बेरुखी को छोडि़ए
रतन
प्यार है गर दिल में तो फिर
बेरुखी को छोडि़ए
आदमी हैं हम सभी इस
दुश्मनी को छोडि़ए
गैर का रोशन मकां हो
आज ऐसा काम कर
जो जला दे आशियां
उस रोशनी को छोडि़ए
हैं मुसाफिर हम सभी
कुछ पल के मिलजुल कर रहें
दर्द हो जिससे किसी को
उस खुशी को छोडि़ए
प्यार बांटो जिंदगी भर
गम को रखो दूर-दूर
फिक्र आ जाए कभी तो
जिंदगी को छोडि़ए
गुल मोहब्बत के जहां पर
खिलते हों अकसर रतन
ना खिलें गुल जो वहां तो
उस जमीं को छोडि़ए
जानते हैं हम कि दुनिया
चार दिन की है यहां
नफरतों और दहशतों की
उस लड़ी को छोडि़ए
Bahut khoob kaha hai...
ReplyDeleteखुबसूरत गज़ल हर शेर बहुत खूब , मुवारक हो
ReplyDeleteहैं मुसाफिर हम सभी
ReplyDeleteकुछ पल के मिलजुल कर रहें
दर्द हो जिससे किसी को
उस खुशी को छोडि़ए ।
क्या बात है रतन जी, बहोत खूब ।
कविता तो सुंदर है ही आपकी. ब्लाग का हैडर भी ताज़गी भरा लगा :)
ReplyDeleteसार्थक संदेश
ReplyDeleteसही कहा भाई रतन आपने। कहीं पढा था “नफ़रत की तो गिन लेते हैं, रुपया आना पाई लोग। ढ़ाई आखर कहने वाले, मिले न हमको ढ़ाई लोग।” ऐसे में आपका यह निवेदन लोगों पर असर करे यही दुआ है,
ReplyDeletevaah bhyi vaah bhut khub achchi baat achche alfaaz or achche andaaz ab men kya khun bhaayi mubaark ho. akhtr khan akela kota rajsthan
ReplyDeleteबहने दो, की रोकोगे तो बस होगी बेचैनी,
ReplyDeleteएक साँस लीजिये 'मजाल', दूसरी को छोड़िए
हैं मुसाफिर हम सभी
ReplyDeleteकुछ पल के मिलजुल कर रहें
दर्द हो जिससे किसी को
उस खुशी को छोडि़ए
बहुत खूबसूरत बात कही है ..
हर शेर लाजवाब. सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteप्रभावशाली ढंग से कही गयी बहुत ही कल्याणकारी बात...
ReplyDeleteसार्थक सन्देश दिया आपने इस सुन्दर रचना के माध्यम से.....