दुनियादारी का चलचित्र
“तभी विचित्र हुआ. प्राय: सभी युवक एक साथ खड़े हो गए. बात की बात में सबों ने अपनी कमर के नीचे के कपड़े उतार दिए – धोती, पैंट, पाजामा, नीकर तक और एक स्वर में बोल पड़े “वोट? उत ना मिली तोहरा. इहे मिली.....” चौंकिए नहीं, यह किसी ख़बर की पंक्ति नहीं है. अभी यह एक उपन्यास से लिया गया उद्धरण है. ग्यारह साल पहले यानी सन 1999 में आए भगवती शरण मिश्र के उपन्यास ‘अथ मुख्यमंत्री कथा’ की पृष्ठ संख्या 305 से. बेशक़ अभी कहीं ऐसा हुआ नहीं है, लेकिन अगर भारतीय राजनीति की यही दशा रही, तो जिस दिशा में वह जा रही है, उसका गंतव्य यही है. क्षुद्र स्वार्थों के दलदल से जो शख़्स ज़रा सा भी ऊपर उठ सका है, जो थोड़ा सा भी नीति-अनीति को समझने-मानने वाला है और जिसमें लेशमात्र भी आत्मसम्मान-स्वाभिमान जैसा कुछ शेष है; हर वह भारतीय नागरिक देश के हर नेता के साथ यही व्यवहार करना चाहता है. वैसे भी पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान भारतीय लोकतंत्र में नए-पुराने और सिले-फटे हर प्रकार के जूतों ने जो अभूतपूर्व भूमिका निभाई है, उसका संकेत यही है. हमारी राजनीति अगर तरक़्क़ी की प्रक्रिया में बैलट से चलकर बुलट और फिर ईवीएम में गड़बड़ी तक आ पहुंच...