जो फाइलें सोचती ही नहीं
इष्ट देव सांकृत्यायन
भारत एक प्रबुद्ध राष्ट्र है, इस पर यदि कोई संदेह करे तो उसे बुद्धू
ही कहा जाएगा. हमारे प्रबुद्ध होने के जीवंत साक्ष्य सामान्य घरों से लेकर सड़कों,
रेल लाइनों, निजी अस्पतालों और यहां तक कि सरकारी कार्यालयों तक में बिखरे पड़े
मिलते हैं. घर कैसे बनना है, यह आर्किटेक्ट के तय कर देने के बावजूद हम अंततः
बनाते अपने हिसाब से ही हैं. आर्किटेक्ट को हम दक्षिणा देते हैं, यह अलग बात है.
इसका यह अर्थ
थोड़े ही है कि घर बनाने के संबंध में सारा ज्ञान उसे ही है. ऐसे ही सड़कों पर
डिवाइडर, रेडलाइट, फुटपाथ आदि के सारे संकेत लगे होने के बावजूद हम उसका इस्तेमाल
अपने विवेकानुसार करते हैं. बत्ती लाल होने के बावजूद हम चौराहा पार करने की कोशिश
करते हैं, क्योंकि बत्ती का क्या भरोसा! पर अपने आकलन पर हम भरोसा कर सकते हैं.
सरकारी दफ्तरों में नियम-क़ानून किताबों में लिखे रहते हैं, लेकिन काम अपने ढंग से
होते हैं.
ये सभी बातें इस बात का जीवंत साक्ष्य हैं कि हम बाक़ी किसी भी चीज़ से
ज़्यादा अपने विवेक पर भरोसा करते हैं. हमें अपने सोचने पर और किसी भी चीज़ से
ज़्यादा भरोसा है, क्योंकि यूरोप के एक दार्शनिक रेने देकार्त ने किसी के होने का
प्रमाण ही यह माना है कि वह सोचता है. उनका तर्क है, “मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं.” मतलब यह कि जो नहीं
सोचता है, वह है ही नहीं. वो तो भला हो भारत के डॉ. जगदीश चंद बसु और डॉ. सलीम अली
का जिन्होंने वैज्ञानिक रूप से यह साबित कर दिया कि पौधे और पक्षी भी सोचते हैं,
वरना मुझे तो यह मानने में भी हिचक होती कि वे हैं. सडक पर लगी लालबत्ती या कार सोचती
है, ऐसा अभी तक कोई वैज्ञानिक प्रमाणित नहीं कर सका है. अब जो सोचता ही नहीं, वह
है, ऐसा हम कैसे मान लें? बस इसीलिए सामने से आता हुआ ट्रक या रेलगाड़ी है और वह
हमारी तरफ़ आ रहा या रही है, ऐसा हम मानते ही नहीं.
प्रबुद्ध राष्ट्र होने के नाते हमारे यहां हर शख़्स सोचता है. वह उस
विषय पर भी सोचता है, जिस पर उसे सोचना चाहिए और उस विषय पर भी जिस पर उसे नहीं
सोचना चाहिए. अव्वल तो असली प्रबुद्ध लोग उस विषय पर कम ही सोचते हैं, जिस पर
उन्हें सोचना चाहिए. वे अधिकतर उसी विषय पर सोचते हैं जिस पर सोचने की अपेक्षा
उनसे नहीं की जाती और अकसर वह सोच डालते हैं जो नियम-क़ानून के जानकार बताते हैं कि
उन्हें नहीं सोचना चाहिए. सोचने की इस प्रक्रिया का हमारे यहां निर्बाध विकास
इसलिए भी हो रहा है, क्योंकि हमारी उदार सरकार ने एक अत्यंत योग्य अर्थशास्त्री के प्रधानमंत्री होने के
बावजूद अभी तक सोचने पर कोई कर नहीं लगाया है. यहां तक कि कोई छोटा-मोटा अधिभार भी
नहीं लगाया. यह जानते हुए भी कि अगर सोचने पर कर लगा दिया जाए तो लोगों की तमाम
बेईमानियों के बावजूद केवल इस एक कर से हम अपनी अर्थव्यवस्था को सारे संकटों से
उबार सकते हैं. अकेले इस कर से हम इतना धन जुटा लेंगे जितना नीदरलैंड्स यौन
व्यवसाय और स्विट्ज़रलैंड दुनिया भर से अपने यहां आने वाले श्याम धन पर कर लगा कर
भी नहीं जुटा पाते.
अव्वल तो इसमें लोग कोई बेईमानी भी नहीं करेंगे, बल्कि इसके लिए टैक्स
देना गर्व की बात समझेंगे. इनकम टैक्स देकर भी जो लोग अपना स्टेटस नहीं बना पाए,
वे सोचने पर टैक्स देकर अपना स्टेटस बढ़ाने की पूरी कोशिश जी-जान से करेंगे. अगर
आपको इसका यक़ीन न हो तो आप फेसबुक या ट्विटर पर किसी का भी स्टेटस देख सकते हैं.
इसके बावजूद उन्होंने इस पर टैक्स नहीं लगाया तो केवल इसलिए कि वे नहीं चाहते,
सोचने की यह जो प्रक्रिया है, उसकी महान परंपरा के विकास में कोई बाधा आए. आख़िर
ऋषि-मुनियों का देश है भारत. इसमें सोचने की प्रक्रिया का विकास रुक गया तो बाक़ी
सारा विकास करके ही हम क्या करे लेंगे! ख़ैर इसके लिए अपने अत्यंत लोकप्रिय और
योग्य प्रधानमंत्री को हम एक मामूली धन्यवाद के अलावा और दे ही क्या सकते हैं! अगर
मेरे बस में होता तो इसके लिए मैं उन्हें एक वोट देकर ही कम से कम अपने ऊपर लदे
उनके एहसान के बोझ को थोड़ा कम कर लेता. लेकिन मुझे मालूम है कि मेरे जैसे किसी भी मामूली
नागरिक के वोट का उनके लिए कोई अर्थ ही नहीं है. अव्वल तो हम जैसे चिरकुट उन्हें वोट दे ही नहीं सकते. क्योंकि वे केवल माननीयों के अति
मूल्यवान वोट से चुने जाते हैं और अब तक के भारत के ऐसे इकलौते व्यक्ति हैं, जो
केवल एक वोट से प्रधानमंत्री बनते हैं.
ख़ैर, सोचने के इसी क्रम में कई बार लोग वैसे भी सोच जाते हैं, जैसे कि
उन्हें नहीं सोचना चाहिए. अगर आप बुरा न मानें तो साफ़ कहूं कि उलटा सोच जाते हैं. हाल
की ही एक बात ले लीजिए. जाने कैसे कुछ लोग यहां तक सोच गुज़रे कि मंत्रालय में पड़ी
सारी फाइलों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी माननीय मंत्रीगण की है. इसे सरकार की महती कृपा
ही माना जाना चाहिए कि ऐसा सोचने वाले लोगों में से किसी के भी गुज़रने की ख़बर अभी
तक नहीं आई है. सरकार ने उनकी ऊटपटांग बात को बिलकुल उसी तरह लिया है, जैसे वह सड़क या रेलमार्ग पर
होने वाले ऐक्सीडेंट को लेती है. बल्कि उससे भी हल्के ढंग से. ऐक्सीडेंट पर तो वह
कई बार शोक संवेदना जारी कर देती है, इस पर वह भी नहीं किया. मान लिया कि जिस
प्रकार सड़क या रेलमार्ग पर अधिक भीड़ होने पर वहां ऐक्सीडेंट की आशंका बढ़ जाती है,
ठीक उसी तरह विचारों की भीड़ जाने पर दिमाग़ में भी ऐक्सीडेंट की आशंका बढ़ जाती है
और ऐसी स्थिति में लोग कुछ भी सोच या कह गुज़रते हैं.
मुझे लोगों द्वारा ऐसा सोचे जाने पर सिर्फ़ हंसी आती है. ऐसा केवल वही
लोग सोच सकते हैं जिन्होंने कभी सफ़र नहीं किया. वैसे सफ़र न करने के और भी कई
नुकसान हैं, पर फिलहाल बात केवल सुरक्षा की है. यातायात के सभी सार्वजनिक साधनों
में एक बात ज़रूर लिखी होती है और वह यह कि यात्री अपने जान-माल की सुरक्षा स्वयं
करें. मतलब हमारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ आपको यहां से ले चलने भर तक ही सीमित है. अगर आप
अपने गंतव्य तक पहुंच भी जाएं तो इसके लिए हमारे साथ-साथ ईश्वर को भी धन्यवाद दें.
भले ही आप नास्तिक हों. न पहुंच पाएं तो मामला सिर्फ़ आपके और जीवन बीमा कंपनी के
बीच का ही है. इसमें हमारा कोई दोष न मानें.
अब यह तो आप जानते ही हैं कि फाइलों में दुनिया भर का ज्ञान भरा होता
है. दुनिया भर तमाम पढ़-लिखे अफसर तक अपनी कोई राय बनाने के लिए इन्हीं फाइलों में
भरे ज्ञान पर निर्भर होते हैं. वे अपने सोचने की प्रक्रिया ही तब शुरू करते हैं,
जब फाइलों से सूचनाएं ले लेते हैं. अब जिनसे सूचनाएं लेकर बड़े-बड़े साहेबान और माननीयगण के सोचने की प्रक्रिया शुरू होती हो, आप कैसे सोच सकते हैं कि वे
फाइलें नहीं सोचती होंगी? फाइलें सोचती हैं, यही वाक़ई उनके भी होने का प्रमाण है.
जब वे सोचती हैं तो ज़ाहिर है कि समझदार भी हैं. और जो लोग समझदार होते हैं, उनसे
यह अपेक्षा तो की ही जानी चाहिए कि वे अपनी सुरक्षा स्वयं कर सकते हैं. सोचने-समझने
वाले लोगों को ऐसा नाबालिग तो नहीं ही माना जा सकता कि कोई भी उन्हें बरगला कर कहीं
भी लिए जाए और उनसे सामूहिक दुष्कर्म तक करा ले.
वैसे मेरे एक अज़ीज़ मित्र फाइलों की सुरक्षा के नज़रिये से एक फाइल
मंत्रालय बनाए जाने का सुझाव दे चुके हैं, लेकिन मैं विनम्रतापूर्वक उनके इस सुझाव
से अपनी असहमति जता चुका हूं. एक बार फिर मैं उनसे अपनी विनम्र असहमति जता रहा
हूं, इस सुझाव के साथ कि जो फाइलें अपनी सुरक्षा स्वयं न कर सकें उनके बारे में यह
मान लिया जाए कि वे हैं ही नहीं और कभी थीं भी नहीं. यहां तक कि उनके कभी हो पाने
की कोई संभावना भी नहीं है. क्योंकि अगर कोई अपनी सुरक्षा न कर सके तो इसका मतलब
यही है कि वह समझदार नहीं है और अगर कोई समझदार नहीं है तो इसका सीधा अर्थ है कि
वह सोचता नहीं है. अब भला बताइए, जो सोचता ही न हो, वह है, ऐसा कैसे मान लिया जाए? मैं एक बार फिर विनम्रतापूर्वक उनसे अपनी गंभीर असहमति दस्तावेज़ी तौर पर दर्ज़ करा दे
रहा हूं. इसे मैंने लिख इसलिए दिया है ताकि सनद रहे और वक़्त-ज़रूरत पर काम आवे.
फ़ाइल पर तो एक एक शब्द सोच कर लिखा जाता है। पता नहीं आपका ब्लॉग कैसे मेरी सूची से ग़ायब हो गया था?
ReplyDeleteहा-हा-हा. प्रवीण जी असल में इसका कारण मेरी पिछले दिनों की निष्क्रियता थी. मैं तनी फेसबुक-टुइटर पर घूमने चला गया था. :-)
Deleteयह फाईल तो कम से कम लाल फीते से बाहर आयी!
ReplyDeleteहा हा हा...
Deleteएक सोच मंत्रालय, एक निन्दा मंत्रालय तो बना ही दिये जाएँ फाइल मंत्रालय के साथ।
ReplyDeleteअरे नहीं भारतीय नागरिक जी, मैं आपके इस विचार से भी अपनी विनम्र असहमति दर्ज करा रहा हूं. आप तो जानते ही हैं कि जिन-जिन चीज़ों को लेकर मंत्रालय बने, उन-उन का क्या-क्या हुआ. अब ज़रा सोचिए, अगर कहीं सोच मंत्रालय बन गया तो सोच का क्या होगा? सोचने की प्रक्रिया बंद हो गई तो देश का क्या होगा, उस वाले कर का क्या होगा जो भारत को कभी विकसित देशों से भी ज़्यादा विकसित और अमीर बना सकता है? और निंदा मंत्रालय बन गया तो आतंकवादी विस्फोट, दूसरे देशों द्वारा अप्रत्याशित हमले आदि होने पर हमारे माननीयगण करेंगे क्या? ऐसे कैसे देश चलेगा सर?
Deleteधन्यवाद अजय जी.
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