Triambkeshwar Darshan
यात्रा वृत्तांत
त्र्यंबकं गौतमीतटे
--हरिशंकर राढ़ी
मृत्युभय से मुक्ति प्रदान करने वाले महामृत्युंजय मंत्र के आदि शब्द --ऊँ त्र्यंबकं यजामहे ...... निश्चित रूप से भगवान त्रयंबकेश्वर के महत्त्व को रेखांकित करते हैं। भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में त्रयंबकेश्वर की विशिष्ट महिमा है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार त्रयंबकेश्वर जैसा पवित्र स्थल, गोदावरी जैसी पवित्र नदी और ब्रह्मगिरि जैसा पवित्र पर्वत दूसरा नहीं है। गौतम ऋषि के तप से पावन और आंजनेय हनुमान के जन्म स्थल से दिव्य यह भूमि अद्भुत प्रभाव से युक्त है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में त्रयंबकेश्वर का स्थान महत्त्वपूर्ण है। मृत्युंजय की भावना को बल प्रदान करने वाले इस ज्योतिर्लिंग की यात्रा हर आस्थावान व्यक्ति करना चाहता है। इस तीर्थ की यात्रा मैं पहले भी 2007 में कर आया था। दूसरी बार जब द्वादश ज्योतिर्लिंग यात्रा के क्रम में घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग की यात्रा की योजना बनी तो त्र्यंबक उसमें फिर शा मल हो गया। दरअसल इस बार शिरडी जाने का भी मन था और ये सभी जगहें महाराष्ट्र में एक ही परिधि में पड़ती हैं। मित्र इष्टदेव जी सपरिवार सहयात्री थे। योजना के समय ही उन्होंने त्रयंबकेश्वर दर्शन की इच्छा व्यक्त की तो इसे पुनरावृत्ति के तौर पर मैंने जोड़ लिया।
तय यह किया गया कि सबसे पहले त्र्यंबक, वहां से वाया नासिक शिरडी साईंधाम, वहां से घृष्णेश्वर , फिर एलोरा एवं अजंता होते हुए दिल्ली वापस। यात्रा में लगने वाले दिनों की गणना करके तथा समयानुकूलन करके हमने आरक्षण करा लिया। पहला पड़ाव त्रयंबकेश्वर था जो नासिक जिले में पड़ता है। इसके लिए हजरत निजामुद्दीन से चलने वाली मंगला लक्षद्वीप एक्सप्रेस में नासिक रोड तक के लिए आरक्षण हो गया। पहली बार भी मैं इसी गाड़ी से गया था। त्र्यंबक नासिक रोड से लगभग चालीस किमी होगा।
त्रयंबकेश्वर मंदिर |
तय यह किया गया कि सबसे पहले त्र्यंबक, वहां से वाया नासिक शिरडी साईंधाम, वहां से घृष्णेश्वर , फिर एलोरा एवं अजंता होते हुए दिल्ली वापस। यात्रा में लगने वाले दिनों की गणना करके तथा समयानुकूलन करके हमने आरक्षण करा लिया। पहला पड़ाव त्रयंबकेश्वर था जो नासिक जिले में पड़ता है। इसके लिए हजरत निजामुद्दीन से चलने वाली मंगला लक्षद्वीप एक्सप्रेस में नासिक रोड तक के लिए आरक्षण हो गया। पहली बार भी मैं इसी गाड़ी से गया था। त्र्यंबक नासिक रोड से लगभग चालीस किमी होगा।
नासिक रोड रेलवे स्टेशन |
मंदिर के पास उतरकर हम एक होटल या धर्मशाला की तलाश में लगने ही वाले थे कि मुझे वही धर्मशाला दिख गई जिसमें पिछली यात्रा (जो लगभग चार साल पहले हुई थी) दिख गई। कुल मिलाकर रहने की व्यवस्था अच्छी थी, हमने दो कमरे लिए और नहाने-धोने के कार्यक्रम में लग गए। शीघ्र ही हम मंदिर में दर्शन की लाइन में थे। एक दो अवसरों को छोड़कर मैं इस मामले में भाग्यशाली रहा हूँ कि दर्शन के लिए मुझे कभी खास लंबी लाइन नहीं मिली। त्रयंबकेश्वर मंदिर के परिसर में कुछ विशेष ही अनुभूति होती है। शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में (जिनमें से 11 के दर्शन मैं कर चुका हँू ) त्र्यंबक की महिमा कुछ अलग ही है और परिसर में प्रवेश करते ही एक अलग प्रभाव का एहसास होता है। शिवमय वातावरण और मंत्रमय शांति कुछ ऐसा जरूर दे जाती है जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है, शब्द देना बहुत ही मुश्किल ।
दर्शन हो गए, ठीक से हो गए। मित्र इष्टदेव जी कुछ अधिक भक्तिभाव में सराबोर थे। त्रयंबकेश्वर जाएं और मंदिर में पूजा-अर्चना न हो, रुद्राभिषेक न हो, यह कैसे हो सकता है। समर्थन मेरा भी था, अस्तु एक पंडित जी से ‘भाव-ताव’ करके पूजा भी करवा ली। फिर मंदिर से बाहर आकर मंदिर की प्राचीनता, उसके वास्तु एवं ऐतिहासिक-पौराणिक महत्त्व का आकलन करने लगे।
धार्मिक दृष्टि से इस मंदिर का महत्त्व सबसे अलग एवं अधिक है। त्रयंबकेश्वर को छोड़कर शेष सभी ज्योतिर्लिंगों के अधिष्ठाता भगवान शिव अकेले हैं जबकि त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, पालनकर्ता विष्णु एवं संहर्ता रुद्र तीनों ही हैं। त्रिदेवों के एक ज्योतिर्लिंग में समाहित होने के पीछे एक कथा बताई जाती है। लिंगोद्भव कथा के अनुसार एक बार ब्रह्मा और विष्णु भगवान शिव की उत्पत्ति का रहस्य जानेने का प्रयास करने लगे। भगवान शिव ने स्वयं को ज्योतिपुंज के रूप में प्रकट किया किंतु अदृश्य ही रहे। ब्रह्मा जी ने असत्य बोला कि उन्होंने ज्योतिपुंज को देखा है। भगवान शिव इस झूठ पर क्रुद्ध हो गए तथा ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि पृथ्वीलोक पर उनकी पूजा नहीं होगी। प्रतिकार में ब्रह्मा जी ने भगवान शिव को श्राप दिया कि वे भूतल में समा जाएंगे। संभवतः उसी का परिणाम है कि त्र्यंबक स्थित ज्योतिर्लिंग धरातल से नीचे है। वर्तमान में लिंगदर्शन के लिए एक विशाल दर्पण लगाया गया है जिसमें ज्योतिर्लिंग का प्रतिबिंब दिखाई देता है। भक्त मूल ष्ज्योतिर्लिंग के दर्शन से प्रायः वंचित ही रह जाते हैं। वस्तुतः शिवलिंग धरातल से नीचे दबा हुआ है और गहराई में होने के कारण द्वार से दर्शन नहीं हो पाते। दर्पण की व्यवस्था से लिंग प्रतिबिंब रूप में आसानी से दिख जाता है।
त्रयंबकेश्वर एक अति प्राचीन ज्योतिर्लिंग है। सर्वप्रथम यहां मंदिर का निर्माण कब हुआ, यह अज्ञात है। वर्तमान मंदिर एक पुनर्निमाण है जिसे श्रीमंत बालाजी बाजीराव पेशवा जिन्हें नाना साहब पेशवा भी कहा जाता है, ने सन 1755 के मार्गषीश कृष्णपक्ष में प्रारंभ करवाया। इकतीस वर्षों के लगातार प्रयास से इसका निर्माण 1786 में संपन्न हुआ। कहा जाता है कि उस समय इसका निर्माण व्यय लगभग 16 लाख रुपये आया था। पूरा मंदिर काले पत्थरों से नागरा शैली में बना है। संरचना के आधार पर यह वर्गाकार है तथा बाहर से तारांकित है। मंदिर का कलश केवल ऊंचा ही नहीं अपितु स्वर्ण से सुशोभित है। अंतराल एवं गर्भगृह के मध्य मंडप है जिसमें प्रवेश के लिए चार द्वार बने हैं। द्वार पर सुंदर नक्काशी है तथा पूरा मंदिर अच्छे वास्तु का नमूना है। बाह्य दीवारें देवताओं, पशु -पक्षियों तथा यक्षों की आकृति से सजाई गई हैं। कहा जाता है कि पेशवा बाला जी के समय एक हजार रुपये का अनुदार मंदिर के रखरखाव एवं पूजा हेतु दिया जाता था। मंदिर में अंगुष्ठाकार तीन लिंग हैं जो ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के हैं। प्रतिदिन तीन पूजा तथा आरतियां होती हैं जबकि प्रदोष के दिन एक अतिरिक्त आरती की जाती है। गंगा का जल सदैव ही शिवलिंग पर प्रवाहित होता रहता है।
कुशावर्त सरोवर: त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग की कोई भी यात्रा कुशावर्त सरोवर केदर्शन -मज्जन के बिना अधूरी है। कुशावर्त गोदावरी नदी का प्रतीकात्मक उद्भव स्थल है। इस सरोवर में स्नान करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्ति पाकर मोक्ष प्राप्त करता है। गोदावरी का वास्तविक उद्भव स्थल निकट ही ब्रह्मगिरि की पहाडि़यों में है। वहां से कुशावर्त तक की यात्रा में गोदावरी लुकाछिपी का खेल खेलती एक अल्हड़ बालिका सी दिखाई देती है।
कुशावर्त का महत्त्व सिंहस्थ कुंभ के समय और भी बढ़ जाता है। कुशावर्त के चारो कोनों पर मंदिर हैं। उत्तर - पूर्व के कोनेपर गोदावरी तथा उत्तर-पश्चिम के कोने पर कुशेश्वर महादेव का मंदिर है। दक्षिण - पश्चिम कोण पर साक्षी विनायक मंदिर है जो सभी यात्रियों के यात्रा विधि के साक्षी हैं तो दक्षिण-पूर्व कोण पर केदारेश्वर महादेव का मंदिर जिनकी कृपा से गौतम ऋषि को गो-हत्या के पाप से मुक्ति मिली थी।
एक उद्गम यह भी |
यह नदी ब्रह्मगिरि पर्वत से निकलती है। जब ब्रह्मदेव भूलोक पर आए तो उन्होंने भगवान त्रिविक्रम की पूजा की जिससे वे भगवान शिव की जटा में रहने वाली गंगा की धारा को पृथ्वी पर ला सकें। गंगा शिव की पत्नी के रूप में आनंदमग्न थीं और वे पृथ्वी पर आना नहीं चाहती थीं। यह देखकर पार्वती ने निश्चय किया कि वे गंगा को किसी न किसी प्रकार अपने पति से दूर करेंगी। अपनी सखी जया और पुत्र गणेश के साथ वे गौतम ऋषि के आश्रम में रहने लगीं। कालांतर में चैबीस वर्षों तक अकाल पड़ा और प्राणिमात्र भूख से मरने लगे। ऋषि गौतम ने अपने तप से वरुणदेव को प्रसन्न कर लिया। उनके आश्रम में प्रतिदिन वर्षा होती। वे प्रतिदिन धान बोते एवं अपराह्न में काट लिया करते। उनका आश्रम त्रयंबकेश्वर के निकट था। वहां अनेक ऋषियों ने आश्रय लिया । गौतम ऋषि के बढ़ते पुण्यबल से इंद्र भयभीत हो गए। फलतः इंद्र ने चहुंओर खूब वर्षा करवाई और अकाल समाप्त हो गया। इसके बाद भी गौतम ऋषि के आग्रह पर ऋषिगण उनके आश्रम में रुके रहे। इस समय पार्वती ने अपनी योजना को क्रियान्वित किया। उनकी सखी जया गाय का रूप धारण कर धान की फसल चरने लगी। उसे भगाने के लिए गौतम ऋषि ने दर्भ घास फेंककर मारा जिससे गाय मृत्यु को प्राप्त हो गई। ऋषि को गोहत्या का पाप लगा। इस पाप से मुक्ति तभी मिल सकती थी जब ऋषि गंगा में स्नान करें।
ब्रह्मगिरि की सीढ़ियां |
अपनी पिछली यात्रा में गोदावरी का मूल उद्गम नहीं देख सका था। उस बाद समय का अभाव था, किंतु इस बार त्र्यंबक के लिए मैंने पूरा एक दिन रखा हुआ था जिससे मैं वहां पर सभी स्थलों को तसल्ली से देख सकूँ। साथ में इष्टदेव जी महराज थे जिनकी हल्की-फुल्की काया पर्वतारेाहण के लिए उपयुक्त है और पैदल चलने से नहीं घबराते। अतः परिवार को हिम्मत बंधाई और हम ब्रह्मगिरि की चढ़ाई में लग गए। मार्च के अंत में ही उस क्षेत्र में भयंकर धूप होने लग जाती है। ब्रह्मगिरि एक सूखा पहाड़ है अतः वहां हिमालय की तरह कोई सुहाने सफर की आशा हो ही नहीं सकती। फिर भी इच्छा तो इच्छा ही होती है और घुमक्कड़ी करना है तो सहन करना ही पड़ेगा।
चिलचिलाती धूप में हमने पहाड़ की खड़ी चढ़ाई शुरू की । पहले घने जंगल, ऊभड़-खाभड़ रास्ता और दूर-दूर तक हमारे अलावा और कोई नहीं। असली मुश्किल तो तब हुई जब पहाड़ को काटकर सीधी खड़ी सीढि़यों पर चढ़ने का क्रम आया। हाँ, पूरे रास्ते नींबू पानी वालों का जमावड़ा था और वही नींबू-पानी हमारे लिए प्राणरक्षक साबित हो रहा था। यह बात अलग है कि मेहनत के हिसाब से वे पैसे भी खूब वसूल रहे थे।
गोदावरी का वास्तविक उद्गम : पत्ते पर टपकती बूँदें |
आगे की यात्रा के लिए थोड़ी प्रतीक्षा करें
सभी की जय हो.
ReplyDeleteयात्रा करवा दी आप लोगो ने हमारी भी.
कुछ जड़ी बूटियों को घड़े में हल्दी के साथ बंद करके मैंने एक दवा तैयार की है जो बुढ़ापे के असर को अस्सी प्रतिशत तक कम कर देगी ,नये बाल उग जायेंगे ,टूटे दांत भी निकल सकते हैं हड्डियों और जोड़ों के सारे दर्द गायब हो जायेंगे। अगर आपको चाहिए तो फोन कीजिये मुझको।
त्रयंबकेश्वर मंदिर के बारे में जानकारी देने के लिए आपका धन्यवाद.
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