PANCHVATI AND NASIK
यात्रा वृत्तांत
गोदावरी उद्गम के दर्शन से संतुष्टि लेकिन उसके जन्मस्थल पर ही प्रदूषण से असंतुष्टि का भाव लेकर हम वापस चले। वापसी की यात्रा सुगम थी और सूर्य का ताप कम हो जाने से सुहावनी लग गई रही थी। इस क्षेत्र में लाल बंदरों की बहुतायत है। उतरते समय वे सीढि़यों पर उछल-कूद करते हुए अपने कौतुकों से सबका मनोरंजन कर रहे थे। एक बच्चे को धमकाकर एक कपि जी ने पानी की बोतल छीनी और महोदय उसका ढक्कन किसी समझदार आदमी की तरह खोलकर पानी पीने लगे। इसके बाद एक आम देशी नागरिक की तरह उन्होंने खाली बोतल बेपरवाह होकर किसी एक दिशा में उछाल दी ।
त्र्यंबक एक अद्भुत एवं दिव्य प्रभाव का तीर्थ माना जाता है। धार्मिक कर्मकांडों में श्रद्धा रखने वालों के लिए यह विशेष महत्त्व का स्थान है। बहुत से लोग यहां केवल कालसर्प योग की शांति के लिए ही जाते हैं। यहां त्रिपिंडी विधि पूजन होता है तथा नारायण नागबलि पूजा तो केवल त्र्यंबकेश्वर में ही होती है। त्र्यंबकेश्वर में शिवलिंग की पूजा रुद्री, लघु रुद्र, महारुद्र और अतिरुद्र मंत्रोच्चार के साथ की जाती है जो समस्त दैहिक , दैविक एवं भौतिक तापों का शमन करती है। गागा पूजन, गंगाभेंट , देहशुद्धि , प्रायश्चित , तर्पण, श्राद्ध एवं गोदान जैसे धार्मिक कर्म भी कुशावर्त क्षे़त्र में होते हैं। अब चूंकि इतने पूजन विधान त्र्यंबकेश्वर में होते हैं, इसलिए लोगों के भय एवं श्रद्धा का अनुचित दोहन करने वाले लोग भी वहां होंगे ही। त्र्यंबक क्षेत्र में पहुंचते ही ऐसे पंडे यात्री को घेरना शुरू कर देते हैं और बहुत से कातर लोग उनके झांसे में आ भी जाते हैं। परंतु यह भी ध्यान देने योग्य है कि मंदिर की व्यवस्था ट्रस्ट के अधीन है और ट्रस्ट की ओर से कोई लूट-पाट नहीं है। अतः उचित होगा कि यदि कोई पूजा करवानी है तो मंदिर के अंदर जाकर ही पुजारियों से बात करके कराना ठीक होगा।
पंचवटी में
-हरिशंकर राढ़ी
ब्रह्मगिरि से वापसी
अंजनेरी पर्वत का एक दृश्य |
त्र्यंबक एक अद्भुत एवं दिव्य प्रभाव का तीर्थ माना जाता है। धार्मिक कर्मकांडों में श्रद्धा रखने वालों के लिए यह विशेष महत्त्व का स्थान है। बहुत से लोग यहां केवल कालसर्प योग की शांति के लिए ही जाते हैं। यहां त्रिपिंडी विधि पूजन होता है तथा नारायण नागबलि पूजा तो केवल त्र्यंबकेश्वर में ही होती है। त्र्यंबकेश्वर में शिवलिंग की पूजा रुद्री, लघु रुद्र, महारुद्र और अतिरुद्र मंत्रोच्चार के साथ की जाती है जो समस्त दैहिक , दैविक एवं भौतिक तापों का शमन करती है। गागा पूजन, गंगाभेंट , देहशुद्धि , प्रायश्चित , तर्पण, श्राद्ध एवं गोदान जैसे धार्मिक कर्म भी कुशावर्त क्षे़त्र में होते हैं। अब चूंकि इतने पूजन विधान त्र्यंबकेश्वर में होते हैं, इसलिए लोगों के भय एवं श्रद्धा का अनुचित दोहन करने वाले लोग भी वहां होंगे ही। त्र्यंबक क्षेत्र में पहुंचते ही ऐसे पंडे यात्री को घेरना शुरू कर देते हैं और बहुत से कातर लोग उनके झांसे में आ भी जाते हैं। परंतु यह भी ध्यान देने योग्य है कि मंदिर की व्यवस्था ट्रस्ट के अधीन है और ट्रस्ट की ओर से कोई लूट-पाट नहीं है। अतः उचित होगा कि यदि कोई पूजा करवानी है तो मंदिर के अंदर जाकर ही पुजारियों से बात करके कराना ठीक होगा।
पहुंच एवं सुविधाएं
त्र्यंबकेश्वर शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में बहुत महत्त्वपूर्ण है, अतः यहां बड़ी संख्या में यात्री आते रहते हैं। नासिक में लगने वाले सिंहस्थ कुंभ की महिमा में भी त्र्यंबक का बड़ा योगदान है; इसी प्रकार सिंहस्थ कुंभ से भी त्र्यंबकेश्वर की यशोवृद्धि होती है। अतः यह स्थान आधुनिक सुविधाओं से युक्त है। निकटतम रेलवे स्टेशन नासिक रोड दिल्ली मुंबई रेलमार्ग का प्रमुख स्टेशन है जो त्र्यंबक से लगभग 40 किमी दूर है। नासिक रोड पर अधिकांश गाडि़यां ठहरती हैं। यहां से टैक्सी या बस द्वारा त्र्यंबक की दूरी तय की जा सकती है। त्र्यंबक सड़क मार्ग से नासिक से जुड़ा है जो कि महाराष्ट्र का एक बड़ा शहर है। नासिक मुंबई से 180 किमी है तथा शिरडी से 100 किमी। नासिक के महामार्ग बस अड्डे से महाराष्ट्र के प्रमुख शहरों के लिए बस सेवा उपलब्ध है। ठहरने के लिए हर प्रकार के होटल एवं धर्मशालाएं हैं।
त्र्यंबक से पंचवटी
त्र्यंबकेश्वर से नासिक जाने के लिए हमने एक टैक्सी कर ली और उससे तय हो गया कि वह हमें रामघाट पर उतार देगा। बीच में आंजनेरी पर्वत और अंजनी माता का मंदिर भी पड़ता है और वह हमें वहां भी रोकेगा। हालांकि मैं जानता था कि आंजनेरी पर्वत पर हम नहीं जा पाएंगे क्योंकि एक तो पर्वत कुछ दूर है तथा ऊंचा है। दूसरी बात कि कल की ब्रह्मगिरि की चढ़ाई से महिलाएं थकी हुई हैं और हमारे पास इतना समय नहीं कि रुक-रुककर चढ़ जाएं। आज ही शिरडी भी पहुंचना है, अतः आंजनेरी पर्वत फिर कभी। हां, अंजनी माता का मंदिर सड़क से सटा हुआ है, वहां आसानी से दर्शन हो सकता है।
रामघाट
नासिक शहर में रामघाट वह स्थल है जहां सिंहस्थ कुंभ का प्रमुख मेला लगता है। कहा जाता है कि इसी स्थान पर राम ने अपने पिता दशरथ का पिंडदान किया था। आज भी इस स्थान पर पिंडदान की परंपरा निभाई जाती है। इस घाट पर लोग नहाते हुए मिल जाएंगे। तुलनात्मक रूप से यहां गोदावरी का जल साफ है; लेकिन प्रदूषणमुक्त नहीं। थोड़ी देर तक भीड़ को निहार लेने और उस काल के विषय में सोच लेने के अलावा जब राम यहां आए होंगे, यहां कुछ खास नहीं बचता। कभी हरीतिमा रही होगी और गोदावरी एक स्वच्छ, निर्मल प्रवहमान जलस्रोत रही होगी, पर हमने इसे गंदे नाले में बदल देने में कितनी कसर छोड़ी ?
अब हमें यहां से पंचवटी का भ्रमण करना था। रामघाट पर एक सबसे अच्छी सुविधा यह है कि यहां क्लॉक रूम है जिसमें आप सामान्य शुल्क पर सामान जमा कराके भारमुक्त हो सकते हैं। यहां से पंचवटी का पूरा इलाका ढाई-तीन किलोमीटर की परिधि में होगा। यदि कोई पैदल चलने का शौकीन है तो उसके लिए पंचवटी भ्रमण कोई मुश्किल कार्य नहीं है। वैसे रामघाट से लेकर पंचवटी तक ऑटो वाले आपको घेरा डालेंगे और डेढ़ -दो घंटे में घुमाकर छोड़ देने का सौदा करेंगे। यह सौदा कुल मिलाकर ठीक-ठाक होता है। बीच-बीच में वे गाइड का भी कार्य करते रहते हैं। दोपहर हो चुकी थी। एक रेस्तरां में भोजन करने के उपरांत हमने पंचवटी की ओर प्रस्थान किया।
पहली बार पंचवटी की यात्रा करने वाला व्यक्ति अमूमन सोचता है कि यह एक हरा-भरा वनक्षेत्र होगा। आखिर, रामायण में लोगों ने यही तो पढ़ा है। कभी यह दंडक वन का एक हिस्सा था जहां भयंकर राक्षस घूमते रहते थे। अनेक प्रकार के हिंस्र पशु वनप्रदेष को भयावन बनाते थे। परंतु वे सब बातें अब कहां? पंचवटी के पांच वट अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्षरत हैं। शायद मन ही मन राम से प्रार्थना करते होंगे कि हे भगवान ! इन भूमाफियाओं से हमारे प्राणों की रक्षा करना। हर तरफ से ऊंची-ऊंची इमारतें इन्हें दबाए जा रही हैं। बीच में वट के पांच वृक्ष जिसके कारण यह स्थल पंचवटी कहलाया।
पञ्चवटी का एक वट |
इस स्थान पर एक कृत्रिम गुफा भी है जिसके विषय में जनश्रुति है कि जिस समय राम ने खर-दूषण से युद्ध किया था, लक्ष्मण सीताजी को लेकर इसी में छुपे थे। पास में ही कालेराम और गोरे राम का मंदिर है। कुछ दूर और चलिए तो एक नाला दिखता है। यही नाला लक्ष्मण रेखा के रूप में मान्यताप्राप्त है। नाले के पार एक छोटा सा मंदिर है जहां सीता लक्ष्मणरेखा पार करके निकलीं थीं और रावण को भिक्षा देने का प्रयास किया था। अंततः रावण ने उनका अपहरण कर लिया था। कुछ आगे और चलिए। एक हनुमान मंदिर है जिसके विषय में कहा जाता है कि यहां हनुमान जी पाताल तोड़कर निकले थे। यहां से आगे तपोवन शुरू होता है जहां लक्ष्मण ने सूर्पणखा का नासिका छेदन किया था। सूर्पणखा की एक विशाल धराशायी मूर्ति है जिसे देखकर बच्चों का मनोरंजन होता है। फिर आती है पर्णकुटी और गोदावरी का एक लघु संगम। पंचवटी की यात्रा पूरी। रह जाती है कुछ कसक। पर्णकुटी - जहां राम ने बनवास की लंबी अवधि काटी थी, उसके सामने गोदावरी बंधी हुई है। अतिरंजना नहीं है, यहां गोदावरी के जल से दुर्गंध आती है। पानी रुका हुआ, बिलकुल काला। नाक पर रूमाल देने की नौबत आ जाती है। क्या समय रहा होगा और क्या दृश्य रहा होगा जब राम अपनी पत्नी सीता एवं अनुज लक्ष्मण के साथ तपश्चर्या के दिन बिताए होंगे। इसी गोदावरी और उसके पार फैले जंगल ने उनके मन को कितना बांधा होगा।
राम यहां अगस्त्य मुनि की सलाह पर आए थे। शायद उनका लक्ष्य रहा होगा कि संपूर्ण भारत को देख लिया जाए; उसकी संस्कृति को समझ लिया जाए एवं आत्मसात कर लिया जाए। एक चक्रवर्ती राजा के लिए अपने राज्य के भूगोल और भौतिक-प्राकृतिक संपदा का वास्तविक ज्ञान होना ही चाहिए।
अगस्त्य मुनि को निश्चित रूप से दंडक वन की सुंदरता का ज्ञान रहा होगा, तभी तो उन्होंने राम को पंचवटी में रहने की सलाह दी। गोस्वामी तुलसी दास अरण्य कांड में इस प्रसंग का वर्णन करते हैं-
है प्रभु परम मनोहर ठाऊं। पावन पंचवटी तेहि नाऊं।।
दंडक वन पुनीत प्रभु करहू। उग्र शाप मुनिबर कर हरहू ।।
और ‘‘गोदावरी निकट प्रभु, रहे परन गृह छाइ।’’ जब ‘पर्णकुटी’ शब्द कानों में पडा तो तुलसी दास जी का ही कवितावली का प्रसंग भी याद आ गया, हालांकि इस पर्णकुटी और उस पर्णकुटी में बड़ा अंतर महसूस किया जा सकता है। गोस्वामी जी लिखते हैं-
पुर ते निकसीं रघुवीर वधू, धरि धीर दये मग में डग द्वै,
झलकीं भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गए मधुराधर वै,
फिर बूझति हैं चलनो अब केतिक, पर्णकुटी करिहौ कित ह्वै,
तिय की लखि आतुरता पिय की अंखिया अति चारु चलीं जल च्वै।
तब शायद सीता जी ने नहीं सोचा होगा कि एक पर्णकुटी यहां, इतनी दूर भी बनेगी, जहां से उनका हरण हो जाएगा। लेकिन अपनी भयंकरता के बावजूद दंडक वन सुंदर जरूर रहा होगा। ‘रामायण’ में महर्षि वाल्मीकि ने अगस्त्य मुनि के मुख से पंचवटी का वर्णन कुछ इस प्रकार कराया है-
इतो द्वियोजने तात बहुमूलफलोदकः।
देशो बहुमृगः श्रीमान् पंचवट्यभिविश्रुतः।।
... .... ...
अतश्च त्वामहं ब्रूमि गच्छ पंचवटीमिति।
स हि रम्यो वनोद्देशो मैथिली तत्र रंस्यते।।
(अरण्यकांड, त्रयोदश सर्ग)
मैं वहां बहुत देर तक तुलसीदास और महर्षि वाल्मीकि की पंचवटी को तलाशता रहा। उस समय की हरीतिमा को अपनी कल्पना में निहारता रहा। कितनी रातें, सुबहें, दोपहरी, बरसातें, शीत - घाम यहां पर राम ने देखा और भोगा होगा। इसी पर्णकुटी के बाहर वीरव्रती लक्ष्मण वीरासन में बैठे अपने कर्तव्य का आदर्श रखा होगा। कितनी सांय-सांय और भांय-भांय उन्होंने झेली होगी। मैथिलीशरण गुप्त ने उस दृश्य को कल्पना के किन नेत्रों से देखा होगा कि यह चित्र खिंच गया - ‘‘ जाग रहा है कौन धनुर्धर जबकि भुवन भर सोता है?’’
हे राम ! आपकी वही पंचवटी आज उजड़ गई है। जब आपके आदर्श, आपका त्याग, आपका धर्माचरण और आपका न्याय ही हमने अप्रांसगिक मान लिया तो आपकी पंचवटी क्या चीज है? आज तो हम लोकतंत्र में जी रहे हैं, राजतंत्र का अंत हो चुका है। राजतंत्र तो सदैव ही ‘निंदनीय’ रहा है। लोकतंत्र हमारा 'आदर्श ’ है, एक ऐसा तंत्र जिसमें न लेाक है और न तंत्र। इतना भी नहीं कि हम अपने आदर्शों की धरोहर ही संभाल सकें !
सुन्दर विवरण, हमें अपने स्थलों को स्वच्छ बनाना होगा।
ReplyDeleteThanks Pandey ji for your visit to the blog and comments.
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