लड़की पटेगी
इष्ट देव सांकृत्यायन
भारत
के बारे में जितने निष्कर्ष हम जानते हैं और जितने निष्कर्षों पर जी-जान से भरोसा
करते हैं, वे सारे किसी न किसी विदेशी मूल के आदमी के निकाले हुए हैं। मामला
चाहे संस्कृत के वैज्ञानिक भाषा होने का हो, या फिर योगा के फ़ायदे का।
योगा जब तक योग था तब तक हम उस पर क़तई यक़ीन नहीं करते थे। अव्वल तो असली भारतीय
आज भी उस पर यक़ीन नहीं करते। अंग्रेजी पद्धति के इलाज में सच्चे भारतीयों का पूरा
भरोसा है। वे क़ब्ज़ से मुक्ति पाने के लिए ईसीजी और बुख़ार के लिए अल्ट्रासाउंड
कराना और उससे ठीक होने की उम्मीद में लाखों रुपये ख़र्च करते जाना पसंद करते हैं, लेकिन
आसन-प्राणायाम की जहमत उठाना उन्हें अपनी तौहीन लगती है। ठीक भी है। जिस काम पर
कोई ख़र्चा ही न हो, उससे अपना स्टेटस तो गिरता ही है।
वैसे ख़र्चे से स्टेटस नापने की परंपरा हमारे यहां बहुत पुरानी है, लेकिन
यह खोज भी अल्ट्राव्हाइट रेवोल्यूशन यानी उदारीकरण के बाद आई विदेशी कंपनियों के
एमबीए डिग्री होल्डर मार्केट रिसर्चरों ने की। हमारे पास कोई चारा नहीं है सिवा
इसके कि हम उस पर य$कीन करें, क्योंकि वह किसी भारतीय यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग के
प्रोफेसर के निर्देशन में किया गया रिसर्च नहीं है। अगर वह किताब की शक्ल में आया
होता तो ज़रूर हम कह सकते थे कि चार किताबें पढ़कर पांचवीं लिख दी गई होगी। लेकिन, चूंकि
यह रिसर्च रिपोर्ट की शक्ल में आई है और वह भी निजी क्षेत्र और उसमें भी
मल्टीनेशनल कंपनी की रिपोर्ट के रूप में, लिहाज़ा इस पर सवाल उठाए
जाने का तो सवाल ही नहीं उठता।
इन रिपोर्टों में भारतीय संस्कृति के एक अत्यंत उदात्त मूल्य के
संबंध में अत्यंत महत्वपूर्ण निष्कर्ष दिया गया है, ऐसा मेरा अनुमान है
और इस अनुमान पर आप सवाल नहीं उठा सकते। सवाल आप इसलिए नहीं उठा सकते क्योंकि एक
तो यह मेरा निजी अनुमान है। जब आप निजी अस्पतालों से लेकर कोरियर कंपनियों, बैंकों
और बिल्डरों तक किसी की भी सेवाओं से लेकर कार्यशैली तक पर सवाल नहीं उठा सकते, बावजूद
इसके कि उसके लिए भुगतान करके भुगतते हैं, तो मेरे इस अनुमान पर सवाल
क्यों उठाएंगे? जब आप जनता के प्रतिनिधि
समझे जाने नेताओं के सार्वजनिक मंच से दिए गए निजी बयानों पर सवाल नहीं उठा सकते
तो मेरे निजी अनुमान पर सवाल उठाने का क्या तुक बनता है? इसलिए भी कि जिनके लिए
तैयार की गई रिपोर्टों में ये निष्कर्ष दिए गए त्वाकांक्षा बदली है। आज़ादी के पहले वे देश के लिए मर-मिटने को आतुर रहते थे और अब आए दिन कहीं न कहीं दिखने वाली कोई न कोई लड़की ही उनके लिए जीवन मूल्य है। इससे ‘यत्र नार्यस्तु...’ वाले फॉर्म्युले की ही पुष्टि होती है। क्योंकि देश को हम भारत माता कहते हैं और माता भी स्त्री ही होती है। इस तरह आज़ादी से पहले के युवक भी एक स्त्री के लिए जान देने को आतुर रहते थे और बाद के युवकों का भी जीवन संकल्प है, ‘लड़की के लिए कुछ भी करेगा।' इस तरह आज के युवकों के लिए महत्वाकांक्षा न तो शिक्षा रह गई है, न करियर, न तो समाज में प्रतिष्ठा रह गई है और न बैंक बैलेंस। उनकी अगर कोई केन्द्रीय महत्वाकांक्षा है तो वह है लड़की पटाना।
युवकों के इस मूलभूत जीवन संकल्प को समझते हुए ही हर उत्पाद को बेचने के लिए वे एक ही आश्वासन देते हैं और वह आश्वासन है कि अगर इसका इस्तेमाल करोगे तो लड़की पटेगी। अपने बंदर जैसे थोबड़े पर यह क्रीम पोतोगे तो लड़की पटेगी। इस वाली शेविंग क्रीम का इस्तेमाल करोगे तो लड़की पटेगी, इस वाली ब्लेड से दाढ़ी खुरचोगे तो लड़की पटेगी। यह वाला पाउडर भर मुंह लभेड़ लोगे तो लड़की पटेगी, यह वाली डियोडरेंट छिड़क लोगे तो लड़की पटेगी। ये वाली कोल्ड ड्रिंक पियोगे तो लड़की पटेगी और वो वाली बिस्कुट खाओगे तो लड़की पटेगी। ये वाला साबुन लगाओ तो लड़की पटेगी और वो वाला शैंपू लगाओ तो लड़की पटेगी......................... कुछ और करने की ज़रूरत नहीं है, बस यही सब करो और लड़की पट जाएगी। दुनिया भर की लड़कियां केवल यही तो देखती हैं कि तुम किस ब्रैंड का चिप्स खाते हो और किस ब्रैंड का कोल्ड ड्रिंक पीते हो, कौन सा साबुन लगाते हो और कौन सी क्रीम। ग़नीमत है कि अभी टॉयलेट पेपर का हिंदुस्तान में बहुत ज्य़ादा इस्तेमाल नहीं होता। जिस दिन होने लगेगा, वह भी मल्टीनेशनल कंपनियां बनाने लगेंगी और फिर लड़कियां इस बात पर भी ग़ौर करने लगेंगी कि तुम उसी ब्रैंड वाला इस्तेमाल करते हो या कोई लोकल टाइप का। लड़की यह बिलकुल नहीं देखेगी कि तुम्हारी खोपड़ी में दो-चार मिलीलीटर अक़्ल भी है या सिर्फ़ गोबर भरा है। वह यह भी नहीं देखेगी कि तुमको दस लोगों के बीच उठने-बैठने की तमीज़ है या कि तुम शर्ट की सारी बटन खोलकर कमर लचकाते और सीटी बजाते चलने को ही तमीज मानते हो... ना, इन बातों से लड़कियों का कोई मतलब नहीं है। ना, बिलकुल नहीं। वरना सोचिए, अगर ऐसा होता तो ऐसे बेतुके ड्रामे करने के लिए भी उन्हें लड़कियां कहां से मिलतीं?होंगे, वे इससे अरबों डॉलर का सालाना कारोबार कर रहे हैं। इससे ये साबित होता है कि रिसर्च पर ख़र्च किया गया पैसा बर्बाद नहीं हुआ। अब जब उन्हें आपत्ति नहीं है, जिन्होंने इस पर धन ख़र्च किया, तो भला आपको आपत्ति क्यों हो? इस पर आप सवाल इसलिए भी नहीं उठा सकते क्योंकि आप जिन विज्ञापनों से प्रभावित होकर दो पैसे की चीज़ें दो हज़ार रुपये में ख़रीद रहे हैं और उस पर बीस पैसे का डिस्काउंट पाकर तहेदिल से शुक्रगुज़ार भी हो रहे हैं, वे सारे विज्ञापन इसी रिपोर्ट पर आधारित हैं।
युवकों के इस मूलभूत जीवन संकल्प को समझते हुए ही हर उत्पाद को बेचने के लिए वे एक ही आश्वासन देते हैं और वह आश्वासन है कि अगर इसका इस्तेमाल करोगे तो लड़की पटेगी। अपने बंदर जैसे थोबड़े पर यह क्रीम पोतोगे तो लड़की पटेगी। इस वाली शेविंग क्रीम का इस्तेमाल करोगे तो लड़की पटेगी, इस वाली ब्लेड से दाढ़ी खुरचोगे तो लड़की पटेगी। यह वाला पाउडर भर मुंह लभेड़ लोगे तो लड़की पटेगी, यह वाली डियोडरेंट छिड़क लोगे तो लड़की पटेगी। ये वाली कोल्ड ड्रिंक पियोगे तो लड़की पटेगी और वो वाली बिस्कुट खाओगे तो लड़की पटेगी। ये वाला साबुन लगाओ तो लड़की पटेगी और वो वाला शैंपू लगाओ तो लड़की पटेगी......................... कुछ और करने की ज़रूरत नहीं है, बस यही सब करो और लड़की पट जाएगी। दुनिया भर की लड़कियां केवल यही तो देखती हैं कि तुम किस ब्रैंड का चिप्स खाते हो और किस ब्रैंड का कोल्ड ड्रिंक पीते हो, कौन सा साबुन लगाते हो और कौन सी क्रीम। ग़नीमत है कि अभी टॉयलेट पेपर का हिंदुस्तान में बहुत ज्य़ादा इस्तेमाल नहीं होता। जिस दिन होने लगेगा, वह भी मल्टीनेशनल कंपनियां बनाने लगेंगी और फिर लड़कियां इस बात पर भी ग़ौर करने लगेंगी कि तुम उसी ब्रैंड वाला इस्तेमाल करते हो या कोई लोकल टाइप का। लड़की यह बिलकुल नहीं देखेगी कि तुम्हारी खोपड़ी में दो-चार मिलीलीटर अक़्ल भी है या सिर्फ़ गोबर भरा है। वह यह भी नहीं देखेगी कि तुमको दस लोगों के बीच उठने-बैठने की तमीज़ है या कि तुम शर्ट की सारी बटन खोलकर कमर लचकाते और सीटी बजाते चलने को ही तमीज मानते हो... ना, इन बातों से लड़कियों का कोई मतलब नहीं है। ना, बिलकुल नहीं। वरना सोचिए, अगर ऐसा होता तो ऐसे बेतुके ड्रामे करने के लिए भी उन्हें लड़कियां कहां से मिलतीं?होंगे, वे इससे अरबों डॉलर का सालाना कारोबार कर रहे हैं। इससे ये साबित होता है कि रिसर्च पर ख़र्च किया गया पैसा बर्बाद नहीं हुआ। अब जब उन्हें आपत्ति नहीं है, जिन्होंने इस पर धन ख़र्च किया, तो भला आपको आपत्ति क्यों हो? इस पर आप सवाल इसलिए भी नहीं उठा सकते क्योंकि आप जिन विज्ञापनों से प्रभावित होकर दो पैसे की चीज़ें दो हज़ार रुपये में ख़रीद रहे हैं और उस पर बीस पैसे का डिस्काउंट पाकर तहेदिल से शुक्रगुज़ार भी हो रहे हैं, वे सारे विज्ञापन इसी रिपोर्ट पर आधारित हैं।
मुझे कहने की ज़रूरत नहीं, आप इस बात पर ग़ौर कर ही
चुके हैं कि विज्ञापन चाहे दाढ़ी बनाने वाले रेज़र का हो या पुरुषों के अंडरवियर
का, उसमें एक स्त्री ज़रूर शामिल होती है। पुरुषों की दुनिया में
विज्ञापनी स्त्री के इस प्रवेश का कृपया अन्यथा न लें। हमारे देश में पहले से ही
स्त्रियों की दुनिया में पुरुषों का प्रवेश वर्जित माना जाता है, पुरुषों की
दुनिया में स्त्रियों प्रवेश नहीं। शादीशुदा पुरुष जानते हैं कि उनके ऊपर सारे
फ़ैसले पत्नी के ही लागी होते हैं, यह अलग बात है कि उन फ़ैसलों को वे सार्वजनिक तौर
पर अपना बताते हैं। इधर मार्केट रिसर्चरों
को भी यह मालूम हो गया है कि हम 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता' में
विश्वास करते हैं। भले हम बलात्कार की शिकार बच्ची को वेश्या कहें और फर्जी स्कूल
सर्टिफिकेट के आधार पर बलात्कार के साथ-साथ बीभत्स हत्या के जि़म्मेदार मुश्टंडे को
नाबालिग यानी बेचारा-नासमझ-भोलाभाला मान लें, पर नारी हमारे लिए देवी है
तो देवी ही है, उससे एक रत्ती कम नहीं। आपको यह जानकर ख़ुशी होनी चाहिए कि इसी
सूत्रवाक्य के आधार पर रिसर्चरों और उनके आकाओं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत
के होनहार युवक बड़े ही महत्वाकांक्षी हैं। होनी चाहिए कि इसी सूत्रवाक्य के आधार पर रिसर्चरों और उनके आकाओं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत के होनहार युवक बड़े ही महत्वाकांक्षी हैं। हालांकि समय के साथ-साथ उनकी महत्वाकांक्षा बदली है। आज़ादी के पहले वे देश के लिए मर-मिटने को आतुर रहते थे और अब आए दिन कहीं न कहीं दिखने वाली कोई न कोई लड़की ही उनके लिए जीवन मूल्य है। इससे ‘यत्र नार्यस्तु...’ वाले फॉर्म्युले की ही पुष्टि होती है। क्योंकि देश को हम भारत माता कहते हैं और माता भी स्त्री ही होती है। इस तरह आज़ादी से पहले के युवक भी एक स्त्री के लिए जान देने को आतुर रहते थे और बाद के युवकों का भी जीवन संकल्प है, ‘लड़की के लिए कुछ भी करेगा।' इस तरह आज के युवकों के लिए महत्वाकांक्षा न तो शिक्षा रह गई है, न करियर, न तो समाज में प्रतिष्ठा रह गई है और न बैंक बैलेंस। उनकी अगर कोई केन्द्रीय महत्वाकांक्षा है तो वह है लड़की पटाना।
युवकों के इस मूलभूत जीवन संकल्प को समझते हुए ही हर उत्पाद को बेचने के लिए वे एक ही आश्वासन देते हैं और वह आश्वासन है कि अगर इसका इस्तेमाल करोगे तो लड़की पटेगी। अपने बंदर जैसे थोबड़े पर यह क्रीम पोतोगे तो लड़की पटेगी। इस वाली शेविंग क्रीम का इस्तेमाल करोगे तो लड़की पटेगी, इस वाली ब्लेड से दाढ़ी खुरचोगे तो लड़की पटेगी। यह वाला पाउडर भर मुंह लभेड़ लोगे तो लड़की पटेगी, यह वाली डियोडरेंट छिड़क लोगे तो लड़की पटेगी। ये वाली कोल्ड ड्रिंक पियोगे तो लड़की पटेगी और वो वाली बिस्कुट खाओगे तो लड़की पटेगी। ये वाला साबुन लगाओ तो लड़की पटेगी और वो वाला शैंपू लगाओ तो लड़की पटेगी......................... कुछ और करने की ज़रूरत नहीं है, बस यही सब करो और लड़की पट जाएगी। दुनिया भर की लड़कियां केवल यही तो देखती हैं कि तुम किस ब्रैंड का चिप्स खाते हो और किस ब्रैंड का कोल्ड ड्रिंक पीते हो, कौन सा साबुन लगाते हो और कौन सी क्रीम। ग़नीमत है कि अभी टॉयलेट पेपर का हिंदुस्तान में बहुत ज्य़ादा इस्तेमाल नहीं होता। जिस दिन होने लगेगा, वह भी मल्टीनेशनल कंपनियां बनाने लगेंगी और फिर लड़कियां इस बात पर भी ग़ौर करने लगेंगी कि तुम उसी ब्रैंड वाला इस्तेमाल करते हो या कोई लोकल टाइप का। लड़की यह बिलकुल नहीं देखेगी कि तुम्हारी खोपड़ी में दो-चार मिलीलीटर अक़्ल भी है या सिर्फ़ गोबर भरा है। वह यह भी नहीं देखेगी कि तुमको दस लोगों के बीच उठने-बैठने की तमीज़ है या कि तुम शर्ट की सारी बटन खोलकर कमर लचकाते और सीटी बजाते चलने को ही तमीज मानते हो... ना, इन बातों से लड़कियों का कोई मतलब नहीं है। ना, बिलकुल नहीं। वरना सोचिए, अगर ऐसा होता तो ऐसे बेतुके ड्रामे करने के लिए भी उन्हें लड़कियां कहां से मिलतीं?
बढिया व्यंग्य!! बहुत सटीक।
ReplyDeleteबढिया व्यंग्य!! बहुत सटीक।
ReplyDelete:) :)
ReplyDeleteसटीक सधा हुआ व्यंग .... विज्ञापनों का मायाजाल ऐसा ही है .... आज के परिवेश का सही रेखांकन
ReplyDeletesahi likha hai .
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