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Showing posts from May, 2011

कुछ भी कभी कहीं हल नहीं हुआ

कितनी बार हुई हैं जाने ये बातें आने-जाने वाली. विनिमय के व्यवहारों में कुछ खोने-पाने वाली. फिर भी कुछ भी कभी कहीं हल नहीं हुआ. जल ज़मीन जंगल का बटना. हाथों में सूरज-मंगल का अटना. बांधी जाए प्यार से जिसमें सारी दुनिया ऐसी इक रस्सी का बटना. सभी दायरे तोड़-फोड़ कर जो सबको छाया दे- बिन लागत की कोशिश इक ऐसा छप्पर छाने वाली. फिर भी कुछ भी कभी कहीं हल नहीं हुआ. हर संसाधन पर कुछ घर हैं काबिज. बाक़ी आबादी केवल संकट से आजिज. धरती के हर टुकड़े का सच वे ही लूट रहे हैं जिन्हें बनाया हाफ़िज. है तो हक़ हर हाथ में लेकिन केवल ठप्पे भर लोकतंत्र की शर्तें सबके मन भरमाने वाली. इसीलिए, कुछ भी कभी कहीं हल नहीं हुआ.

ek geet

कारवाँ क्या करूँ (जीवन के तमाम चमकीले रंगों के बीच श्वेत - श्याम  रंग का अपना अलग महत्त्व होता है।  बाहर से रंगहीन दिखने वाली सूरज की किरणों में इन्द्र धनुष  के सातो रंग समाए होते हैं । श्वेत - श्याम  रंग में बना ये क्लॉसिकल चित्र आप भी देखें और सोचें- )  अंजुमन स्याह सा, हर चमन आह सा दर्द की राह सा मैं रहा क्या करूँ ? दौड़ते - दौड़ते, देखते - देखते मंजिलें लुट गईं ,कारवाँ क्या करूँ ?  जिन्दगी -जिन्दगी तू बता क्या करूँ ? अपनी अर्थी गुजरते रहा देखते और मैंने ही पहले चढ़ाया सुमन खुद चिता पर लिटाकर उदासे नयन रुक गए पाँव लेकर चला जब अगन पुष्प  क्या हो गए , हाय कैसा नमन - नागफनियों के नीचे दबा था कफन ! अलविदा कर लिया हर ख़ुशी  का सजन रो पड़ीं लकड़ियाँ आंसुओं में सघन और चिता बुझ गई, कैसे होगा दहन ? देखकर वेदना यह सिसकती चिता मरमराने लगी प्रस्फुटित ये वचन - तुम कहाँ योग्य मेरे प्रणय देवता लौट जाओ नहीं मैं करूँगी वरण,           हम खड़े के खड़े , मूर्तिवत हो जड़े       दर्द को भ...

वर्चस्‍वकारी तबका नहीं चाहता है कि हाशिये के लोग मुख्‍यधारा में शामिल हों

9 मई को वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में हुए इस आयोजन की रिपोर्ट अमित विश्वास ने ईमेल के ज़रिये भेजी है. बिलकुल वही रपट बिना किसी संपादन के आप तक पहुंचा रहा हूं. महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा में ''हाशिये का समाज'' विषय पर आयोजित परिसंवाद में बतौर मुख्‍य वक्‍ता के रूप में सुप्रसिद्ध आदिवासी साहित्‍यकार व राजस्‍थान के आई.जी.ऑफ पुलिस पद पर कार्यरत हरिराम मीणा ने कहा कि समाज का वर्चस्‍वकारी तबका नहीं चाहता है कि हाशिये के लोग मुख्‍यधारा में शामिल हों। फादर कामिल बुल्‍के अंतरराष्‍ट्रीय छात्रावास में आयोजित समारोह की अध्‍यक्षता विवि के राइटर-इन-रेजीडेंस सुप्रसिद्ध साहित्‍यकार से.रा. यात्री ने की। इस अवसर पर विवि के राइटर-इन-रेजीडेंस कवि आलोक धन्‍वा, स्‍त्री अध्‍ययन के विभागाध्‍यक्ष डॉ.शंभु गुप्‍त मंचस्‍थ थे। हरिराम मीणा ने विमर्श को आगे बढाते हुए कहा कि स्‍त्री, दलित, आदिवासी, अति पिछड़ा वर्ग, ये 85प्र‍तिशत समाज हाशिये पर हैं, इसी पर प्रजातांत्रिक प्रणाली टिकी हुई है। दिन-रात मेहनत करने पर भी इन...

एक साहब बयानबहादुर और एक सपोर्टबहादुर

हाल ही में ओसामा जी की नृशंस हत्या के बाद अमेरिका ने दुनिया के सबसे शांतिप्रिय देश पाकिस्तान को धमकी दी कि ज़रूरत पड़ी तो वह पर फिर से ऐसी ही कार्रवाई कर सकता है. इसके बाद तो क्या कहने! कितना भी शांतिप्रिय हो, लेकिन कोई धमकी देगा तो कोई भी क्या करेगा. बहादुरी के मामले में पाकिस्तान का तो वैसे भी कोई जवाब नहीं रहा है. इतिहास गवाह है कि आमने-सामने की लड़ाई में वह कभी किसी से जीता नहीं है और छिपकर हमला करने का कोई मौक़ा उसने छोड़ा नहीं है. आप जानते ही हैं कि सामने आ जाए तो चूहे से आंख मिलाना वे अपनी तहजीब के ख़िलाफ़ समझते हैं और दूर निकल गए शेर पर तो पीछे से ऐसे गुर्राते हैं कि जर्मन शेफर्ड भी शर्मा जाए. तो अब जब अमेरिका उनके मिलिटरी बेस के दायरे में ही ओसामा जी की ज़िंदगी और विश्व समुदाय में उनकी इज़्ज़त की ऐसी-तैसी करके निकल गया तो वो गुर्राए हैं. यह संयोग ही है कि ओबेडिएंसी में टॉप भारत की आर्मी के प्रमुख ने भी ऐन मौक़े पर एक सही, लेकिन मार्मिक बयान दे दिया. वह भी बिना अपने हाइनेस से पूछे और इस बात का भी ज़िक्र किए बग़ैर कि ‘अगर उनकी इजाज़त हो तो’. यह जानते हुए भी कि उनकी इजाज़त के बग़ैर वे कुछ नहीं क...

अमेरिका कहीं का!

सलाहू आज बेहद नाराज़ है. बेहद यानी बेहद. उसे इस बात पर सख़्त ऐतराज है कि श्रीमान बयानबहादुर साहब ने ओसामा को इज़्ज़त से दफ़नाने की बात क्यों की? बात यहीं तक सीमित नहीं है. उसकी नज़र में हद तो यह है कि उन्होंने ओसामा के नाम के साथ जी भी लगा दिया. ऐसा उन्होंने क्यों किया? यही नहीं सलाहू ने तो श्रीमान बयानबहादुर साहब के ऐतराज पर भी ऐतराज जताया है. अरे वही कि ओसामा को अमेरिका ने समुद्र में क्यों दफ़ना दिया. मैं उसे सुबह से ही समझा-समझा कर परेशान-हलकान हूं कि भाई देखो, हमारा शांति और अहिंसा के पुजारी हैं. और यह पूजा हम कोई अमेरिका की तरह झूठमूठ की नहीं करते, ख़ुद को चढ़ावा चढ़वा लेने वाली. कि बस शांति का नोबेल पुरस्कार ले लिया. गोया शांति और नोबेल दोनों पर एहसान कर दिया. हम शांति की पूजा बाक़ायदा करते हैं, पूरे रस्मो-रिवाज और कर्मकांड के साथ. अगर किसी को यक़ीन न हो तो और अख़बारों पर भी भरोसा न हो तो सरकार बहादुर के आंकड़े उठाकर देख ले. शांति देवी के नाम पर हर साल हम कम से कम हज़ारों प्राणों का दान करते हैं. वह भी कोई भेंड़-बकरियों की बलि चढ़ाकर नहीं, विधिवत मनुष्यों के प्राणदान करते हैं. हमारे यहां सामान्...

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