बाइट, प्लीज (उपन्यास, भाग -3)

(जस्टिस काटजू को समर्पित, जो पत्रकारिता में व्याप्त अव्यवस्था पर लगातार चीख रहे हैं...)

6.

नीलेश को गेस्ट हाउस पहुंचने में करीब 40 मिनट लग गये। यहां रूट पर आटो चलती थी। एक साथ आठ दस सवारी आटो में बैठते थे। यहां तक कि अगली सीट पर भी चार-चार सवारी बैठते थे। गर्दनीबाग के पास नया ओवरब्रीज बनने के बाद तमाम आटो वहीं से होकर गुजरते थे, चितकोहड़ापुल से इक्का दुक्का ओटो ही जाता था। अलीनगर के पास आटो के इंतजार में ही पंद्रह मिनट निकल गये। बड़ी मुश्किल से एक आटो में उसे आगे की सीट मिली जिस पर पहले से ही तीन लोग सवार थे। ओटो में सवार होते वक्त उसे दिल्ली के आटो की कमी खल रही थी। वहां तो बस आटो में बैठो ओर मीटर चालू करवाओ और जहां जाना है सहजता से पहुंच जाओ। लेकिन यहां मामला दूसरा था। चितकोहड़ापुर पार करने के बाद एयरपोर्ट वाले रोड पर उसे काफी देर तक इंतजार करने के पश्चात पता चला कि इस रूट में ओटो नहीं चलता है। बड़ी मुश्किल से एक मोटरसाइकिल वाले से लिफ्ट लेकर वह गेस्ट हाउस पहुंचा। गेस्ट हाउस में एक बड़ी सी जीप लगी हुई थी जिसपर प्रेस लिखा हुआ था। जीप को देखते ही नीलेश समझ गया कि सभी लोग इसी गेस्ट हाउस में मौजूद हैं। पूछने पर गेस्ट हाउस के गार्ड ने उसे माहुल वीर के कमरे तक पहुंचा दिया।

कमरा में दाखिल होते ही उसकी नजर सुकेश विद्वान पर पड़ी, जो एक सोफे पर आराम से बैठा हुआ था। कमरे में दो लोग और मौजूद थे। एक की लंबाई कुछ कम थी और उसके बाल और दाढ़ियों में से सफेदी झलक रही थी, जबकि दूसरा कुछ मोटा-ताजा था और पूरी तरह से क्लीन सेव था। माहुल वीर कमरे में दिखाई नहीं दे रहा था। नीलेश पर नजर पड़ते ही सुकेश ने कहा, सही समय पर आये हो, तुम्हारा ही इंतजार हो रहा था। माहुल स्नान करके बस निकलने ही वाला है।

यहां की ट्रैफिक बहुत ही होरिबल है, अपने आप को सहज करने की कोशिश करते हुये नीलेश ने कहा और बगल के सोफे पर धंस गया। कुछ देर तक इधर-उधर की बातें होती रही। थोड़ी देर बाद बाथरूम का दरवाजा खुला और गंजी पहने और कमर में तौलिया लपटे माहुल वीर बाहर निकला। उसका पूरा शरीर भींगा हुआ था और उसकी बड़ी-बड़ी आंखें चमक रही थी।

कैसे हो नीलेश? दिल्ली में बहुत क्रांति कर ली। अब बिहार में काम किया जाये, तुम जैसे लोग बिहार में काम करेंगे तो बिहार जरूर बदल जाएगा, सीधे तौर पर नीलेश को संबोधित करते हुये उसने कहा। उसके आवाज में हमेशा एक खनक होती थी, जो इस वक्त भी बरकरार थी। हर स्थिति में वह सहज रहता था और अपने साथ रहने वाले लोगों का विश्वास जल्द ही हासिल कर लेता था। नीलेश उसे एक लंबे अरसे के बाद देख रहा था और यह समझने की कोशिश कर रहा था कि उसमें क्या बदलाव हुआ है। मंडी हाउस में माहुल वीर अक्सर सिगरेट के साथ नजर आता था। एक जलती हुई सिगरेट अमूमन हर वक्त उसकी अंगुलियों में फंसी होती थी। सिगरेट को वह सूटे के अंदाज में पीता था, जैसे कोई अल्हड़ किसान बीड़ी पीता है।

यही सोच कर मैं भी बिहार आया हूं, नीलेश ने जवाब दिया।

आराम से बैठो, मैं जरा पूजा पाठ कर लूं, इतना कहने के बाद माहुल बिछावन पर पालथी मारकर बैठ गया और अपनी आंखें बंद करके किसी मंत्र को धीरे-धीरे बुदबुदाने लगा। चाहे कुछ भी हो जाये सुबह में स्नान करने के बाद माहुल वीर पूजा करना कभी नहीं भूलता था। रात में जमकर शरबाखोरी करने के बावजूद सुबह उसकी शुरुआत पूजा से ही होती थी।

माहुल वीर मंत्र बुदबुदता रहा और सभी लोग खामोश होकर एक-दूसरे को देखते रहे। मंत्र की समाप्ति के बाद उसने अपनी आंखे खोली और नीलेश को उन दो अजनबी लोगों से परिचय करवाया जो सुकेश के अतिरिक्त उस वक्त कमरे में मौजूद थे। अधपके बालों वाले व्यक्ति की ओर इशारा करते हुये उसने कहा, ये हैं रंजन, काफी ऊंची चीज है। अब हमलोगों की टीम में हैं।

नीलेश ने शालिनता के साथ रंजन का अभिवादन किया, प्रत्युत्तर में रंजन ने भी मुस्कराकर अपना सिर हिला दिया। इसके बाद मोटे ताजे व्यक्ति की तरफ मुखातिब होते हुये माहुल ने कहा, ये हैं पियुस मिश्रा, हैदराबाद की एक टीवी में काम कर रहे थे। अब ये भी अपने साथ हैं। मैं कोशिश कर रहा हूं कि एक अच्छी टीम बन जाये। फिर नीलेश की तरफ इशारा करते हुये उन दोनों से बोला, यह नीलेश है, कुछ क्रांतिकारी प्रवृति का है। कभी दिल्ली में इसकी चमक देखते ही बनती थी। हमलोगों ने साथ-साथ काफी वक्त बिताया है। यह भी हमलोगों के साथ जुड़ रहा है। सुकेश तो परिचय का मुहताज है नहीं, इसे तो आप लोग जान ही रहे हैं।

अभी खबर न्यूज चैनल की स्थिति क्या है? ”, नीलेश ने सवाल किया।

एक दो दिन में मीटिंग होने वाली है। लोगों को बहाल करना है, उसके बाद ही कुछ काम शुरु हो पाएगा। अभी तो जिलों में संवाददाता रखे जाएंगे, फिर यहां डेस्क पर लोग चाहिये, रिपोर्टर चाहिये, क्यों रंजन क्या लगता है ये सब कब तक हो जाएगा ?”, रंजन की तरफ देखते हुये माहुल ने पूछा और फिर खुद ही बोल पड़ा, अभी तो नरेंद्र श्रीवास्तव जी दफ्तर में इतंजार कर रहे होंगे। एक सप्ताह के भीतर ये सब हो जाना चाहिये, यह कह कर माहुल उठ खड़ा हुआ और पहले से बिछावन पर रखे हुये अपने कपड़े पहनने लगा। कपड़ा पहनने के दौरान ही उसे सिगरेट की तलब महसूस हुई है और अपनी जेब से सिगरेट के डब्बे को हाथ में लेते हुये उसमें से एक सिगरेट निकालकर नीलेश की ओर बढ़ाया और दूसरे सिगरेट को अपने होठों के बीच दबाकर माचिस की तलाश करने लगा। इस बीच नीलेश की नजर टेबल पर पड़े माचिस पर पड़ी। माचिस में से तिली निकाल कर उसने पहले माहुल की सिगरेट सुलगाई और फिर अपनी। सिगरेट का एक लंबा कश लेने के बाद मुंह से धुआं निकालते हुये उसने माहुल से पूछा, मेरी पोजिशन क्या होगी? ”

रूमाल रख के जो पोस्ट मन करे लूट लेना, चिंता क्यों कर रहे हो, माहुल ने हंसते हुये कहा और झुककर बिना मोजे के ही अपने जूते पहनने लगा।

इसके बाद सब एक साथ कमरे के बाहर निकले। जीप की ड्राइविंग सीट पर बैठते हुये माहुल ने कहा, अब मैं दफ्तर जा रहा हूं। कोशिश करूंगा एक दो दिन में सबकुछ हो जाये।

माहुल से मुलाकात के बाद नीलेश को इस बात की तसल्ली हो गई थी कि इस खबर न्यूज में उसे काम मिल जाएगा। बाद में बातचीत के दौरान सुकेश ने भी यह यकीन दिलाया कि अभी तक सबकुछ योजना के मुताबिक ही चल रहा है, लेकिन इस बात की गारंटी नहीं है कि चैनल कब तक लांच होगा। वैसे कोशिश यही हो रही है कि इलेक्शन के पहले चैनल को लांच कर दिया जाये। इलेक्शन में अच्छी कमाई के आसार हैं और चैनल के मालिक रत्नेश्रर सिंह भी यही चाह रहे हैं कि चुनाव में उनका चैनल दिखने लगे। सुकेश से विदा लेते वक्त नीलेश के शाश्वस्त था।

7.

अखबारों से इतर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने पत्रकारिता की इच्छा रखने वाली नई पीढ़ी में एक ललक पैदा की है। दिल्ली से लेकर दूरदराज के कस्बाई इलाकों में हाथ में माइक और कंधे पर कैमरा लेकर पत्रकारों की एक नई फौज नये रंग ढंग मे पसरती जा रही है। जब कहीं कोई नये मीडिया हाउस की शुरुआत होती है तब यह पसरी हुई भीड़ तेलचट्टों की तरह उस मीडिया हाउस के नए दफ्तर पर हल्ला बोल देती है। खबर न्यूज चैनल की चर्चा सूबे के मीडियाकर्मियों के बीच पिछले कई दिनों से हो रह थी, आखिरकार वह दिन भी आ गया जब लोगों को यहां इंटरव्यू के लिए बुलाया गया।

सुबह से ही खबर न्यूज के पटना दफ्तर में लड़कों की भीड़ लगी हुई थी। दूर-दराज के जिलों से इस यकीन के साथ वे पटना आ रहे थे कि राजधानी के एक टीवी चैनल से नाता जोड़ने का मौका मिलेगा और यदि बात बन गई तो अपने जिले में वे एक नई रुतबा के साथ दाखिल होंगे। बांस घाट का वह दफ्तर पत्रकारिता के रंगरुटों से गुलजार था, वैसे हर वक्त फिजां में रहने वाली मुर्दों की महक अभी भी मौजूद थी। जब कोई नई लाश को मशीन पर फेंका जाता था तो उसकी दुर्गन्ध तेजी से अगल-बगल के वातावरण को अपने चपेटे में ले लेती थी। दफ्तर में एक साथ इतने सारे लोगों की उपस्थिति की वजह से आज दुर्गन्ध की तीव्रता कुछ कम महसूस हो रही थी।

दफ्तर में कुछ लोगों का बायोडाटा पहले से उपलब्ध था और कुछ अपने साथ लेकर आये थे। काम को लेकर आपस में मौखिक सहमति पहले से ही बनी हुई थी, हालांकि आधिकारिक तौर पर अभी उन पर मुहर लगना बाकी था।

मीडिया की दुनिया में जब तक नियुक्ति पत्र आपके हाथ में न आ जाये और आप काम पर न लगे तब तक आप पेंडूलम की तरह अनिश्चय की स्थिति में ही डोलते रहते हैं। अनिश्चितता और मीडिया मैन का संबंध चोली-दामन का है और यही अनिश्चितता बेहतर पत्रकारों को गढ़ने का भी काम कर रही है और उन्हें अंधेरे सुरंग में भी दूर तक धकेल दे रही है। राष्ट्रीय स्तर से लेकर कस्बाई पत्रकारों की स्थिति इस मामले में कमोबेश एक जैसी ही है।

खबर न्यूज के दफ्तर में ज्यादातर उन्हीं लोगों को बुलाया गया था जिनसे पहले से बात हो चुकी थी। लेकिन इसके साथ ही कुछ ऐसे लोग भी चले आये थे, जिन्हें खबर न्यूज में बहाली की सूचना उड़तेउड़ते हुये अपने सगे-साथियों से मिली थी।

सूबे के चैनलों में आमतौर पर क्षेत्र में काम करने वाले रिपोटरों द्वारा विज्ञापन के रूप में धन वसुल करने का रिवाज पुख्तातौर पर स्थापित हो चुका था। छोटे और मझोले मीडिया हाउसों में काम करने वाले लोग इस संस्कृति को पोषित करने में लगे हुये थे। खबरों से ज्यादा जरूरी था चैनल को जिंदा रखना और चैनल को जिंदा रखने के लिए अधिक से अधिक पैसों की जरूरत पड़ती थी। विज्ञापन के लिए अलग से व्यक्ति रखने के बजाय ऐसे लोगों की खपत ज्यादा थी जिनमें वाजिब और गैर वाजिब तरीके से धन वसुल कर लाने की कुव्वत हो।

कई महत्वपूर्ण ओहदों पर बैठे लोगों की पहली जिम्मेदारी यही थी कि एड वसूल करने वाले रिपोटरों को ही बहाली किया जाये। इस तरह की संस्कृति कमोबेश सभी स्थानीय चैलनों में जोर पकड़ चुका था, केबल चैनल तो बुरी तरह से इसकी लपेट में थे। रिपोटर लोग भी इसी संस्कृति में ढल से गये थे। एक तरह से इसी संस्कृति को उन्होंने यहां की पत्रकारिता का सच बना दिया था, इससे इतर सोचने की गुंजाईश नहीं थी, खासकर उन रिपोटरों के लिए जो सूबे के जिलों और प्रखंडों में पत्रकारिता की धमक बिखेर रहे थे या फिर धमक बिखरने का दम भर रहे थे। इलेक्ट्रानिक मीडिया की पत्रकारिता का पताका इन्हीं पत्रकारों के हाथों में थी। जिलों से किसी भी चैनल का प्रतिनिधि होने के लिए बस दो अहर्ताएं काफी थी- हाथ में अपना कैमरा और वसुली की हुनर।

राष्ट्रीय चैनलों को क्षेत्र विशेष में घटी घटनाओं की फीड इन्हीं धुरंधरों से मिलती थी, खबर के मुताबिक इन्हें ठीक-ठाक पैसा भी मिल जाता था और कभी-कभी कभार चैनलों में नाम भी चमक जाता था। इससे क्षेत्र में इनकी धमक कुछ और बढ़ जाती थी। गलियों, मुहल्लों और सोसाइटी के विभिन्न हलकों में इनकी मजबूत पैठ बनी हुई थी। सही मायने में ये खबरों के लिए जूझ भी रहे थे और चैनलों को सांसे भी दे रहे थे और खुद के लिए सांस बटोर भी रहे थे। खबरों की गुणवत्ता उससे प्राप्त होने वाले धन के आधार पर आंकी जाती थी, कम से कम छोटे और मझोले चैनलों का मापदंड तो यही था। अधिक धन लाने वाला चैनल का सबसे दुलारा रिपोटर होता था।

ये लोग मुख्यरुप से सुबे के मझोले चैनलों के लिए काम कर रहे थे, जो प्रखंड की खबरों को तेजी से चलाने से विश्वास करते थे और इसी के बुनियाद पर छोटी बड़ी राशि निकाल पाने में सफल होते थे जिससे इनका बाकी का इन्फ्रास्ट्रक्चर मेन्टेन होता था। चैनल से मिलने वाला पैसा इनके लिए बोनस था और यह बोनस उन्हें वसुली के आधार पर ही मिलता था।

खबर न्यूज के दफ्तर में छुपी बेरोजगारी के शिकार क्षेत्रीय स्तर पर अपने हुनर से अपने वजूद का अहसास कराने वाले हासिये पर खड़े होकर मुस्तैदी से जुझ रहे इलेक्ट्रानिक मीडिया के इन योद्धाओं की भीड़ लगी हुई थी। माहुल वीर और रंजन बार-बार अंदर बाहर कर रहे थे, जबकि नरेंद्र श्रीवास्तव अकेले में बैठकर किसी पुराने पन्ने पर कोई शायरी लिख रहे थे। शब्दों से खेलते रहने की उनकी आदत थी, और उनका शुमार भी एक शायर के रूप में ही था। अखबारों की संपादकगिरी करते हुये उन्होंने अपने अंदर के शायर को मरने नहीं दिया था। वह दिल से शायर थे और अक्सर शायरी में ही रमे रहते थे। गुनगुनाते रहने की उनकी आदत थी, अधिकतर पुरानी फिल्मों की सदाबहार गीतों को ही गुनगुनाते थे। भीड़भाड़ से कट कर अपने आप में मस्त रहते हुये अखबारी नौकरी करने की कला उन्होंने अपने तरीके से विकसित कर ली थी और कम से कम अखबारों को हांकने में तो दक्ष हो ही गये थे। वे बहुत बेबाकी से स्वीकार करते थे कि इलेक्ट्रानिक मीडिया का उन्हें एबीसी भी नहीं आता है, बहाली के लिए आये रंगरुटों को भर्ती करने की जिम्मेदारी उन्होंने पूरी तरह से माहुल वीर पर डाल दी थी और माहुल वीर इस जिम्मेदारी को बखुबी निभा रहा था, जिसके एवज में उसे जिलों से आये रंगरुटों का डायरेक्ट दंडवत मिल रहा था और एक अभ्यस्त मीडियामैन की तरह, जो लंबे समय तक समय तक पत्रकारों की फौज को हांक चुका होता है, वह इन दंडवतों पर ध्यान तक नहीं दे रहा था। जैसा कि ऐसे मौके पर होता है पूरी बहाली में दंडवत संस्कृति एक प्रमुख फैक्टर के रूप में काम कर रही थी, यह निष्ठा का मापदंड बना हुआ था। और संभवत: जिलों से चुन-चुन कर वैसे लोगों को ही बुलाया गया था जिन्हें माहुल वीर निजी तौर पर जानते थे।

मीडिया की दुनिया मेंखासकर क्षेत्रीय हिन्दी मीडिया की दुनिया में-व्यक्तिगत निष्ठा को अहम स्थान पर रखने की परंपरा विकसित हो चुकी है और इसको मापने का सबसे बेहतर तरीका है सामने वाले के ध्यान देने न देने के बावजूद व्यक्ति पैरों पर कितनी बार और कैसे झुकता है।

रंजन माहुल वीर का लेफ्टिनेंट बना हुआ था, बौद्धिक लेफ्टिनेंट। आने वाले लोगों को प्रोपर तरीके से बैठने और बैठाने की व्यवस्था करके खुद माहुल के साथ एक केबिन में जम गया। बायोडाटा लेकर बारी-बारी से अंदर भेजने की जिम्मेदारी सुकेश विद्वान ने संभाल ली। एक कंप्यूटर पर बैठकर सबका नाम दर्ज करते हुये नीलेश उसकी मदद कर रहा था।

पिछले कुछ दिनों से वह सुकेश को लगातार कंप्यूटर पर काम सीखने के लिए प्रेरित कर रहा था। हिन्दी टाइपिंग पर वह खासतौर पर जोर दे रहा था। पूर्व में एक अड़ियल संपादक ने उसके दिमाग में यह बात ठोक पीटकर बैठा दी थी कि हिन्दी टाइपिंग के बिना पत्रकार बना ही नहीं जा सकता है। चाहे फिल्ड में रिपोर्टिंग करो या फिर डेस्क पर बैठकर एडिटिंग, टाइपिंग की जरूरत हर हालत में पड़ेंगी ही। उसी अड़ियल संपादक की बातों का असर था कि नीलेश पत्रकारिता में सक्रिय हर उस व्यक्ति पर चढ़ बैठता था जिसे टाइपिंग नहीं थी और अपनी ओर से पूरी कोशिश करता था कि इस जरूरत को वह खुद महसूस करे। टाइपिंग को वह जर्नलिज्म का मौलिक जरूरत मानता था और जैसे-जैसे वह अपने कैरियर में उतार चढ़ाव के दौर से गुजरता रहा उसकी यह अवधारणा और भी बलवती होती गई।

टाइपिंग सीखने की बात वह जब भी सुकेश करता था तो सुकेश यह कह कर टाला जाता कि अभी इसकी जरूरत नहीं है, जब जरूरत होगी तो सीख लेंगे।

करीब तीन घंटे तक लोगों के अंदर-बाहर जाने का सिलसिला जारी रहा। अचानक बिलजी गुल हो जाने से मकान के अंदर के हिस्सों में भूतिया अंधेरा छा गया। बाहर सूरज की भरी रोशनी के बावजूद अंदर बैठे लोग अंधेरे की वजह से अपनी हाथों को भी नहीं देख पा रहे थे।

मकान के अंदर के हिस्सों में कबूतर खानों की तरह छोटे-छोटे दरबे बना दिये गये थे, जिसकी वजह से रोशनी बाहर ही ठिठक जा रही थी। एक गली तो ऐसा था कि उसमें से आमने- सामने से एक साथ दो लोग भी बिना टकराये नहीं निकल सकते थे। कुल मिलाकर दफ्तर का वह हिस्सा एक अंधेरी सुरंग की तरह था। बिजली न होने की वजह से उसके ओर और छोर का भी पता नहीं चल रहा था। थोड़ी देर तक बिजली का इंतजार करते हुये लोग बिलबिलाने लगे और फिर एक-एक करके बाहर निकलने लगे, ठीक वैसे ही जैसे बिल में पानी डालने के बाद चूहे बाहर निकलने लगते हैं। देखते ही देखते ही बाहर गार्डेन में लोगों की अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई। कुछ देर के बाद अंदर की कुर्सियां भी बाहर बिछने लगी।

रंजन के कहने पर इंटरव्यू का सिलसिला वहीं पर जारी हो गया।

पूरी तरह नम्रता बरतते हुये एक कुशल प्रबंधक व पत्रकार की तरह रंजन जिलों के प्रतिनिधियों से मोलभाव कर रहा था। सामने बैठने वाले प्रतिनिधियों को यह यकीन दिलाने में उसे गर्व महसूस हो रहा था कि उनसे सिर्फ और सिर्फ खबरें ली जाएंगी, दूसरे चैनलों की तरह उनसे विज्ञापन लाने को नहीं कहा जाएगा। उनका काम होगा सिर्फ खबरों के बारे में सोचना और अपने क्षेत्र की बेहतर खबर को हंट करना। इसके एवज में उन्हें महीने में एक मुश्त रकम दी जाएगी। यानि कि इस चैनल में उन्हें सिर्फ और सिर्फ एक रिपोटर की हैसियत से काम करना है। जिलेवार रिपोटरों को पेमेंट का दायरा प्रत्येक माह पांच हजार रुपये से लेकर सात हजार रुपये तक था। रंजन की जिम्मेदारी इसी दायरे में सबको निपटाना था।

लंबे समय तक क्षेत्रीय चैनलों में जूता घिसटने के बावजूद पत्रकारिता की चलंत बुराइयों से रंजन कोसो दूर था। शराब की बात तो दूर, चाय तक से उसे परहेज था। इस बात के लिए उसे अक्सर माहुल वीर से ताना भी सुनना पड़ता था, जो नियंत्रण में रहकर पीते हुये लोगों को मोबाइलज करने की कला में दक्ष था और अक्सर बेफिक्र अंदाज में कहता था, शराब नहीं पीने वाले लोग पत्रकारिता क्या खाक करेंगे। पत्रकार बनने का पहला वसुल है शराबखोरी।

कुछ लोग शराब को पीते हैं, कुछ लोगों को शराब पीती है, और कुछ लोग इसलिए शराब पीते हैं कि उनके संपर्क सूत्र की गांठ और मजबूत हो और नये संपर्क सूत्र बनते जाये, ताकि मकसद के रास्ते में आनेवाली कंटीली झाड़ियों का सफाया करने तरीका मिलता रहे। माहुल वीर दूसरी श्रेणी का शराबी था। रात में कुछ घूंट कंठ के नीचे उतारना उसके लिए जरूरी हो जाता था। यदि महफिल में बैठकर वह पी रहा होता तो उसका ध्यान हमेशा अपने मकसद को साधने पर ही लगा होता था। पत्रकारिता की डगर पर आगे बढ़ते हुये शराब का इस्तेमाल अपने हित में करने की कला वह बहुत पहले सीख चुका था।

इसके विपरित रंजन ने अपने हलक के नीचे कभी एक बूंद तक नहीं उतारी थी। अपनी इच्छा के विरुद्ध जब कभी उसे शराबी पत्रकारों के महफिल में घसीटा जाता, तो वह सिर्फ शाकाहारी चखने से ही अपना काम चला लेता था। इस मामले में रंजन ने नरेंद्र श्रीवास्तव को भी काफी निराश कर दिया था, जो सूरज ढलने के बाद अक्सर महफिल सजाने के बारे में ही सोचते थे और उनकी कोशिश होती थी कि हर महफिल कल रात की महफिल से बेहतर हो। शराब के साथ-साथ खाने पर भी वे खूब जोर देते थे, अनवरत चलने वाले पैग के साथ मछली और मीट उनका पसंदीदा आहार था। जैसा की अल्हड़ शराबियों के साथ होता है, कई अहम निर्णय वे पीने –पीलाने के इसी दौर में ले लेते थे। जब से उन्हें पता चला था कि रंजन शराब से दूर है, उसकी ओर से वह थोड़े लापरवाह हो गये थे। हालांकि अपनी ओर से उन्होंने कई बार रंजन से थोड़ी सी चखने को कहा था लेकिन रंजन बार-बार इंकार करता रहा और इसके साथ ही नरेंद्र श्रीवास्तव के साथ उसकी दूरी बढ़ती गई। शराब की वजह से माहुल वीर नरेंद्र श्रीवास्तव के काफी करीब आ गया था। उसकी कोशिश होती थी कि शराबखोरी के दौरान ही नरेंद्र श्रीवास्तव से महत्वपूर्ण फैसलों पर हामी भरवा ले और काफी हद तक वह कामयाब भी होता था।

शाम ढलते-ढलते रंजन ने सारा काम माहुल वीर के मन मुताबिक निपटा दिया। लगभग वहां आये सभी लोगों को नियुक्ति का यकीन दिलाते हुये वादा किया गया कि अगले एक सप्ताह के अंदर उन्हें नियुक्ति पत्र भेज दिया जाएगा। साथ में उनसे आग्रह किया गया कि आज रात का भोजन करके ही यहां से निकले। थोड़ी देर में मालिकान रत्नेश्वर सिंह आने वाले हैं। उनकी इच्छा आप सबों से मुलाकात करने की है। दूर दराज के जिलों के कुछ लोग जल्द से जल्द घर निकलना चाह रहे थे, लेकिन रत्नेश्वर सिंह के आने की बात सुनकर उन्होंने अपना इरादा बदल दिया। मालिकान के साथ रू--रू होना मीडिया की दुनिया में एक अहम बात होती है।

जारी.....

(अगला अंक अगले शनिवार को)

Comments

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का