कुछ भी कभी कहीं हल नहीं हुआ
कितनी बार हुई हैं जाने ये बातें आने-जाने वाली. विनिमय के व्यवहारों में कुछ खोने-पाने वाली. फिर भी कुछ भी कभी कहीं हल नहीं हुआ. जल ज़मीन जंगल का बटना. हाथों में सूरज-मंगल का अटना. बांधी जाए प्यार से जिसमें सारी दुनिया ऐसी इक रस्सी का बटना. सभी दायरे तोड़-फोड़ कर जो सबको छाया दे- बिन लागत की कोशिश इक ऐसा छप्पर छाने वाली. फिर भी कुछ भी कभी कहीं हल नहीं हुआ. हर संसाधन पर कुछ घर हैं काबिज. बाक़ी आबादी केवल संकट से आजिज. धरती के हर टुकड़े का सच वे ही लूट रहे हैं जिन्हें बनाया हाफ़िज. है तो हक़ हर हाथ में लेकिन केवल ठप्पे भर लोकतंत्र की शर्तें सबके मन भरमाने वाली. इसीलिए, कुछ भी कभी कहीं हल नहीं हुआ.