( जस्टिस काटजू को समर्पित , जो पत्रकारिता में व्याप्त अव्यवस्था पर लगातार चीख रहे हैं...) 8 . राष्ट्रीय स्तर पर संचालित ज्यादातर इलेक्ट्रानिक मीडिया कारपोरेट कल्चर में ढली हुई थी , सकेंद्रित पूंजी व्यवस्थित तरीके से इनके नसों में प्रवाहित हो रही थी। इस पूंजी के अनुकूल व्यवहार करने वाले मीडियार्मियों के हाथ में आभासी तौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया की लगाम थी , लेकिन हकीकत में ये लोग खुद अदृश्य इशारों पर थिरकते हुये उनके ज्ञात अज्ञात हितों को साधकर अपने व्यक्तित्व को उड़ान देते हुये उन सहूलियतों को हासिल करने की कोशिश कर रहे थे जिनसे जिंदगी आसान बनती है। राष्ट्रीय इलेक्ट्रानिक मीडिया में लगी पूंजी का माई - बाप सीधे तौर पर दिखाई नही देता था , क्योंकि सबकुछ कारपोरटे के सांचे में ढला हुआ था। अपनी हैसियत से आगे निकलकर कुछ पत्रकारों ने शेयर होल्डर के रूप में मालिकान का दर्जा तो हासिल कर लिया था , लेकिन कारपोरेट के स्थापित रास्तों से इतर जाने की कुव्वत उनमें भी नहीं थी। उत्पादों की तमाम कड़ियां एक - दूसरे से बुरी तरह से गुथकर छद्म रूप में राष्ट्रीय इलेक्ट्रानिक मीडिया में ऊपर के ओहदे पर बैठ...