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अपने बारे में क्या लिखूं ? बस इतना ही कि मैं एक रंगा हुआ सियार हूँ . जब कभी आवाज़ निकलती है तो पता चल जाता है . जब जो मन पड़े लिख जाता है . मैनें कभी उपन्यास लिखे, कभी लघुकथाएं और कभी कविताएँ . मेरे इस पागलपन से परेशां पूज्य पिता जी कहते, 'अरे नालायक क्यों कविता के पीछे लट्ठ लेकर पड़ा है ? और मैं व्यंग्य लिखने लगा . फिर और बाद में एक धारावाहिक की कुछ कडियाँ लिखीं . पढ़ा है पूज्यनीय पंडित श्रीराम शर्मा को, अपने निर्माण के लिए . साहित्यिक भूख मिटती है, व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाईं जी को पढ़कर और इस दुनिया में जीने के लिए सुलझाते हैं 'ओशो' आचार्य रजनीश जी . पिता स्वर्गीय डॉ. गणेश प्रसाद जी की प्रेरणा [मेरे व्यंग्य पढ़कर वे मंद-मंद मुस्काते थे, अब छूटा पीछा कविता से] और माँ के आशीर्वाद से जब भी लिखा, मन को सुकून मिला. साहित्य के नाम पर श्रेष्ठ पत्र एवं पत्रिकाएं . मैं हृदय से आभारी हूँ इन तमाम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं के संपादकों का जिन्होंने मेरी रचनाएँ न केवल लौटाईं बल्कि अपनी कलम से सुधार की टीप देकर मांजा फिर उन्हें प्रकाशित भी किया . उनका संपादकत्व धन्य है जिन्होंने व्यक्तिगत पत्रों के माध्यम से मुझे लेखन के लिए प्रेरित किया . इन मूर्धन्य के नाम पसंदीदा पुस्तकों में पढ़े . बस ....
बस इतना ही.
राकेश 'सोऽहं'
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