अपसंस्कृति का खतरा
- हरिशंकर राढ़ी
ऐसा पहली बार होगा कि देश की संस्कृति की चिन्ता करने वाले मेरी किसी बात से इत्तेफाक रखेंगे। बात यह है कि अब मैं भी यह मानने लगा हूं कि देश में अपसंस्कृति का प्रसार हो रहा है। हालांकि इस प्रकार की स्वीकारोक्ति से मैं देश की युवाशक्ति का समर्थन खो दूंगा और मेरी गणना भी खब्तियों में होने लगेगी। युवाशक्ति के समर्थन से हिम्मत दुगुनी रहती है और इस बात का गुमान रहता है कि मैं भी युवा हूं। युवाशक्ति से मेरा कोई प्रत्यक्ष हितलाभ नहीं है क्योंकि मैं कोई चुनाव लड़ने नहीं जा रहा जिसके लिए मुझे युवाशक्ति के रैपर में लिपटे वोट की दरकार हो। फिर भी आत्मरक्षा की दृष्टि से इस वर्ग से पंगा लेना ठीक नहीं। जब भी ऐसी चर्चा होती है कि देश में अपसंस्कृति का प्रसार हो रहा है, युवावर्ग फायरिंग पोजीशन में आ जाता है। कुछ युवापार लोग भी इनके समर्थन में आ जाते हैं क्योंकि इसी अपसंस्कृति के चलते उन्हें भी सुखद मौके मिल जाते हैं । ऐसी दशा में संस्कृति के संवाहकों की चुनौती दोहरी हो जाती है। जिसे अपनी टीम का खिलाड़ी होना चाहिए, वह विपक्षी टीम में शामिल हो जाए तो मुश्किल बढ़ेगी ही।
ऐसा पहली बार होगा कि देश की संस्कृति की चिन्ता करने वाले मेरी किसी बात से इत्तेफाक रखेंगे। बात यह है कि अब मैं भी यह मानने लगा हूं कि देश में अपसंस्कृति का प्रसार हो रहा है। हालांकि इस प्रकार की स्वीकारोक्ति से मैं देश की युवाशक्ति का समर्थन खो दूंगा और मेरी गणना भी खब्तियों में होने लगेगी। युवाशक्ति के समर्थन से हिम्मत दुगुनी रहती है और इस बात का गुमान रहता है कि मैं भी युवा हूं। युवाशक्ति से मेरा कोई प्रत्यक्ष हितलाभ नहीं है क्योंकि मैं कोई चुनाव लड़ने नहीं जा रहा जिसके लिए मुझे युवाशक्ति के रैपर में लिपटे वोट की दरकार हो। फिर भी आत्मरक्षा की दृष्टि से इस वर्ग से पंगा लेना ठीक नहीं। जब भी ऐसी चर्चा होती है कि देश में अपसंस्कृति का प्रसार हो रहा है, युवावर्ग फायरिंग पोजीशन में आ जाता है। कुछ युवापार लोग भी इनके समर्थन में आ जाते हैं क्योंकि इसी अपसंस्कृति के चलते उन्हें भी सुखद मौके मिल जाते हैं । ऐसी दशा में संस्कृति के संवाहकों की चुनौती दोहरी हो जाती है। जिसे अपनी टीम का खिलाड़ी होना चाहिए, वह विपक्षी टीम में शामिल हो जाए तो मुश्किल बढ़ेगी ही।
मैं वह पुराना राग नहीं अलापने जा रहा हूं कि अपसंस्कृति का खतरा पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण से बढ़ रहा है। दरअसल, असली खतरा तो अंदरूनी होता है जिसे सभी देशी इतिहासकार मानते हैं। ‘घर का भेदी लंका ढाए’ ऐसे ही नहीं कहा गया है। हां, इतिहास को जानना अलग है और उससे सीख लेना अलग (जिसके लिए हम कतई तैयार नहीं)। अब इधर अपसंस्कृति का जो खतरा पैदा हुआ है वह हमारा अपना बनाया हुआ है और शुद्ध देशी है। मजे की बात यह है कि संस्कृति भी देशी है और खतरा भी देशी। दो ‘देशियों’ में लड़ाई की स्थिति है। सदियों से चली आ रही परंपरा और पद्धति को अपने ही देश की सरकार मिटाने पर तुली हुई है।
सदैव अपनी ही सुविधा और फायदे का ध्यान रखना हमारी पुरानी संस्कृति रही है। अपना बाल भी बांका न हो और दूसरे की गर्दन कट जाए तो भी ठीक है। लब्बो-लुआब यह कि दुनिया की सारी सुविधाएं मेरे लिए ही बनी हैं, दूसरे के लिए नहीं। दूसरा है भी तो क्यों है? पहले तो उसे होना नहीं चाहिए और है भी तो उसे मेरी सुविधा का खयाल पहले रखना चाहिए। हम चाहे जो करें, जैसे रहें, हमारी मर्जी ! हमारा मन है कि हम बीच सड़क पर लट्ठ घुमाते हुए चलेंगे तो क्यों न चलें? हमें इसमें मजा आ रहा है तो आप कौन हैं रोकने वाले? अगर आपको भी सड़क पर चलना है तो यह आपका सिरदर्द कि मेरे लट्ठ से कैसे बचें। आपको सड़क पर निकलने का बस यही समय मिला था? फिर मैं लट्ठ घुमाते हुए जा रहा हूं तो आप पूरी तरह से फुटपाथ पर क्यों नहीं चलते? फुटपाथ भी अगर लट्ठ की परिधि में आ रहा है तो क्या सड़क के बगल में खेत नहीं है? बेवजह मेरा लट्ठ रोकेंगे तो मुझे गुस्सा आएगा या नहीं? फिर आप कहेंगे कि मैं सुसंस्कृत नहीं हूं और लड़ाई पर आमादा हूं। इतना ही नहीं जनाब, आप उसे रोडरेज का नाम देकर संस्कृति का क्षय बताएंगे। अब क्या कोई राजतंत्रा या शाही जमाना रहा है कि मुझे अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है? भाई साहब, शुद्ध क्या विशुद्ध लोकतंत्र है और लोकतंत्र को बचाने के लिए मैं चाहे जैसे प्रयोग करूं!
हम उदारचरित संस्कृति वाले नागरिक रहे हैं। फायदा हो तो अपने-पराए का भेद नहीं मानते। सार्वजनिक संपत्ति और सार्वजनिक स्थल को अपना न मानने की भूल कभी भी नहीं करते! संस्थागत चीजों को व्यक्तिगत समझते आए लेकिन हमारी इस समृद्ध संस्कृति में न्यायालय का हस्तक्षेप बढ़ना शुरू हो गया और अपसंस्कृति का खतरा शुरू हो गया । पहला यह कि आप सरकारी सड़क पर पार्किंग नहीं कर सकते, गैराज नहीं खोल सकते और भैंस नहीं बांध सकते। अगर आप ऐसा करते हैं तो दंड संहिता के अंतर्गत दंड के भागी बनेंगे। अगर आप सड़क पर गाड़ी जमाते हैं तो उसे उठा लिया जाएगा या चालान काट दिया जाएगा। आप रिहायशी इलाकों में गैराज नहीं खोल सकते। ऐसा ही प्रतिबंध् बैंक और दूसरी संस्थाओं पर लग गया है। दुनिया जानती है कि अपने देश की पहचान ही इसी पद्धति से रही है। भइया, यहां तो ऐसा सदियों से होता आया है। अब आप इसे क्या अमेरिका, कनाडा और आस्ट्रेलिया बनाने पर तुले हुए हैं? माचिस की एक डिबिया लेनी हो तो अंडरग्राउंड पार्किंग से कार निकालूं और साढ़े चैदह किमी दूर शापिंग मॉल भागूं? कार धक्के से स्टार्ट होने लगे तो कंपनी के सर्विस सेंटर को फोन लगाऊं और वे उसे उठाने के लिए क्रेन भेजें, जॉब कार्ड बनाएं और उनका इंजीनियर चेक करके एस्टीमेट दे, इसके बाद बने, बिल पेमेंट हो और फिर किसी तरह माचिस की डिबिया आए। भाई साहब, यह पश्चिमी अंधानुकरण नहीं तो और क्या है? एक नौजवान या नौजवानिन पश्चिमी फैशन के तहत थोड़ा शरीर दिखा दे (जिसे देखकर आप भी खुश और ऊर्जावान महसूस करें) तो यह अपसंस्कृति का प्रसार है और सैकड़ों वर्षों की अपनी बनी-बनाई पड़ोसगीरी संस्कृति की सुविधा का फायदा लेने के बजाय अनावश्यक रूप से संसाधनों का अपव्यय करके यहां-वहां दौड़ लगाते रहें तो यह अपसंस्कृति नहीं है?
आप यह भूल गए कि यहां पश्चिमी दशों की तरह केवल ‘घर’ नहीं घर-द्वार होता है। घर के सामने जो भी होता है वह द्वार होता है और अगर सरकार ने सड़क बना दी है तो यह उसकी गलती है। द्वार का ध्यान उसे रखना चाहिए था। यह भी अटल सत्य है कि घर के सामने की हवा और धूप गृहस्वामी की होती है। बिना उसकी अनुमति के उध्र से गुजरने वाला वहां की हवा और धूप नहीं ले सकता। ऐसी स्वामित्व की स्थिति में यदि वह अपनी गाड़ी खड़ी कर लेता है तो सरकार के पेट में दर्द क्यों? घर के सामने गाड़ी खड़ी करना समृधि और रुतबे का प्रतीक है। यह हमारी संस्कृति का अंग है और ऐसा करने से रोकना संस्कृति का कत्ल है।
एक साहब एक गैर-सरकारी संगठन चलाते हैं। सड़कों से पार्किंग और गैराज हटाने की खुराफात उन्हीं को सूझी थी। बकौल एनजीओ साहब, इससे आवागमन में दिक्कत होती है और जाम लगता है। इसके अलावा गैराज वाले इंजन के शोर से जीना मोहाल कर देते हैं। न चैन से बैठने को मिलता है और न सोने को। यह अपनी पुरानी दिक्कत रही है। बैठने वालों और सोने वालों के लिए काम करने वाले और व्यस्त रहने वाले हमेशा से एक बड़ी समस्या रहे हैं। जब देखो काम ही काम। एक मिनट शांति से बैठकर जीवन को समझने की कोशिश नहीं करेंगे। देश के राजनैतिक और आर्थिक हालात क्या हैं, इसकी कोई चिंता ही नहीं!
इधर सड़कों के बहुआयामी प्रयोग पर प्रतिबंध् की वकालत की जाने लगी है। ऐसे प्रावधन हो चुके हैं कि सड़कों का प्रयोग बहुविध होने के बजाय एकल होना चाहिए। अपनी बहुत पुरानी संस्कृति रही है कि हर वस्तु का प्रयोग बहुउद्देश्यीय हो। इससे संसाध्नों की बचत होती है और वस्तु विशेष की उपयोगिता बढ़ती है। सड़कों के साथ ऐसा प्रयोग हम करते आए हैं। सड़कों पर सूखने के लिए गन्ने की खोई डाल देना, महीन करने हेतु भूसे को फैला देना या फिर घर का कूड़ा डाल देना ऐसे ही बहुउद्देश्यीय ग्रामीण प्रयोग रहे हैं । यह तो आप मानेंगे कि समारोह किसी भी संस्कृति के प्राण हैं और हमारे यहां आधे से ज्यादा समारोह सड़कों पर ही होते हैं।
शादियां तो सड़कों के उपयोग बिना हो ही नहीं सकतीं। आज शहर में पचास फीसदी से अध्कि लोगों की गृहस्थी जमाने का श्रेय सड़कों को ही जाता है। मोहल्ले की सड़क पर तम्बू गाड़ा, हलवाई बिठाए और बिटिया के हाथ पीले! बाबुल प्यारे जिम्मेदारी से मुक्त और लाडो पिया के घर! कन्यादान महादान। सड़क के बिना कहां का कन्यादान? इधर जबसे सड़क पर तम्बू गाड़ने पर प्रतिबंध् लगा, शहर में शादियाँ कम हो गईं। अब कन्या के लिए सुयोग्य वर की तलाश आसान लेकिन समारोह स्थल का जुगाड़ असंभव। कैसे हो कन्यादान महादान ? चलिए, जैसे -तैसे कहीं पचास वर्गफुट जगह मिल भी गई तो बारात कैसे जाए ? नहीं साहब, आप सड़क पर नाच-गा नहीं सकते। इससे यातायात बाधित होता है। होता होगा। कुछ लोग होते ही ऐसे हैं कि उन्हें नाच-गाना सुहाता ही नहीं और दूसरों की खुशी देखी नहीं जाती। इतने सारे दुखों के बीच बंदा खुशी का एक मौका निकालता है, वह भी आपसे बर्दाश्त नहीं होता ! क्या समां होता है थोड़ी देर के लिए। जेनरेटर दगदगा रहा होता है और रंग-बिरंगी लाइटें दमदमा रही होती हैं। हर आय और आयुवर्ग का बंदा एंड़े-बैंड़े घूम रहा होता है। संगीत की धारा बह रही होती है और आधा किलोमीटर की दूरी भद्रजन दो घंटे में तय कर रहे होते हैं। वरना इसी सड़क पर लोग उड़ रहे होते हैं और खून की नदियां बह रही होती हैं। आप उसी उड़ान के लिए वकालत कर रहे हैं ? दो घंटे की रौनक आपसे देखी नहीं जाती?
( शेष दूसरी किश्त में )
(यह व्यंग्य ‘समकालीन अभिव्यक्ति’ के जनवरी-मार्च 2013अज्ञात रचनाकार विशेषांक में प्रकाशित हुआ था)
(यह व्यंग्य ‘समकालीन अभिव्यक्ति’ के जनवरी-मार्च 2013अज्ञात रचनाकार विशेषांक में प्रकाशित हुआ था)
यह बहुत भयानक ख़तरा है. इससे बचने का तत्काल कोई उपाय किया जाना चाहिए, वरना हमारी महान सनातन संस्कृति लहूलुहान हो सकती है. कल को कोई यह भी कह सकता है कि अब आप सड़क पर शंका समाधान नहीं कर सकते. भला बताइए, तब क्या हम लोग अपने-अपने घर से शौचालय लेकर निकला करेंगे?
ReplyDeletethe problem you raised has been included in the article. it will be reflected in the next episode.
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