apsamskriti ka khatra
व्यंग्य
अपसंस्कृति का खतरा
-हरिशंकर राढ़ी
दूसरी किश्त
यह मानवता ही नहीं, प्रकृति के नियमों के भी खिलाफ है। इसीलिए अंगरेजी में इसे ‘कॉल ऑफ नेचर’ कहते हैं। प्रतिबंध् लगाकर आप नेचर के विरुद्ध जाने का काम कर रहे हैं। इससे ज्यादा आजादी तो पशुओं को है। उन्हें जब, जहां और जैसे जरूरत पड़ती है, वे अपना ‘कॉल ऑफ नेचर’ पूरा कर लेते हैं। इसीलिए उन्हें पेट की बीमारियां नहीं होतीं। बात तो की जाती है मानवाधिकार की और पशु अधिकार के भी लाले पड़े हैं। आयुर्वेद भी इस मत का समर्थन करता है- वेगान् न धरयेत्। वेगों को नहीं रोकना चाहिए अर्थात् मल-मूत्र के वेग को रोकना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इन वेगों को धरण करना कितना कष्टप्रद और इनसे मुक्ति पाना कितना सुखद है, यह कोई रहस्य की बात नहीं। यह तो जन-जन का अनुभव है।
अपसंस्कृति का खतरा
-हरिशंकर राढ़ी
दूसरी किश्त
सड़कीय समारोहों पर प्रतिबंध् आसन्न अपसंस्कृति का सबसे बड़ा उदाहरण है। देश के लोगों की रंगीनियत, जज्बे और मितव्ययिता का सम्मिलित रूप है सड़कों का ऐसा प्रयोग! गैरसरकारी संगठनों, सरकारों और न्यायालयों का यातायात के लिए परेशान होना सर्वथा अनावश्यक और तर्कहीन है। अपने देश का यातायात आज तक कभी रुका है क्या? यातायात रुक जाएगा, ऐसा सोचकर आप अपने देश के वाहन चालकों की क्षमता का अपमान नहीं कर रहे हैं ? किस देश के ड्राइवर अपने देश के ड्राइवरो से ज्यादा कुशल हैं? ऐंड़े-बैंड़े, आड़े-तिरछे, पटरी-फुटपाथ और डिवाइडर तक पर भी चलवाकर देख लीजिए। कहीं रुक जाएं और मात खा जाएं तो आपकी जूती और मेरा सिर। जहां के लोग जाम और रेड लाइट को कुशलतापूर्वक जंप करना जानते हों, वहां सड़कीय समारोह यातायात का क्या बिगाड़ लेंगे? लेकिन यहां तो पश्चिमी अंधानुकरण है। अजी अमेरिका में सड़क पर कोई रुक नहीं सकता, थूक नहीं सकता और यहां तम्बू गाड़ देंगे। इसे तो रोकना ही होगा! पर इतना ध्यान नहीं है कि समारोहों पर प्रतिबंध् लगाकर आप कैसी भयानक अपसंस्कृति फैला रहे हैं!
इन सबसे भी हास्यास्पद बात यह कि आप सड़क के किनारे पेशाब नहीं करेंगे। लाखों करोड़ों रुपये इसी के लिए विज्ञापन पर फूंके जा रहे हैं कि विदेशियों की नजर में देश की इमेज खराब होती है। आखिर हर चीज को विदेशी नजरिए से देखने की कौन सी जरूरत आ पड़ी और वह भी अचानक? कभी-कभार तो अपने देश की पुरानी संस्कृति को देशी नजरिए से भी देख लिया करिए। अब आपसे बंदे की पेशाब भी नहीं देखी जा रही है? कुछ तो ऐसा रहने दीजिए कि उसे लगे वह अपने देश में है और उसमें देशभक्ति की भावना बनी रहे। आप तो खामखां देश को थाईलैण्ड और मलेशिया बनाए जा रहे हैं कि सड़क किनारे थूके-मूते तो जुर्माना भरो या जेल जाओ !यह मानवता ही नहीं, प्रकृति के नियमों के भी खिलाफ है। इसीलिए अंगरेजी में इसे ‘कॉल ऑफ नेचर’ कहते हैं। प्रतिबंध् लगाकर आप नेचर के विरुद्ध जाने का काम कर रहे हैं। इससे ज्यादा आजादी तो पशुओं को है। उन्हें जब, जहां और जैसे जरूरत पड़ती है, वे अपना ‘कॉल ऑफ नेचर’ पूरा कर लेते हैं। इसीलिए उन्हें पेट की बीमारियां नहीं होतीं। बात तो की जाती है मानवाधिकार की और पशु अधिकार के भी लाले पड़े हैं। आयुर्वेद भी इस मत का समर्थन करता है- वेगान् न धरयेत्। वेगों को नहीं रोकना चाहिए अर्थात् मल-मूत्र के वेग को रोकना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इन वेगों को धरण करना कितना कष्टप्रद और इनसे मुक्ति पाना कितना सुखद है, यह कोई रहस्य की बात नहीं। यह तो जन-जन का अनुभव है।
सड़क के किनारे मीलों-मील, भरे बाजार में और संभ्रांत इलाकों में सार्वजनिक शौचालयों का न होना अपनी पुरानी संस्कृति है। खुदा न खास्ता यदि कहीं हो भी तो उसका भरा होना भी अपने यहां की पहचान है। ठीक भी हो तो उसके अगल-बगल खड़े होकर ‘कॉल ऑफ नेचर’ पूरा कर लेना सहज पद्धति है। महिला शौचालय पर कामसूत्र के वाक्य लिख देना और खजुराहो के चित्र बना देना देशी शृंगारबोध् के प्रमाण हैं। इससे आमजन की जिजीविषा परिलक्षित होती है। रेल की पटरी के किनारे बैठकर ‘कॉल ऑफ नेचर’ पूरा करना और जाती हुई ट्रेन को दार्शनिक भाव से निहारना जीवन का एक सुख है। अब विदेशी भय से संस्कृति का यह सुख भी आप छीनना चाहते हैं ?
इंडियन कल्चर की परवाह हम इंडियन भले न करें, पर विदेशी जरूर करते हैं। अमेरिका में रहने वाले मेरे एक दूर के सम्बन्धी ने बताया कि वहां जगह-जगह इंडियन मार्केट बनाए गए हैं और उन्हें इंडियन लुक देने की कोशिश की गई है । अपने समझ में यह बात नहीं आई तो उन्होंने फरमाया कि पान-गुटका और असली तेंदू पत्ते की बीड़ी का विशेष इंतजाम तो वहां होता ही है, सबसे बड़ी बात यह कि इमारत के कोनों और सीढि़यों के घुमावों पर पान-गुटके की गहरी पीक का भी प्रभाव छोड़ा और देखा जाता है। प्रयुक्त सामानों के रैपरों को भी यत्र-तत्र फैलाकर भारतीय सभ्यता और संस्कृति को जीवंत किया जाता है। तब जाकर मुझे इंडियन लुक का अर्थ समझ में आया। यह बात अलग है कि अभी सात समंदर पार जाकर ऐसी जीवंत संस्कृति का दर्शन नहीं कर पाया।
यहां इसका ठीक उल्टा हो रहा है। नियम पास कर दिया गया कि सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान निषिद्ध है। पान-गुटका खाकर सड़क पर थूकना दंडनीय है। अट्ठारह साल से कम उम्र के व्यक्ति को गुटका-बीड़ी-सिगरेट बेचना कानूनन जुर्म है (अट्ठारह साल से कम उम्र का व्यक्ति इन्हें बेच सकता है)। इतना ही नहीं, सरकार तो इसे सख्ती से लागू भी करवा देती। उसे देश की संस्कृति से क्या लेना देना ? यह तो भला हो पुलिस और कार्यपालिका का कि येन-केन प्रकारेण वह गुटका-बीड़ी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए हुए है और धूम्रपान विहीन अपसंस्कृति को पांव फैलाने से रोके हुए है। हालांकि गुटका-पान जैसी भारतीय संस्कृति का समूल नाश करने में दिल्ली मेट्रो ने कोई कसर नहीं छोड़ी है और गंदगी से बैर भाव रखकर स्वयं को पाश्चात्य लुक देने में जी जान से लगी है। यह तो भला हो अपने देशवासियों का कि महिलाओं के लिए आरक्षित डिब्बों में यात्रा करके, महिलाओं और बुजुर्गों को उनकी आरक्षित सीटें न देकर और दरवाजों पर भारी मजमा लगाकर भारतीय संस्कृति को बचाए हुए हैं। किंतु सख्त होते नियमों को देखकर लगता नहीं कि हम इसके उलट अपसंस्कृति के प्रसार से बच पाएंगे।
इंडियन कल्चर की परवाह हम इंडियन भले न करें, पर विदेशी जरूर करते हैं। अमेरिका में रहने वाले मेरे एक दूर के सम्बन्धी ने बताया कि वहां जगह-जगह इंडियन मार्केट बनाए गए हैं और उन्हें इंडियन लुक देने की कोशिश की गई है । अपने समझ में यह बात नहीं आई तो उन्होंने फरमाया कि पान-गुटका और असली तेंदू पत्ते की बीड़ी का विशेष इंतजाम तो वहां होता ही है, सबसे बड़ी बात यह कि इमारत के कोनों और सीढि़यों के घुमावों पर पान-गुटके की गहरी पीक का भी प्रभाव छोड़ा और देखा जाता है। प्रयुक्त सामानों के रैपरों को भी यत्र-तत्र फैलाकर भारतीय सभ्यता और संस्कृति को जीवंत किया जाता है। तब जाकर मुझे इंडियन लुक का अर्थ समझ में आया। यह बात अलग है कि अभी सात समंदर पार जाकर ऐसी जीवंत संस्कृति का दर्शन नहीं कर पाया।
यहां इसका ठीक उल्टा हो रहा है। नियम पास कर दिया गया कि सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान निषिद्ध है। पान-गुटका खाकर सड़क पर थूकना दंडनीय है। अट्ठारह साल से कम उम्र के व्यक्ति को गुटका-बीड़ी-सिगरेट बेचना कानूनन जुर्म है (अट्ठारह साल से कम उम्र का व्यक्ति इन्हें बेच सकता है)। इतना ही नहीं, सरकार तो इसे सख्ती से लागू भी करवा देती। उसे देश की संस्कृति से क्या लेना देना ? यह तो भला हो पुलिस और कार्यपालिका का कि येन-केन प्रकारेण वह गुटका-बीड़ी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए हुए है और धूम्रपान विहीन अपसंस्कृति को पांव फैलाने से रोके हुए है। हालांकि गुटका-पान जैसी भारतीय संस्कृति का समूल नाश करने में दिल्ली मेट्रो ने कोई कसर नहीं छोड़ी है और गंदगी से बैर भाव रखकर स्वयं को पाश्चात्य लुक देने में जी जान से लगी है। यह तो भला हो अपने देशवासियों का कि महिलाओं के लिए आरक्षित डिब्बों में यात्रा करके, महिलाओं और बुजुर्गों को उनकी आरक्षित सीटें न देकर और दरवाजों पर भारी मजमा लगाकर भारतीय संस्कृति को बचाए हुए हैं। किंतु सख्त होते नियमों को देखकर लगता नहीं कि हम इसके उलट अपसंस्कृति के प्रसार से बच पाएंगे।
देश की संस्कृति और पहचान विलुप्त होने की कगार पर है। अब वह दिन दूर नहीं दिखता जब लोगों के घर के सामने सरकारी सड़क पर और गलियों में गाडि़यां खड़ी हुई नहीं दिखेंगी। घर के अगल-बगल गैराज नहीं होंगे और जुगाड़ तकनीक का सर्वथा अभाव हो जाएगा। सरकारी इमारतें तो होंगी लेकिन उनके सीढि़यों के घुमाव पर पान-गुटका की सुर्ख पीकें नहीं होंगी। जो पान-गुटका वे महागरीबी में भी खरीदते और खाते आए, वही अब डॉलर और एटीएम हो जाने के बाद भी नहीं खरीद पाएंगे क्योंकि थूकने की अनुमति नहीं होगी।
थूकने में हमारा कोई जवाब नहीं है। हम सदियों से लगातार थूकते आए हैं। हमारी उदारता यह है कि हम जिसे अच्छा मानते हैं, उस पर भी थूकते हैं। जिसका सम्मान करते हैं, उसके नाम पर भी थूकते हैं। कोठी-कटरा, महल-अटारी, बंगला-अट्टालिका, जनपथ और राजपथ से लेकर शौचालय तक समान भाव से थूकते हैं। कुछ लोगों ने तो शायद आसमान और सूरज पर भी थूका होगा जिससे ऐसी थूक मुहावरा बनकर भाषा को समृद्ध कर रही है। कुछ लोग इससे भी आगे चले जाते हैं और थूककर चाटने में बड़ा विश्वास रखते हैं। सुना है ऐसे लोग दुनिया में सफलता के झंडे गाड़ देते हैं। यह नीति राजनीति में भी बहुत समर्थ मानी जाती है।
बहरहाल, सरकारी और न्यायालयी सख्ती से तो यही लगता है कि अपनी पान-गुटका संस्कृति का लोप हो जाएगा और बदले में विदेशी ब्लैक एंड व्हाइट अपसंस्कृति टांग फैलाए मिलेगी। शादियां सड़कों पर नहीं होने दी जाएंगी (यों भी शादियां करना कौन चाहता है)। विशेषज्ञों की मानें तो यह लिव इन रिलेशनशिप वालों की चाल है। न शादियों के लिए मुफ्त की जगह मिलेगी और न मां-बाप अपने प्राणप्यारों पर शादी करने का दबाव डालेंगे। यहां तक कि गर्भवती प्रेमिकाएं भी शादी के लिए जिद नहीं करेंगी। दावतें बंद हो जाएंगी जिससे समाज में वैमनस्य का बोलबाला होगा। अभी तक आपसी मेलजोल और कार्यसिद्धि के लिए जिस दावतबाण का प्रयोग किया जाता था वह निष्प्रभावी हो जाएगा। बिना दावत के समाज में किसी का किसी से परिचय नहीं होगा और कार्यसंस्कृति का लोप हो जाएगा। और ऐसा हुआ तो अपना विश्वगुरू बनने का सपना तो अधूरा ही रह जाएगा न ! तो क्यों न आगे बढ़कर हम अपसंस्कृति के खतरे को रोकने का प्रयास करें और अपने पुराने मूल्यों को पुनरस्थापित करें?
थूकना एक महान क्रिया है. इसे रोकने की कोई भी कोशिश बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए. हमने थूकना छोड़ दिया तो समझिए कि विकास की पूरी प्रक्रिया रुक जाएगी, केवल हमारी नहीं, पूरी दुनिया की. दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था हमारे थूकने पर टिकी हुई है. जो नहीं मानते और फिर थूकने पर रोक लगाने की कोशिश करते हैं, हम उन्हें भारत की मौलिक संस्कृति का दुश्मन मानते हुए उनके इस कुत्सित प्रयास पर थूकते हैं.
ReplyDeleteये एक जीती जागती सभ्यता के लक्षण हैं, इन्हें संजो के रखने की ज़रूरत है, और इस मामले में भी हमें एक कड़ा सन्देश देना चाहिए.
ReplyDeletewww.searchitfree.blogspot.com