन कर रह चुका था , तब इस प्रकार का जाति आधारित ध्रुवीकरण एक आश्चर्य जनक घटना थी। आखिर वह कैसी शिक्षा थी जो हमें पुनः उसी जातिवादी खोह की ओर वापस लेकर चल पड़ी ?जिनकी न कोई राजनीतिक पृष्ठ भूमि थी और न आदर्श सोच और न एक बेहतर भविष्य का सपना , ऐसे लोग सत्ता में आ गए और आते गए। जब बिना किसी विकास के ही जबानी खर्च पर वोट मिलता रहे तो नाहक परेच्चान होने की क्या जरूरत ? अब अगर आपने जाति पर खुच्च होकर सरकारें बनाईं हैं तो इसी पर खुश रहिए, बिजली का क्या करेंगे ? अन्ततः खुश ही तो होना था!
खैर, कैण्ट आया और खाना खाकर आराम करने लग गए। इस बीच मैंने प्रो० बंशी धर त्रिपाठी जी को फोन कर लिया। प्रो० त्रिपाठी जी कशी विद्यापीठ मे समाज शास्त्र के प्राध्यापक थे और अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं।
कई वर्ष पहले समकालीन अभिव्यक्ति में प्रकाशनार्थ उनके कई लेख प्राप्त हुए थे। व्यक्तिगत रूप से मुझे उनक ेलेख बहुत पसन्द आए थे और हमने उन्हें यथासमय प्रकाशित भी किया था। इसके बाद गोस्वामी तुलसी दास की जन्मभूमि से संबंधित उनका एक शोध परक लेख साहित्य अमृत में प्रकाशित हुआ था और उस पर मैंने कुछ और तर्क देते हुए समर्थन किया था तो उन्होंने स्वयं फोन करके लम्बी बातचीत की थी। तबसे देर सबेर बातों का सिलसिला जारी था। उन्हें फोन करके जब मैंने ये बताया कि मैं वाराणसी में ही हूँ तो वे बड े प्रसन्न हुए। बोले- अवस्था मेरी ऐसी नहीं है कि मैं मिलने आ सकूँ, यदि आप आ जाएं तो बड ा ही अच्छा हो। मैंने भी हाँ भर दी । विद्वानों का आशीर्वाद मिले कहाँ ?
प्रो० त्रिपाठी जी करौंदी में रहते हैं। यह तो मुझे मालूम था पर वाराणसी के भूगोल से मैं इतना वाकिफ भी नहीं हूँ। शाम का समय तय था । परिवार को छोड़कर मैं उनसे मिलने चल पड़ा । कैण्ट से लंका और वहां से करौंदी। घर आसानी से मिल गया । बड़ा सा गेट सामान्यतया भिड़ाया हुआ था। वे बरामदे में ही बैठे थे, मैंने उन्हें पहचान लिया । फोटो कई जगह देखा था और खुद अपनी पत्रिका में भी छापा था। पर त्रिपाठी जी मुझे नहीं पहचान सके । जब मैंने परिचय दिया तो वे बड़े अचम्भित हुए और प्रसन्न भी । उनकी कल्पना थी कि मैं कोई उम्रदराज साठ से ऊपर का व्यक्ति होऊँगा क्योंकि समकालीन अभिव्यक्ति का सह संपादक हूँ और काफी दिनों से उनके सम्पर्क में हूँ।
प्रो० त्रिपाठी की विद्वता से प्रभावित हुए बिना शायद ही कोई रह पाए। वे समाज शास्त्र के प्रोफेसर रहे किन्तु मुझे कई बार भ्रम सा हुआ कि ये संस्कृत के प्रोफेसर होंगे । आपने हिन्दी, अंगरेजी और संस्कृत तीनों ही भाषाओँ में उच्च कोटि का लेखन किया है। भारत में साधुओं के जीवन पर उन्होंने गहन शोध किया है और उनकी पुस्तक साधूज ऑफ़ इंडिया पूरे विश्व में काफी सराही गई है। इसके अलावा उन्होंने अत्यन्त स्तरीय और उपयोगी ग्रन्थों का सृजन किया है। चारो धाम यात्रा का बड ा ही सजीव वर्णन उन्होंने किया हैं। गीता के पूरे सात सौ श्लोक उन्हें कण्ठस्थ हैं। सरलता तो उनकी श्लाघनीय है। विद्वता और सरलता का ऐसा संयोग विरले ही मिलता है। मुझे क्षण भर बाद ही ऐसा लगने लगा जैसे मैं इनसे कई बार मिल चुका हूँ और जैसे अपने घर में हूँ। स्वागत और स्नेह की तो बात ही मत पूछिए ! अपनी कई पुस्तकें उन्होंने मुझे उपहार स्वरूप दीं और विभिन्न विषयों पर काफी ज्ञानवर्धक बहस भी की। मुझे लगा कि जितना सम्मान इस मनीषी को मिलना चाहिए , उससे बहुत कम मिला । वस्तुतः साहित्य लेखन में आजकल इतनी भीड हो गई है और उत्पाद इतना बढ गया है कि उसमें स्तरीय साहित्य और साहित्यकार डूब सा गया है।
बड़े गुणग्राही और विनम्र। गोस्वामी तुलसी दास की भाषा में कहें तो उनका हृदय उस सागर के समान है जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर अपनी गरिमा छोड कर उसकी तरफ मिलने चल देता है।
घंटे भर बाद किसी तरह विदा लेकर कैण्ट की तरफ भागा और जाम से जूझते हुए किसी तरह पहुंच भी गया। वहाँ पत्नी और बच्चे संकटमोचन और मानस मंदिर के लिए तैयार बैठे थे। इसमें ऐसा कुछ नहीं जिसका वर्णन करना आवश्यक हो सिवा इसके कि यह वही संकटमोचन मंदिर है जहां भयंकर विस्फोट हुआ था और अब वहां सुरक्षा के नाम पर खानापूर्ति के सिवा कुछ नहीं बचा है।
अगली सुबह जल्दी ही तैयार होकर बस अड्डे पहुँच गए और थोड ी जद्दोजहद के बाद बस मिल भी गई और फिर चल भी पड़ी । शहर से बाहर निकलते और टिकट की औपचारिकता पूरी होते ही ड्राइवर महोदय ने भोजपुरी गानों की कैसेट ठोंक दी । आप बड े ही शौक़ीन मिजाज शख्स थे क्योंकि यह बस पूर्णतया सरकारी यानी यूपी रोडवेज की थी और ऐसी बसों में गाने की व्यवस्था आश्चर्य ही होती है।
भोजपुरी गानों का अपना अलग ही रस होता है । धीरे- धीरे माहौल बनने लगा और फिर साहब ने भरत शर्मा व्यास का कैसेट लगा दिया । भोजपुरी में गायकों की एक लम्बी परम्परा रही है। आकाश वाणी के जमाने में मोहम्मद खलील का - कवने खोंतवा में लुकइलू अहि रे बालम चिरई ( गीत शायद भोलानाथ गहमरी का है),चांद वारसी का - नरई ताल कै चीकन मटिया जहां बसै ...... और बुल्लू यादव का - नैनों में पृथ्वीराज बस गए ॥ आदि गीत दिलो दिमाग पर छाए रहते। पॉप संगीत की ऐसी गंदी सेना भोजपुरी गीतों पर आक्रमण कर चुकी है कि अब भोजपुरी सुनने लायक ही नहीं बच पा रही। पूरी की पूरी सेना निरहुआ ब्रांड बनती जा रही है और एक वर्ग विशेष इसके पीछे दीवाना बनता जा रहा है।
इस पूरे संक्रमण में अभी दो कलाकार बचे हुए हैं जो भोजपुरी का सोंधापन और मर्यादा लिए हुए चल रहे हैं । इनमें एक तो हैं भोजपुरी की स्वरकोकिला शारदा सिन्हा और दूसरे हैं भरत शर्मा व्यास। तुलनात्मक रूप से इनका उत्पादन कम है , जैसा कि हर अच्छी चीज में होता है । भरत शर्मा के गीत में भोजपुरी का ठसका , लय ताल और पूरी सम्प्रेश्नियता है। ऐसी खाँटी भोजपुरी गाते हैं जो तीन चार दशक पहले की शुद्ध गंवईं होती थी। अब एक गीत आता है जिसे समझने में तो शुरुआत में मुझे भी दिक्कत होती है। गीत का मुखड़ा है- जे हमरे लागत अटैं जरी , ओकरे किरुआ परी। मेरे दोनों बच्चे इतनी खाँटी भोजपुरी नहीं समझते। एक तो वैसे भी बनारस और आजमगढ की भोजपुरी इस भोजपुरी से भिन्न है और उस पर इतनी शुद्ध ! किरुआ परी का अर्थ पत्नी जैसे तैसे बच्चों को समझाती है और सभी खूब हंसते हैं । थोड ी हँसी तो मुझे भी आती है पर मैं स्वर और बोल के दर्द में डूब जाता हूँ। जिनके समझ में भोजपुरी नहीं आती उनके लिए बोल के अर्थ बताता चलूँ। शायद कोई विरहिणी है जो दर्द से टूट चुकी है और अपना बुरा करने वालों को हृदय से श्राप देती है कि जो मेरी जड खोद रहा है उसे कीड े पडें गे। मुझे लगा कि यह दर्द की इन्तहा है और क्षरण के इस युग में इतना शुद्ध दर्द भी नहीं मिलता । कहाँ गए वे विरह के दिन और वे विरहिणियां या विरही जिनके दम पर पद्मावत या फिर मेघदूत जैसी रचनाएं हमें मिलीं। एक युग था जब पूरे भोजपुरी भाषा क्षेत्र के नायक बंगाल और आसाम में नौकरी के लिए जाया करते और नायिकाएं पूरी की पूरी रात विरह में तड पते हुए निका ल दिया करती । कहां बंगाल और कमरू कमच्छा ( कामरूप और कामाखया , असम ) का काला जादू उनके पतियों को भरमा लिया करता था। पूरा जीवन विरह शैया पर ही कट जाता था और भोजपुरी कवियों को विप्रलंभ श्रृंगार से सजाने का मौका मिला करता था। सच तो यह था कि इस क्षे त्र की नायिकाओं का जीवन प्यार की अनुभूति में ही व्यतीत हो जाता था और शायद यही प्यार आजीवन ईंधन का काम करता था । मुझे वे पंक्तियां बहुत ही सटीक लगती हैं-
विरह प्रेम की जागृति गति है और सुसुप्ति मिलन है,
मिलन प्रेम की अन्तिम गति है और विरह जीवन है।
उस समय लगभग साढ़े बारह बज रहे थे। धूप अपने पूरे यौवन पर थी। गर्मी से बुरा हाल था लेकिन इस सांस्कृतिक नगरी में बिजली गुल थी । भूख लगी हुई थी और हम खाना खाने एक होटल में गए। उसका इनवर्टर फेल हो चुका था और जेनेरेटर था नहीं । गर्मी से बैठा नहीं जा रहा था और हम अपनी भूख लेकर वापस आ गए। चारो तरफ जेनेरेटर दनदना रहे थे। रिक्शे पर बैठे और हम कैण्ट की तरफ चल दिए और उसी के साथ मेरे विचारों की श्रृंखला भी।
पूरे यूपी में बिजली का बुरा हाल है और हम कहते हैं कि बड़ा विकास हुआ है। अब तो विकास दिखता नहीं , दिखाया जाता है। विकास के आंकड़ों से विकास सिद्ध किया जाता है।विकास हुआ कितना है यह तो भुक्तभोगी ही जानता है। मुझे याद है, मेरे गांव का विद्युतीकरण वर्ष १९८८ में हुआ था और वह भी व्यक्तिगत प्रयासों से ।उस दौरान बीस से बाइस घंटे बिजली रहा करती थी। न्यूनतम १८ घंटे तो रहती ही थी और कभी-कभी तो २४ घंटे भी मिल जाती थी । सरकार कह सकती है कि तब आबादी कम थी । तर्क ढॅँूढ लेना कोई बहुत मुश्किल कार्य नहीं होता ।आबादी बढ ी है पर बिजली की खपत व्यक्तिगत रूप में कम ,पारिवारिक रूप में ज्यादा होती है। आज यूपी में बिजली का आपूर्ति आधिकारिक तौर पर छः घंटे है और कट पिट कर यह तीन - चार घंटे बैठती है । अर्थात आपूर्ति एक तिहाई हो चुकी है जबकि आबादी तो तीन गुना नहीं बढ़ी है । कीमतें तो करीब पंद्रह गुना बढ चुकी हैं। मुझे यह भी ठीक से याद है कि तब घरेलू उपभोग की बिजली पांच सौ वाट लोड तक सत्रह रुपये प्रति माह के दर से थी।इतना विकास हुआ तो उत्पादन क्यों नहीं बढ ा ?
प्रश्न इच्छा शक्ति और जनकल्याण की भावना का है। नब्बे के दशक से क्षेत्रीय राजनीति का बोलबाला हो गया। छोटी- छोटी राजनैतिक पार्टियाँ अस्तित्व में आईं और विकास की जगह जातिवाद का पत्ता खूब चला। आजादी के चालीस साल बाद जब शिक्षा का इतना विकास हो चुका था, जातिवाद केवल शीर्षक बन कर रह चुका था , तब इस प्रकार का जाति आधारित ध्रुवीकरण एक आश्चर्य जनक घटना थी। आखिर वह कैसी शिक्षा थी जो हमें पुनः उसी जातिवादी खोह की ओर वापस लेकर चल पड़ी ?जिनकी न कोई राजनीतिक पृष्ठ भूमि थी और न आदर्श सोच और न एक बेहतर भविष्य का सपना , ऐसे लोग सत्ता में आ गए और आते गए। जब बिना किसी विकास के ही जबानी खर्च पर वोट मिलता रहे तो नाहक परेच्चान होने की क्या जरूरत ? अब अगर आपने जाति पर खुच्च होकर सरकारें बनाईं हैं तो इसी पर खुश रहिए, बिजली का क्या करेंगे ? अन्ततः खुश ही तो होना था!
खैर, कैण्ट आया और खाना खाकर आराम करने लग गए। इस बीच मैंने प्रो० बंशी धर त्रिपाठी जी को फोन कर लिया। प्रो० त्रिपाठी जी कशी विद्यापीठ मे समाज शास्त्र के प्राध्यापक थे और अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं।
कई वर्ष पहले समकालीन अभिव्यक्ति में प्रकाशनार्थ उनके कई लेख प्राप्त हुए थे। व्यक्तिगत रूप से मुझे उनक ेलेख बहुत पसन्द आए थे और हमने उन्हें यथासमय प्रकाशित भी किया था। इसके बाद गोस्वामी तुलसी दास की जन्मभूमि से संबंधित उनका एक शोध परक लेख साहित्य अमृत में प्रकाशित हुआ था और उस पर मैंने कुछ और तर्क देते हुए समर्थन किया था तो उन्होंने स्वयं फोन करके लम्बी बातचीत की थी। तबसे देर सबेर बातों का सिलसिला जारी था। उन्हें फोन करके जब मैंने ये बताया कि मैं वाराणसी में ही हूँ तो वे बड े प्रसन्न हुए। बोले- अवस्था मेरी ऐसी नहीं है कि मैं मिलने आ सकूँ, यदि आप आ जाएं तो बड ा ही अच्छा हो। मैंने भी हाँ भर दी । विद्वानों का आशीर्वाद मिले कहाँ ?
प्रो० त्रिपाठी जी करौंदी में रहते हैं। यह तो मुझे मालूम था पर वाराणसी के भूगोल से मैं इतना वाकिफ भी नहीं हूँ। शाम का समय तय था । परिवार को छोड़कर मैं उनसे मिलने चल पड़ा । कैण्ट से लंका और वहां से करौंदी। घर आसानी से मिल गया । बड़ा सा गेट सामान्यतया भिड़ाया हुआ था। वे बरामदे में ही बैठे थे, मैंने उन्हें पहचान लिया । फोटो कई जगह देखा था और खुद अपनी पत्रिका में भी छापा था। पर त्रिपाठी जी मुझे नहीं पहचान सके । जब मैंने परिचय दिया तो वे बड़े अचम्भित हुए और प्रसन्न भी । उनकी कल्पना थी कि मैं कोई उम्रदराज साठ से ऊपर का व्यक्ति होऊँगा क्योंकि समकालीन अभिव्यक्ति का सह संपादक हूँ और काफी दिनों से उनके सम्पर्क में हूँ।
प्रो० त्रिपाठी की विद्वता से प्रभावित हुए बिना शायद ही कोई रह पाए। वे समाज शास्त्र के प्रोफेसर रहे किन्तु मुझे कई बार भ्रम सा हुआ कि ये संस्कृत के प्रोफेसर होंगे । आपने हिन्दी, अंगरेजी और संस्कृत तीनों ही भाषाओँ में उच्च कोटि का लेखन किया है। भारत में साधुओं के जीवन पर उन्होंने गहन शोध किया है और उनकी पुस्तक साधूज ऑफ़ इंडिया पूरे विश्व में काफी सराही गई है। इसके अलावा उन्होंने अत्यन्त स्तरीय और उपयोगी ग्रन्थों का सृजन किया है। चारो धाम यात्रा का बड ा ही सजीव वर्णन उन्होंने किया हैं। गीता के पूरे सात सौ श्लोक उन्हें कण्ठस्थ हैं। सरलता तो उनकी श्लाघनीय है। विद्वता और सरलता का ऐसा संयोग विरले ही मिलता है। मुझे क्षण भर बाद ही ऐसा लगने लगा जैसे मैं इनसे कई बार मिल चुका हूँ और जैसे अपने घर में हूँ। स्वागत और स्नेह की तो बात ही मत पूछिए ! अपनी कई पुस्तकें उन्होंने मुझे उपहार स्वरूप दीं और विभिन्न विषयों पर काफी ज्ञानवर्धक बहस भी की। मुझे लगा कि जितना सम्मान इस मनीषी को मिलना चाहिए , उससे बहुत कम मिला । वस्तुतः साहित्य लेखन में आजकल इतनी भीड हो गई है और उत्पाद इतना बढ गया है कि उसमें स्तरीय साहित्य और साहित्यकार डूब सा गया है।
बड़े गुणग्राही और विनम्र। गोस्वामी तुलसी दास की भाषा में कहें तो उनका हृदय उस सागर के समान है जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर अपनी गरिमा छोड कर उसकी तरफ मिलने चल देता है।
घंटे भर बाद किसी तरह विदा लेकर कैण्ट की तरफ भागा और जाम से जूझते हुए किसी तरह पहुंच भी गया। वहाँ पत्नी और बच्चे संकटमोचन और मानस मंदिर के लिए तैयार बैठे थे। इसमें ऐसा कुछ नहीं जिसका वर्णन करना आवश्यक हो सिवा इसके कि यह वही संकटमोचन मंदिर है जहां भयंकर विस्फोट हुआ था और अब वहां सुरक्षा के नाम पर खानापूर्ति के सिवा कुछ नहीं बचा है।
अगली सुबह जल्दी ही तैयार होकर बस अड्डे पहुँच गए और थोड ी जद्दोजहद के बाद बस मिल भी गई और फिर चल भी पड़ी । शहर से बाहर निकलते और टिकट की औपचारिकता पूरी होते ही ड्राइवर महोदय ने भोजपुरी गानों की कैसेट ठोंक दी । आप बड े ही शौक़ीन मिजाज शख्स थे क्योंकि यह बस पूर्णतया सरकारी यानी यूपी रोडवेज की थी और ऐसी बसों में गाने की व्यवस्था आश्चर्य ही होती है।
भोजपुरी गानों का अपना अलग ही रस होता है । धीरे- धीरे माहौल बनने लगा और फिर साहब ने भरत शर्मा व्यास का कैसेट लगा दिया । भोजपुरी में गायकों की एक लम्बी परम्परा रही है। आकाश वाणी के जमाने में मोहम्मद खलील का - कवने खोंतवा में लुकइलू अहि रे बालम चिरई ( गीत शायद भोलानाथ गहमरी का है),चांद वारसी का - नरई ताल कै चीकन मटिया जहां बसै ...... और बुल्लू यादव का - नैनों में पृथ्वीराज बस गए ॥ आदि गीत दिलो दिमाग पर छाए रहते। पॉप संगीत की ऐसी गंदी सेना भोजपुरी गीतों पर आक्रमण कर चुकी है कि अब भोजपुरी सुनने लायक ही नहीं बच पा रही। पूरी की पूरी सेना निरहुआ ब्रांड बनती जा रही है और एक वर्ग विशेष इसके पीछे दीवाना बनता जा रहा है।
इस पूरे संक्रमण में अभी दो कलाकार बचे हुए हैं जो भोजपुरी का सोंधापन और मर्यादा लिए हुए चल रहे हैं । इनमें एक तो हैं भोजपुरी की स्वरकोकिला शारदा सिन्हा और दूसरे हैं भरत शर्मा व्यास। तुलनात्मक रूप से इनका उत्पादन कम है , जैसा कि हर अच्छी चीज में होता है । भरत शर्मा के गीत में भोजपुरी का ठसका , लय ताल और पूरी सम्प्रेश्नियता है। ऐसी खाँटी भोजपुरी गाते हैं जो तीन चार दशक पहले की शुद्ध गंवईं होती थी। अब एक गीत आता है जिसे समझने में तो शुरुआत में मुझे भी दिक्कत होती है। गीत का मुखड़ा है- जे हमरे लागत अटैं जरी , ओकरे किरुआ परी। मेरे दोनों बच्चे इतनी खाँटी भोजपुरी नहीं समझते। एक तो वैसे भी बनारस और आजमगढ की भोजपुरी इस भोजपुरी से भिन्न है और उस पर इतनी शुद्ध ! किरुआ परी का अर्थ पत्नी जैसे तैसे बच्चों को समझाती है और सभी खूब हंसते हैं । थोड ी हँसी तो मुझे भी आती है पर मैं स्वर और बोल के दर्द में डूब जाता हूँ। जिनके समझ में भोजपुरी नहीं आती उनके लिए बोल के अर्थ बताता चलूँ। शायद कोई विरहिणी है जो दर्द से टूट चुकी है और अपना बुरा करने वालों को हृदय से श्राप देती है कि जो मेरी जड खोद रहा है उसे कीड े पडें गे। मुझे लगा कि यह दर्द की इन्तहा है और क्षरण के इस युग में इतना शुद्ध दर्द भी नहीं मिलता । कहाँ गए वे विरह के दिन और वे विरहिणियां या विरही जिनके दम पर पद्मावत या फिर मेघदूत जैसी रचनाएं हमें मिलीं। एक युग था जब पूरे भोजपुरी भाषा क्षेत्र के नायक बंगाल और आसाम में नौकरी के लिए जाया करते और नायिकाएं पूरी की पूरी रात विरह में तड पते हुए निका ल दिया करती । कहां बंगाल और कमरू कमच्छा ( कामरूप और कामाखया , असम ) का काला जादू उनके पतियों को भरमा लिया करता था। पूरा जीवन विरह शैया पर ही कट जाता था और भोजपुरी कवियों को विप्रलंभ श्रृंगार से सजाने का मौका मिला करता था। सच तो यह था कि इस क्षे त्र की नायिकाओं का जीवन प्यार की अनुभूति में ही व्यतीत हो जाता था और शायद यही प्यार आजीवन ईंधन का काम करता था । मुझे वे पंक्तियां बहुत ही सटीक लगती हैं-
विरह प्रेम की जागृति गति है और सुसुप्ति मिलन है,
मिलन प्रेम की अन्तिम गति है और विरह जीवन है।
आईये जानें ..... मन ही मंदिर है !
ReplyDeleteआचार्य जी
बढ़िया रहा यह संस्मरण!
ReplyDeleteबढ़िया संस्मरण... इधर इस रि-मिक्स और पाप परंपरा ने हरियाणवी को भी कहीं का नहीं छोड़ा... भौडापन को श्रंगार का दरज़ा मिल चुका है..
ReplyDeleteहम तो उसी भोजपुरी क्षेत्र के हैं इसलिए इस खाँटी रूप को भी समझ लेते हैं। हमें नाज है अपनी भोजपुरी पर। आपने मनोज तिवारी ‘मृदुल’ का नाम नहीं लिया जिन्होंने भोजपुरी को आधुनिक परिवेश में ढालने की कोशिश की है। स्टार बन गये भोजपुरी से...। लेकिन व्यावसायिकता ने उनका रास्ता शारदा सिन्हा के घर से शुरू करके गुड्डू रंगीला की ओर मोड़ दिया है। भगवान करे कि वे वहाँ तक न पहुँचे।
ReplyDeleteरोचक संस्मरण !!! बड़ा अच्छा लगा पढ़कर...
ReplyDeleteसच कहा आपने...ये दो जने ही बचे हैं अब भोजपुरी संगीत में जिनके गाने दिल को छूते हैं,नहीं तो अब तो स्थिति ऐसी हो गयी है कि भोजपुरी गीत भौंडेपन के पर्याय बन गए हैं,कहीं आस पास बज रहें हों हो कान में उंगली डाल लेनी पड़ती है और मारे शर्म के पानी पानी हो जाते हैं.....बहुत जबरदस्त क्षरण हुआ है इसका...
पढ़ कर अच्छा लगा ।
ReplyDeleteलिखते रहें ।
अच्छा संस्मरण. भोजपुरी गानों ने तो हिन्दी फिल्मों में भी धूम मचाई है. आजकल भोजपुरी ही नहीं अन्य क्षेत्रीय भाषा और बोलियों के गानों में भी फूहड़ता का बोल बाला है .
ReplyDeleteक्या 'नरई ताल के चीकन मटिया' कोई उपलब्ध करा सकता है। अत्यंत आभारी रहूँगा।
ReplyDeleteधन्यवाद
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