ब्लॉग बनाम माइक्रोब्लॉग
इष्ट देव सांकृत्यायन
इससे पहले : वर्चुअल दुनिया के रीअल दोस्त और आयाम से विधा की ओर
इस सत्र के बाद मेरे पुराने साथी अशोक मिश्र से मुलाक़ात हुई. मालूम हुआ कि अब वे वहीं विश्वविद्यालय की ही एक साहित्यक पत्रिका का संपादन कर रहे हैं. ज़ाहिर है, पुराने दोस्तों से
मिलकर सबको जैसी ख़ुशी होती है, मुझे भी हुई. हम लोग जितनी देर संभव हुआ, साथ रहे. प्रेक्षागृह के बाहर निकले तो मालूम हुआ कि अभी आसपास अभी कई निर्माण चल रहे हैं. ये निर्माण विश्वविद्यालय के ही विभिन्न विभागों, संकायों, संस्थानों और छात्रावासों आदि के लिए हो रहे थे. विश्वविद्यालय से ही जुड़े एक सज्जन ने बताया कि तीन साल पहले तक यहां कुछ भी नहीं था. जैसे-तैसे एक छोटी सी बिल्डिंग में सारा काम चल रहा था. राय साहब के आने के बाद यह सारा काम गति पकड़ सका और विश्वविद्यालय ने केवल पढ़ाई, बल्कि साहित्य-संस्कृति की दुनिया में भी अपनी धाक जमाने लायक हो पाया. अब तो टीचरों से लेकर स्टूडेंटों तक में (माफ़ करें, ये उन्हीं के शब्द हैं) काफ़ी उत्साह है. लोग इसे आपकी दिल्ली के जेएनयू से कम नहीं समझते. अच्छा लगा जानकर कि विश्वविद्यालय तरक्की की ओर है.
इससे पहले : वर्चुअल दुनिया के रीअल दोस्त और आयाम से विधा की ओर
इस सत्र के बाद मेरे पुराने साथी अशोक मिश्र से मुलाक़ात हुई. मालूम हुआ कि अब वे वहीं विश्वविद्यालय की ही एक साहित्यक पत्रिका का संपादन कर रहे हैं. ज़ाहिर है, पुराने दोस्तों से
मिलकर सबको जैसी ख़ुशी होती है, मुझे भी हुई. हम लोग जितनी देर संभव हुआ, साथ रहे. प्रेक्षागृह के बाहर निकले तो मालूम हुआ कि अभी आसपास अभी कई निर्माण चल रहे हैं. ये निर्माण विश्वविद्यालय के ही विभिन्न विभागों, संकायों, संस्थानों और छात्रावासों आदि के लिए हो रहे थे. विश्वविद्यालय से ही जुड़े एक सज्जन ने बताया कि तीन साल पहले तक यहां कुछ भी नहीं था. जैसे-तैसे एक छोटी सी बिल्डिंग में सारा काम चल रहा था. राय साहब के आने के बाद यह सारा काम गति पकड़ सका और विश्वविद्यालय ने केवल पढ़ाई, बल्कि साहित्य-संस्कृति की दुनिया में भी अपनी धाक जमाने लायक हो पाया. अब तो टीचरों से लेकर स्टूडेंटों तक में (माफ़ करें, ये उन्हीं के शब्द हैं) काफ़ी उत्साह है. लोग इसे आपकी दिल्ली के जेएनयू से कम नहीं समझते. अच्छा लगा जानकर कि विश्वविद्यालय तरक्की की ओर है.
अगला सत्र पूरी तरह तकनीकी था. सिद्धार्थ के
औपचारिक आह्वान के बाद शैलेष भारतवासी, आलोक कुमार और डॉ. विपुल जैन ने मोर्चा संभाला. ब्लॉग
कैसे बनाएं, किस तरह पोस्ट लिखें और कैसे उसे जन-जन (अगर सरकारें इसी तरह रोटी
महंगी कर लैप्टॉप और टैब्लेट बांटने का वादा करती रहीं और उसे पूरा भी करती रहीं,
तो यक़ीन मानें J
वह दिन दूर नहीं) तक पहुंचाएं, इस पर लंबी चर्चा हुई. ज़ाहिर है, अपनी समझ में
ब्लॉग बनाने और उस पर साहित्य ठेलने से अधिक कुछ समझ में आने वाला तो था नहीं, और
उतना अपन करी चुके हैं. इस बीच यह सूचना भी मिली कि कुलपति ने विश्वविद्यालय की ओर
हिंदी ब्लॉग्स का अपना एक एग्रीगेटर बनाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है. बेशक़,
इसमें थोड़ा समय लगेगा, लेकिन यह एक महत्वपूर्ण बात होगी. http://www.blogvani.com/ के बाद से
आई रिक्तता को भरने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है. इसमें कोई दो राय नहीं
कि हिंदी और साहित्य दोनों ही के विकास में इसका योगदान सुनिश्चित किया जा सकता
है, अगर बनने के बाद इसे ढंग से चलाया जाए तो. हालांकि पूरे आयोजन के दौरान फेसबुक-ट्विटर जैसे माइक्रोब्लॉग्स, जिन्हें सोशल नेटवर्किंग साइट भी कहा जा रहा है का ख़ौफ़ चिट्ठाकारों पर छाया रहा. लोगों को यह भय है कि कहीं इनके चलते ब्लॉगिंग की विधा पीछे न छूट जाए. वैसे इस भय को निराधार नहीं कहा जा सकत. लेकिन, कुलपति विभूति नारायण जी ने अपने संबोधन में चिट्ठाकारों को आश्वस्त किया. उनका मत था, 'जब टेलीविजन आया था, तब अख़बारों के बारे में लोग ऐसा ही सोचते थे. लेकिन घटे सिर्फ़ वो जिन्होंने अपने को अपडेट नहीं किया. जिन अख़बारों ने अपने को अपडेट कर लिया, उनका प्रसार सिर्फ़ बढ़ा ही है. मुझे तो यह लगता है कि फेसबुक-ट्विटर ब्लॉग की पठनीयता बढ़ाने के काम लाए जा सकते हैं.' इस बीच मनीषा पांडे भी आ गई थीं.
उन्होंने स्त्री विमर्श पर अपनी बात रखते हुए लिखने-पढ़ने की दुनिया में लड़कियों को
आगे आने के लिए कहा. अंत में कुलपति डॉ. विभूति नारायण राय ने प्रतिभागियों को
प्रमाण पत्र बांटे. विश्वविद्यालय में ही स्थित
मीडिया अध्ययन केन्द्र के निदेशक डॉ. अनिल के राय अंकित ने धन्यवाद ज्ञापन
किया और आयोजन के समापन की घोषणा हुई.
बाहर निकलने पर अशोक मिश्र ने फिर से राय साहब से
मिलवाया और उन्होंने तुरंत कहा, ‘आइए, आपको विश्वविद्यालय का संग्रहालय देखाते
हैं.’ शायद मनीषा जी की पहले ही उनसे इस विषय पर कुछ चर्चा चल रही थी. मुझे
अन्दाज़ा भी नहीं था कि यह कैसा संग्रहालय होगा. धारणा मेरी यही थी कि जैसे आम तौर
पर सभी संग्रहालय होते हैं, यह भी होगा. कुछ पुरानी मूर्तियां, कुछ तथाकथित बड़े
लोगों द्वारा उपयोग की गई चीज़ें.... ख़ैर, हम लोग (राय साहब, मनीषा और मैं) उनकी ही
गाड़ी से संग्रहालय के लिए चल पड़े. थोड़ी ही देर में हम सहजानंद सरस्वती संग्रहालय पहुंच भी गए. एक
अन्य वाहन से अंकित जी के साथ-साथ डॉ. अरविंद और अशोक जी भी पहुंचे. हालांकि उस
दिन रविवार होने के कारण संग्रहालय तो बंद था, पर कुलपति वहां पहुंच चुके थे,
लिहाजा किसी को उसे खोलने के लिए बुलवाया गया. जब तक वे आते, तब तक हम लोगों ने
उनका मीडिया लैब देखा. वाक़ई, अगर ढंग से काम किया जाए तो वहां से एक छोटा टीवी
चैनल एवं एफएफ बैंड चलाने तथा सापताहिक अख़बार निकाले जाने भर की व्यवस्था तो हो गई
है. इसी बीच मालूम हुआ कि मनीषा जी अपना कैमरा कहीं छोड़ आईं. उन्हें तुरंत किसी
वाहन से सभागार भेजा गया. थोड़ी देर बाद वह लौटीं तो मालूम हुआ कि उनका कैमरा
उन्हें मिल गया. अच्छा लगा जानकर कि अभी ईमानदारी की नब्ज पूरी तरह डूबी नहीं है. J थोड़ी देर हम
मीडिया अध्ययन केंद्र के निदेशक अंकित जी के कक्ष में भी बैठे. अंकित जी ने हमारे
लिए जल और चाय की व्यवस्था भी बनवाई.
इसके बाद संग्रहालय देखा गया. सचमुच, यह एक
अत्यंत समृद्ध संग्रहालय है. हिंदी के कई महत्वपूर्ण लेखकों की पांडुलिपियां, चिट्ठियां
और उनकी उपयोग की हुई कई तरह की सामग्रियां यहां संग्रहीत हैं. निश्चित रूप से यह
एक भागीरथ प्रयास का ही नतीजा हो सकता है. जब तक कोई निजी तौर पर रुचि लेकर इस
दिशा में अथक प्रयास न करे, ऐसा संकलन संभव नहीं है. यह सब देखने के बाद डॉ. राय
ने कहा कि चलिए अब आप लोगों को नज़ीर हाट दिखाते हैं. बीच में हम लोग थोड़ी देर
गांधी हिल पर भी ठहरे. नयनिभिराम दृश्य है वह. अलबत्ता राय साहब ने ख़ुद ध्यान
दिलाया कि यहां गांधी जी ख़ुद दुबले, लेकिन उनकी बकरी थोड़ी ज़्यादा मोटी बन गई है.
मुझे लगा कि निश्चित रूप से इस बकरी को इसका पूरा चारा J मिल गया है,
वरना क्या मज़ाल.... बीच में उन्होंने राहुल सांकृत्यायन केंद्रीय ग्रंथालय भी
दिखाया. हालांकि उसमें अंदर जाने की व्यवस्था आज नहीं हो सकती थी. वैसे भी शाम
ढलने के क़रीब आ गई थी. नज़ीर हाट भी उम्दा बाज़ार की शक्ल अख़्तियार कर रहा है. यहां
दुकानों के नाम भी ‘मसि-कागद’, ‘झकाझक’ जैसे दिलचस्प रखे हुए हैं. ये सारे नाम किसी
न किसी कविता या पद से लिए हुए ही हैं. विश्वविद्यालय की सड़क़ों, छात्रावासों,
अतिथि गृह से लेकर सभागारों तक के नाम किसी न किसी रचनाकार या हिंदीसेवी के नाम पर
रखे गए हैं. निश्चित रूप से यह हिंदीसेवियों के एक सुखद बात है. नज़ीर हाट में राय
साहब ने एक दुकान पर हमें वर्धा की ख़ास मिठाई गोरस पाक खिलाई. यह कुछ-कुछ
ग़ाज़ियाबाद में मिलने वाली नानखटाई जैसी चीज़ होती है. नागार्जुन सराय छोड़ते हुए
पूछा, ‘आप ठहरे कहां हैं?’ मैंने बताया, ‘अभी तक तो बुल्के बाबा की कुटिया में
हैं.’ उन्होंने कहा, ‘अब तक तो कई लोग जा
चुके हैं. नागार्जुन सराय में जगह ख़ाली हो गई होगी. देखते हैं, कोई कमरा ख़ाली हो
तो यहीं आ जाइए, सबसे अलग क्यों पड़े रहेंगे अकेले में!’ मैं तो ख़ुद यही चाहता था.
ख़ैर, उन्होंने पहुंचते ही किसी सज्जन को बुलाया और उन्हें मेरा सामान इधर शिफ्ट
करने का निर्देश जारी करके चले गए. मेरा सामान था ही क्या! कुल जमा एक बैग, वह मैं
ख़ुद लिए आकर बाबा की सराय में जम गया.
एक नयी दृष्टि अभिव्यक्ति के सिरों पर
ReplyDeleteधन्यवाद प्रवीण जी.
Deleteअगली किश्त में शायद कुलपति जी की ‘सीमित डिनर पार्टी’ में छिड़ी कल्चर और जेंडर बहस की चर्चा होगी।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिख रहे हैं संजोने लायक। शुक्रिया।
जी, सिद्धार्थ जी. अगली क़िस्त तो शायद कल दे सकूं. वैसे जेंडर और कल्चर की बहस किसी नतीजे तक पहुंच नहीं पाई थी. उसका ज़िक्र ठीक होगा क्या?
Deleteजो औरों ने नहीं लिखा वो आपने लिखा -जारी रखें!
ReplyDeleteशुक्रिया सर!
Deleteसुन्दर! आगे की कड़ी का इंतजार है!
ReplyDeleteसर, अगली कड़ी अब आप देख सकते हैं.
Deleteगोरस-पाक खाने में अपुन भी भागीदार हुए।
ReplyDeleteहां भाई! आप भी थे. अलबत्ता दूध पर आपने चर्चा भी छेड़ी थी और नींद से उसका संबंध भी जोड़ा था. फिर यह चर्चा बड़ी दूर तक चली गई थी........ :-)
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