Doosari Punyatithi
दूसरी पुण्यतिथि
-हरिशंकर राढ़ी
.....और धीर-धीरे मां की दूसरी पुण्यतिथि भी आ गई। सालभर पहले लगभग इसी जगह पर इसी मानसिकता में मां को और उनकी पुण्यतिथि को समझने की कोशिश कर रहा था, उनका आकलन कर रहा था। यह भी हिसाब लगा रहा था कि कितने घाटे में रहा था मैं। पहली पुण्यतिथि थी पिछले वर्ष और उस अवसर पर अपनी शाब्दिक वेदना और असमर्थता को ब्लॉग पर प्रकट कर देने के अलावा मैंने कुछ भी नहीं किया था - न कोई समारोह, न कोई औपचारिक शोकप्राकट्य और न कोई धार्मिक क्रियाकर्म। अंदर से ऐसी कोई आवाज नहीं आती। वे प्रदर्शन और पाखंड की घोर विरोधी थीं और किसी की मृत्यु पर होने वाले पाखंड को देखकर एक कहावत कहा करती थीं- जीते तपता न तपावे, मरे कीर्तन करावे! पता नहीं यह इस कहावत का असर था या मन का सूनापन कि उनकी स्मृति को ब्लॉग पर उतार देने के अलावा कुछ करने का मन ही नहीं हुआ था। एक-दो दिन बाद पता लगा था कि ब्लॉग की उस पोस्ट को फरीदाबाद से प्रकाशित और हरियाणा में अधिक प्रसारित दैनिक 'आज समाज' ने संपादकीय पृष्ठ पर छाप दिया था। किसी मित्र को वह अंक मिला था और उसने ही सौहार्द में मुझे सूचित किया था।
तब घाव थोड़ा और गहरा था। ऐसा नहीं है कि अब भर गया है या दर्द नहीं होता। हां, इतना जरूर है कि घाव त्वचा से खिसककर अधिक गहराई में चला गया है। ईमानदारी की बात करूं तो मैं इस घाव को जिंदा रखना चाहता हूं और जब कभी ऐसा लगता है कि दर्द कुछ कम हो रहा है तो एक दूसरे तरह का दर्द उठने लग जाता है। दूसरा वाला दर्द पहले वाले से ज्यादा खतरनाक होता है अतः मैं पहले वाले को ही जैसे-तैसे जिंदा रखना चाहता हूं। सच्चाई तो यह है कि दर्द ही अपनी पूंजी है, अपना बैंक बैंलेंस है। मेरे रग-रग में, कर्म में , स्वाभाव में और आत्मविश्वास के साथ वह एक दर्द में बसी है - जो दर्द एक महान मां के होने और फिर उसके न होने से पैदा हुआ है.
दर्द जब साथ छोडने लगता है तो एक बेचैनी सी होती है। पहले उनका साथ था, फिर उनके छोडने पर उनके दर्द का साथ और अब क्या वह दर्द भी साथ छोड जाने का डर! उस दर्द से लगता है कि मैं जिंदा हूं और संज्ञायुक्त भी, जैसे मेरी नाडी चल रही है और मैं वास्तव में एक इंसान हूं। वह दर्द मुझे याद दिलाता है कि आज भले ही मेरा कोई न हो, किंतु कभी मेरा भी कोई था। यही एहसास सालभर पहले कचोट जाता था कि मेरा कोई था, जो चला गया। ऐसा कुछ खास घटित भी नहीं हुआ इस साल में किंतु अब एक विश्वास सा जागता है कि यह क्या कम है कि कोई मेरा भी था! अपने विषय में तो मैं आजतक यह निर्णय नहीं कर पाया कि मैं उसका था या नहीं। हां, एक आत्मविश्वास जरूर है कि मैं उसका होना जरूर चाहता था और इसी आत्मविश्वास के सहारे मैं अपराधबोध से बच जाता हूं।
मैं काल के पहिए को उल्टा घुमाना चाहता हूं। मुझे लगता है कि वही व्यक्ति काल के पहिए को वापस घुमाना चाहता है जिसकी हानि लाभ की तुलना में ज्यादा होती है लेकिन लाभ वाले यहां भी बाजी मार लेते हैं और पहिए को घूमने नहीं देते। मुझे तो लाभ-हानि का कोई हिसाब नहीं करना है, बस उस चित्र को एक बार और देखना है। यह भी शायद गलत होगा कि मुझे एक बार ही देखना है। दरअसल, मैं उस चित्र को बार-बार देखना चाहता हूं और शायद मुझे ऐसा लगने लग गया है कि समय कोई बाइस्कोप है और मैं किसी बच्चे की भांति अपने दोनों हाथों को आंखों के अगल-बगल लगाकर उसकी एक खिड़की पर चिपक गया हूं। जितने चक्र बाइस्कोप चलेगा, मुझे मां का चित्र उतने चक्र देखने को मिल जाएगा।
बाइस्कोप चल रहा है। मां की क्रियाशीलता के अलग-अलग चित्र आते हैं, मैं हर चित्र को ठीक से पहचानता हूं किंतु विचित्रता यह है कि सबमें मुझे उनका एक ही चेहरा दिखता है- बस वही अस्सी पार वाला, या उस दिन का जब मैंने उन्हें बरामदे में उनकी अपनी चारपाई पर हृदयरोग से ग्रसित पाया था और उसी दिन वे हमें छोड़ गई थीं। हमें मालूम था कि अब यह शरीर ज्यादा दिन चलने वाला नहीं, फिर भी निरर्थक सी आशा लिए थे। उस दिन भी उनमें जीने की इच्छा थी और अपने बच्चों और कर्तव्यों से बराबर का प्रेम।
इधर मां की यादें कम होने लगी थीं- यह कहना भी सच नहीं होगा। चित्र तो उतने ही थे किंतु समय की धूल ने उसकी चमक फीकी कर दी थी या फिर अपने अंदर की दृष्टि कमजोर होने लगी थी। शरीर और मन में बराबर साम्य कहां रह पाता है और ये एक दूसरे की सुनते ही कहां हैं? वैसे मां के जाने के बाद अब इस शरीर उनसे कुछ लेना-देना रह भी कहां गया है? जब इस शरीर को जन्म देने वाला शरीर ही साथ छोड गया और स्मृतिमात्र रह गया तो सारा संवाद स्मृतियों से ही तो होगा ! शरीर तो दर्शक की भूमिका में आ बैठा है।
पर शरीर की अपनी परेशानियां कम नहीं हैं। इसे भी मां की बहुत याद आती है और कभी-कभी तो यह बहुत परेशान होता है। इसका तो गर्भनाल संबंध रहा है, इसके दुख को उपेक्षित कैसे किया जा सकता है और मन के दुख को इससे बड़ा कैसे बताया जा सकता है? गर्मियों में एक-डेढ माह के लिए गांव जाना होता था। जिस दिन पहुंचता था, उन्हें लगता था कि मैं बहुत थका होऊंगा। आखिर एक लंबी यात्रा करके इतनी पहुंचा हूं (भले ही यह यात्रा सुखद रही हो)। आंवले का तेल उनका प्रिय था और उसकी शीशी लेकर सिर पर तेल लगाने आ जाती थीं। देहत्याग से एक साल पहले यहां - दिल्ली में भी आकर रहीं थीं और यहां भी चेहरे पर शिकन नहीं आने देना चाहती थीं। जब कभी मुझे थोडा सा बुखार भी हुआ, सिरहाने से हिलीं नहीं। वह स्पर्श , वह विशेषज्ञता और छोटा सा बच्चा बना लेने की कुशलता यह शरीर कैसे भूल सकता है? बुखार इस साल भी हुआ था, अपच और शायद ठंड के चलते उल्टियां भी हुईं थी आधी रात को। मां नहीं थी और अकेलेपन के दर्द के एहसास ने बहुत मारा इस तन-मन को!
बहुत सारे संबंधों को जीने की कोशिश की है मैंने और यदि मैं यह कहूं कि मैंने अपनी ओर से सभी संबंध निभाए हैं तो इसमें कोई आत्मप्रशंसा नहीं है। आखिर आज बात तो मैं मां से कर रहा हूं और उस मां से जो सामने नहीं है। यूँ भी झूठ बोलना मां ने सिखाया नहीं . मैं यह दावा नहीं कर रहा कि मुझसे कहीं कोई गलती नहीं हुई होगी, पर इतनी बड़ी गलती भी नहीं हुई होगी जिससे संबंधों की उम्र पर असर पड़े । फिर भी बहुत से संबंध समय के साथ बहते-बिलाते चले गए और शरीर के निकट रहने पर संबंधों की आत्मा कहीं निर्वासित मिली। स्वर्णमृग की तलाश में सीता-राम भूल गए कि उनकी जडें अयोध्या में हैं और उन्हें स्वर्णमृग से दरअसल कुछ लेना-देना भी नहीं है।
बहुत कुछ याद आता है। मां को तीर्थयात्रा और दान का बहुत शौक था। जब हर तरफ से निश्चिन्त हुईं तो उम्र अधिक हो चुकी थी और लंबी यात्रा कर पाना मुश्किल हो गया था। बहुत सारे तीर्थों की इच्छा पूरी न हो सकी उनकी। हरिद्वार उन्हें बहुत भाता था। दिल्ली की आखिरी यात्रा के समय उनकी बहुत इच्छा थी हरिद्वार जाने की। सर्दियां जोर की थीं और मेरा स्वार्थी मन उनके लिए कोई नई बीमारी मोल नहीं लेना चाहता था। सर्दियों में ही गांव वापसी हो गई, इस उम्मीद से कि अगली बार थोड़े गरम मौसम में हरिद्वार की यात्रा करवा दूंगा। लेकिन मां तो फिर आई ही नहीं.....। बाद में मैं हरिद्वार गया था - हो सकता है कि मां को तलाश लाने की अनजान सी कोशिश रही हो वह ।
न जाने मन कहां-कहां अंटक रहा है। ऐसा कैसे हो सकता है कि आदमी एक ही बात को मान भी रहा हो और उसे ही नकार भी रहा हो? उसे लगता हो कि वह सो भी रहा हो और जाग भी रहा हो। कभी- कभी यही निर्णय न कर पा रहा हो कि जागे या सो जाए? मां बड़ी असमंजस की स्थिति में छोड कर चली गईं। मां का प्रश्न आते ही ज्ञान के दावे विलुप्त हो जाते हैं, आत्मा की अमरता के उपदेश अप्रासंगिक हो जाते हैं और हर सत्ता बेमानी हो जाती है। मैं ठीक से जानता हूं कि मेरे इर्द-गिर्द बहुत से लोग हैं। मुझे हंसा रहे हैं, गुदगुदा रहे हैं और अपनी उपस्थिति का एहसास दिलवा रहे हैं। कइयों ने मानो लिखित में दे रखा है कि वे मेरे अपने हैं, पर जबसे मां गई, वे अपने लगते क्यों नहीं? क्या वे इतना बड़ा शून्य बनाकर गई कि उसमें सभी बिला गए या फिर उनके जाने के बाद मेरा विश्वास ही शून्य रह गया। किसी को बुरा भले लगे पर आज मैं यह नहीं मानूंगा कि मैं गलत हूं। मैंने मां के लिए क्या किया, यह बताने का औचित्य नहीं होता पर मां मुझपर गर्व करती थीं और मेरे लिए यही बहुत है। मैंने कुछ भी किया हो, पर बहुत अधिक खिला देने के बाद भी मेरा पेट भर जाने के विषय में उनके मन में संदेह, बुखार में उनका सिरहाने बैठना, उनके आंवले के तेल की शीशी बहुत भारी पडते जा रहे हैं।
मां सिखा गई कि कभी कमजोर नहीं होना चाहिए और मैं कमजोर नहीं हो रहा हूं। यह तो उनकी यादों के वातायन हैं जो उनकी पुण्यतिथि पर खुलते जा रहे हैं। अगर उनकी याद में आंखों से आंसू निकल गए तो इसे मैं अपनी कमजोरी नहीं मानता। आंसू का सैलाब तो हर आदमी की आंख में होना चाहिए। हम रोते तो हैं किंतु उस बात के लिए जिस पर रोना नहीं चाहिए। जहां दिल रो रहा हो वहां दो बूंद आंसू निकल गए तो कोई अपराध नहीं हो गया। रिश्ते -नाते बचाने हैं और आदमी बने रहना है तो रो लेना आवश्यक है। यह मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव हो सकता है किंतु मां तो हर जगह होती है, सबकी होती है। मैं किसी सहानुभूति की तलाश नहीं हूं, मैं तो बस इतना चाहता हूं कि मातृसत्ता को संभाल और संजोकर रख लिया जाए। मां जितनी ही बची रहेगी, हम भी उसी अनुपात में बचे रहेंगे..........
समय बीतता रहता है, यादे कभी दिल से जाती नहीं है।
ReplyDeleteमाँ की सीख और स्मृतियाँ आपको सुदृढ़ बनाये रखे..
ReplyDeleteउनकी कमी तो खलनी ही है जीवन भर , उनके दिए संस्कार हिम्मत देते रहेंगें ,
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