वर्चुअल दुनिया के रीअल दोस्त
इष्ट देव सांकृत्यायन
डॉ. अरविंद मिश्र का ब्लॉग क्वचिदन्यतोsपि
बहुत दिनों से पढ़ता आ रहा था. वैज्ञानिक विषयों पर और उससे इतर भी, लोकजीवन के
विविध विषयों पर उनका लेखन प्रभावित करने वाला है. हमारा एक-दूसरे के ब्लॉग पर
आना-जाना लगभग अच्छे पड़ोसियों जैसा रहा है, यह अलग बात है कि मुख़ातिब नहीं हो सके
थे, पर होने का मन था. वयंग्यकार और आम बातचीत को भी तुकबंदी में ढालने की क्षमता
रखने वाले अविनाश वाचस्पति मुन्नाभाई से काफ़ी पहले एक बार की मुलाक़ात तो थी. यह
मुलाक़ात लगभग उन्हीं दिनों की थी, जब ब्लॉगबुखार वैसे ही फैल रहा था, जैसे आजकल
डेंगू. उसके बाद फ़ोन पर हमारी बातचीत ज़रूर हुई, लिखना-पढ़ना तो लगा ही रहा, पर
मुलाक़ात नहीं हुई. ब्लॉगिंग के बिलकुल शुरुआती दौर में ही मुलाक़ात हुई थी फ़ुरसतिया यानी अनूप शुक्ल जी से. संस्थागत मीटिंग के लिए कानपुर गया था. गीतकार साथी विनोद
श्रीवास्तव से ब्लॉग में साहित्य का ज़िक्र चला तो उन्होंने बताया कि यहां फुरसतिया
जी हैं. यह तो मालूम था कि अच्छा लिखने-पढ़ने वाले हैं, क्योंकि उनका ब्लॉग मैं देख
चुका था. साहित्य के अलावा और भी बहुत कुछ था
हिन्दिनी पर, रोचक और महत्वपूर्ण. विनोद की बात हुई तो उन्होंने तुरंत मिलने की
हामी भी भर दी और हमारे ठहरने वाले स्थल पर चले भी आए. लेखन तो उनका प्रभावित करने
वाला था ही, व्यवहार की सहजता उससे भी ज़्यादा प्रभावित कर गई. हालांकि उसके बाद
मुलाक़ात नहीं हो सकी. हर्षवर्धन जी से फ़ोन पर बातचीत तो थी, लेकिन मुलाक़ात नहीं
हुई थी. सिद्धार्थ भाई तो ख़ैर, इस पूरे आयोजन के सूत्रधार ही हैं और हमारा साथ भी
काफ़ी पुराना है. एक ही मिट्टी से जुड़े लोग हैं हम, यह अलग बात है कि भेंट कम ही हो
पाती है. इधर मिले एक अरसा गुज़र गया था. उन्होंने एक-दो ऐसे आयोजन किए भी जिनमें
मिला जा सकता था और मिलने का मन भी था, पर अफ़सोस कि हर आदमी को मयस्सर नहीं इंसां
होना..... और मैं कोई हर आदमी से अलग तो हूं नहीं J इधर जब
सिद्धार्थ जी ने वर्धा में ब्लॉगरों के आयोजन में न्योता (और वह भी पिछली कई वादाख़िलाफ़ियों
की याद दिलाते हुए, शिकायत+धमकी के साथ) तो मैंने भी तय कर लिया कि चलना ही है.
सिद्धार्थ जी से ये मालूम हो गया था कि इतने लोग तो आ रहे हैं और आसानी से सबसे
मिलना कहां हो पाता है! फ़ोन पर शिवकुमार मिश्र (व्यंग्य जिनका धर्म है और हास्य
अधिवास) से भी बात हुई थी, पर उन्होंने अन्यत्र व्यस्तता बताई. ख़ैर.
20 सितंबर की रात लगभग 10 बजे नागपुर स्थित बाबासाहब अंबेडकर हवाई अड्डे पर उतर कर बाहर निकला तो विश्वविद्यालय के दो लोग गाड़ी
सहित पहले से मौजूद थे. उनके साथ चला और क़रीब दो घंटे के सफ़र के बाद विश्वविद्यालय परिसर पहुंचा. बीच-बीच में सिद्धार्थ जी की कॉल कई बार आती रही. ज़ाहिर है, सभी
दोस्तों को मेरी ही तरह मिलने की आतुरता थी, भले हममें से कई पहले कभी मिले नहीं
थे. पता नहीं, लोग क्यों कहते हैं कि तकनीक लोगों को दूर करती है, तोड़ती है. यह
लगाव एक तकनीक की ही देन था, जिसकी उम्र भारत में तो सिर्फ़ 15 साल है. ख़ासकर यह
मुलाक़ात उसी की एक संतान की देन थी, जिसके चलते कुछ लोगों को आपस में दोषारोपण,
गाली-गलौज, लगभग दुश्मनों जैसे लड़ने-भिड़ने का एक मंच मिला (शायद यही असली वैचारिक
समानताओं वाले लोग थे J)
तो बहुत लोगों को अलग-अलग पृष्ठभूमि, शैक्षिक क्षेत्र, व्यवसाय और बिलकुल भिन्न
वैचारिक आग्रहों-प्रतिबद्धताओं के बावजूद विचारों-अनुभवों की साझेदारी के लिए एक
प्रीतिकर खुला मैदान. सबने अपने-अपने हिसाब से लोगों को चुना और दूर गए या क़रीब
आए. बाक़ी तकनीक तो बस तकनीक है.
हां, वाक़ई यह इसी तकनीक का ही एक पक्ष था. रात 12
बजे जब मैं विश्वविद्यालय परिसर पहुंचा तो अधिकतर दोस्त नागार्जुन सराय के सामने
कैंप फायर जैसा माहौल बनाए मिले. ये अलग बात है कि अब सभा विसर्जन की ओर अग्रसर
थी. वैसे भी कवियों, ब्लॉगरों, पत्रकारों और पुलिस वालों की बात छोड़ दी जाए तो कोई
शरीफ़ आदमी तो रात 12 बजे के बाद जागना पसंद करता नहीं. सबसे मिलकर बेहद प्रसन्नता
हुई, लेकिन यह प्रसन्नता तुरंत अपने-अपने दिल के कोने में दबाए सब अपने-अपने कमरों
की ओर भाग चले, क्योंकि बूंदा-बांदी टाइप का माहौल भी बन रहा था. सिद्धार्थ ने बताया
कि मेरे लिए फ़ादर कामिल बुल्के की कुटिया में जगह बनाई गई है और भोजन कमरे में ही
रख दिया गया है. मुझे एक जन के साथ उन्होंने भेजा. चलते-चलते उन्होंने यह भी बता
दिया कि सबेरे 6 बजे ही सेवाग्राम आश्रम के लिए निकलना है. मौक़ा मिला तो वहीं से
पवनार भी चलेंगे. इसलिए सुबह जल्दी तैयार होकर आ जाएं. हर्षवर्धन जी पवनार आश्रम
के निकट धाम नदी में नहाने का कार्यक्रम भी बनाने लगे. कमरे में पहुंच कर मैंने
फटाफट भोजन किया और सो गया.
अभी तक मैं इंतज़ार ही कर रहा था कि इष्टदेव जी ने कुछ लिखा ही नहीं -चलिए बिस्मिल्लाह तो हुआ -आगे ?
ReplyDeleteसर बिस्मिल्लाह हो गया तो आगे भी चलेगा ही. :-)
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लगा सबसे मिलना
ReplyDeleteजी. यह एक यादगार अनुभव रहा.
Deletesundar varnan..........
ReplyDeletesare ke sare chhate hue hain........aap jante hi hain(:(:(
pranam.
कुछ छंटे - कुछ छंटाए...... दोनों ही हैं सजय भाई!
Deleteशुभकामनाएं!
ऐसे आयोजन सार्थक परिणाम लायें यह सभी के लिए अच्छा है ...
ReplyDeleteसही है मोनिका जी.
Deleteमुद्दे की बात अभी आगे है...। जल्दी लाइए।
ReplyDeleteआज ही दे रहे हैं भाई :-)
Deleteआघू के किस्सा के अगोरा हे!!!
ReplyDeleteआघू के किस्सा भी आ गया सर. अब देख लें. हालंकि अभी और भी है. :-)
Deleteनहाने का कार्यक्रम तो रही ही गया :)
ReplyDeleteहां भाई! मेरा नदी में नहाने का तो नहीं, लेकिन पवनार घूमने का मन ज़रूर था और वह भी रह ही गया. :-)
Deleteआपका आना
ReplyDeleteएकाएक मिलना
मन में समाना हो गया।
मैं ब्लॉगिंग के सेमिनार
और ब्लॉगिग का दीवाना हो गया।
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Deleteधन्यवाद अविनाश जी! सचमुच सबसे मिलकर बड़ी ख़ुशी हुई!
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