शिरडी की ओर
हरिशंकर राढ़ी
पंचवटी की परिक्रमा कर चुकने के बाद हमारा अगला पड़ाव साईं का शिरडी धाम था। पर्णकुटी से वापसी करते समय मेरा मन उस काल की ओर भाग रहा था जिसे अभी इतिहासकारों द्वारा निश्चित नहीं किया जा सका है। इतिहासकार वैसे भी उन्हें कहां मानने को तैयार बैठे हैं ? उनके अस्तित्व को न मानने से शायद उन्हें आधुनिक एवं वैज्ञानिक सोच का तमगा बैठे - बिठाए मिल जाए ! चलिए मत मानिए उनके अस्तित्व को, उनके आदर्शों को तो मान लीजिए। एक ऐसे युग में पैदा हुए थे राम जब भारत एक विस्तारित देश था, भले ही अलग-अलग राजाओं के अधीन रहा हो। पूरे देश की एक संस्कृति थी, एक भाषा थी और सामान्यतः चहुँओर शांति थी। कुछ विशिष्ट लोगों के लिए विशिष्ट विज्ञान था, विकसित विज्ञान था। यह बात सच है कि यह विज्ञान सबके लिए नहीं था। आवागमन के साधन नहीं थे, संचार साधन नहीं थे और समाज सुविधाभोगी नहीं थे। अपने राज्य से हजारों मील दूर भयंकर दंडक वन में राम ने अपनी कुटिया बनाई और जंगल को अपनी तपस्या से बसने योग्य बनाया। भयंकर राक्षसों के बीच रहकर उनकी चुनौतियों को स्वीकारा, यह बात अलग है कि ये चुनौतियां उनके लिए बहुत मंहगी साबित हुईं। मगर आदर्श कौन - सी सस्ती कीमत पर बनते हैं ? यहीं से सीता का हरण हुआ और यहीं से उन्होंने स्त्री के सम्मान के लिए अपने संघर्ष की यात्रा शुरू की। अपनी विनम्रता, शौर्य एवं सद्व्यवहार से उन्होंने मित्र बनाए- ऐसे मित्र बनाए जो उनके लिए अपने जान की बाजी लगाकर रावण से लोहा लिए
सीताहरण के बाद राम ने पंचवटी से दुखी होकर दक्षिण दिशा में प्रस्थान किया था। उत्तर से वे यात्रा करते हुए आए थे और उन्हें इस बात का भान था कि वह क्षेत्र अब राक्षसी शक्तियों से मुक्त हो चुका था। ऐसी शक्तियां अब दक्षिण में सुदूर क्षेत्रों में ही हो सकती हैं। यही पंचवटी का क्षेत्र था जिसने उनका मन मोह लिया था और अब यहीं से उनके जीवन के संघर्ष की वास्तविक शुरुआत थी। यहां से वे पंपा सरोवर गए, शबरी से मिले और आतिथ्य स्वीकार किया। जन-जन के प्रति उनके मन में कितना मान था कि एक सामान्य सी, समाज के अंतिम बिंदु से आती एक अशिक्षित नारी की सलाह मानकर ऋष्यमूक पर्वत की ओर प्रस्थान किया और निर्वासन का जीवन जी रहे सुग्रीव से मित्रता की।
पर्णकुटी और पंचवटी क्षेत्र में ये सारे दृश्य आंखों के सामने सजीव हो जाते हैं। तमाम सजीव चित्रों को आंखों में लेकर हमने पर्णकुटी से वापसी की। वहां से ऑटो किया और रामघाट के लिए चल पड़े। हमारे ऐग - बैग रामघाट के अमानती सामानगृह में पड़े थे। बैग लेकर हमें नासिक स्थित महामार्ग बस अड्डा जाना था। शिरडी और मुंबई जैसी बड़ी जगहों के लिए बसें वहीं मिलती हैं। वहां पहुंचते ही टैक्सी और प्राइवेट बस वालों ने हमें घेरा। हम कुल नौ जने थे और एक टैक्सी वाला तो मात्र सात सौ रुपये में चलने के लिए तैयार हो गया। यह धनराशि बस के किराए के लगभग बराबर थी किंतु मुझे अनजान सी जगह और बड़े राजमार्गों पर टैक्सी में जाना स्वीकार नहीं हो पाता। सो मैंने महाराष्ट्र राज्य परिवहन की बस को वरीयता दी। नासिक से शिरडी एक सौ दस किलोमीटर है। यह दूरी बस ने मात्र दो घंटे में पूरी कर दी। बस के कंडक्टर का व्यवहार भी सरकारी छवि का नहीं था।
हम लोग शिरडी पहुंचे तो शाम के लगभग चार बज रहे थे। हमें बताया गया था कि शिरडी के होटल और रेस्तरां काफी महंगे होते हैं किंतु शिरडी साईं संस्थान के यात्री निवास बहुत अच्छे एवं तार्किक दर के होते हैं। सो बस अड्डे से पूछते-पाछते साईं संस्थान के नवनिर्मित यात्री निवास ‘द्वारावती भक्त निवास’ पहुंचे। बस स्टेशन से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर होगा यह भक्त निवास। बिलकुल किसी शानदार होटल सा दिखता है यह। समस्त आधुनिक सुविधाओं से युक्त। फॉर्म भरकर लाइन में लगे और हमें गैर वातानुकूलित कमरा पांच सौ रुपये में मिल गया। जगह-जगह लिफ्ट लगी हुई, साफ- सफाई में कोई कमी नहीं और कमरे अंदर से बड़े और सुसज्जित थे। सन् 2011 में यहां कॉफ़ी - चाय मात्र एक रुपये में ! बाकी का अंदाजा आप लगा सकते हैं।
खैर, नहा - धोकर हम साईं जी के दर्शन के लिए चल पड़े। अगली सुबह हमें घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग एवं एलोरा के लिए औरंगाबाद निकलना था, अतः दर्शन करके निवृत्त हो जाना आज ही आवश्यक था। फूल-मालाएं एवं प्रसाद लेकर हमने मंदिर में प्रवेश किया। सुरक्षा जांच से गुजरने के बाद से ही लाइन की व्यवस्था शुरू हो जाती है। देश के बहुत से मंदिरों में दर्शन के बाद लाइन और भीड़ नियंत्रण की पद्धति से मेरा मन कभी संतुष्ट नहीं हुआ था। निःसंदेह यहां भक्तों की सुरक्षा एवं व्यवस्था भगवान भरोसे होती है। परंतु शिरडी साईं मंदिर में भक्त भी महत्त्वपूर्ण हैं, ऐसा लगा। भारत के सर्वाधिक धनी मंदिर तिरुपति बालाजी में भी वह तंत्र नहीं है जो शिरडी में है, जबकि तिरुमला मंदिर में लाइन हेतु पर्चियों से लेकर ना जाने क्या - क्या दावे किए जाते हैं। बालाजी से याद आया कि राजस्थान में एक मेंहदीपुर बालाजी मंदिर भी है। मंदिर के महत्त्व एवं उसके प्रभाव को लेकर टिप्पणी करना तो बेमानी होगा किंतु वहां की लाइन व्यवस्था सबसे खराब कही जा सकती है। सप्ताहांत एवं विशेष अवसरों पर न जाने कितने भक्त बेहोश होकर गिरते होंगे, कितनों को चक्कर आते होंगे, कहा नहीं जा सकता।
शिरडी साईं के मंदिर में दर्शन में प्रायः समय लग जाया करता है क्योंकि तिरुपति बालाजी के बाद सबसे अधिक भक्त यहीं आते हैं। परंतु शिरडी साईं संस्थान ट्रस्ट ने अपनी जिम्मेदारी समझी है। लाइन के लिए एक बड़ा प्रतीक्षालय है जिसमें पंक्तिबद्धता की पूरी व्यवस्था है और बैठने के लिए स्टील की आरामदेह बेंचें लगी हैं। जगह -जगह शीतल जल का इंतजाम है तथा बड़ी - बड़ी टीवी स्क्रीन पर दर्शन का तात्कालिक दृश्य चलता रहता है। कुछ आगे जाकर लाइन में थोड़ा दबाव बढ़ता अवश्य है किंतु यह शायद एक आम भारतीय के स्वभाव के कारण होता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मंदिर में प्रतीक्षा कष्ट का पर्याय नहीं है।
साईं के दर्शन करने के उपरांत द्वारका माई का दर्शन आवश्यक सा ही होता है। यह वह स्थान है जहाँ साईं बाबा ने शुरुआत में डेरा जमाया था। कुछ खास नहीं था तब वहाँ। जीर्ण-शीर्ण अवस्था में एक मस्जिद थी यहां। कहा जाता है कि बाबा द्वारा जलाई गई धूनी सतत रूप से जल रही है और लोग भस्म (भभूत) को श्रद्धापूर्वक ले जाते हैं। वहाँ नीम का वह पेड़ भी मौजूद है जिसके नीचे बैठकर बाबा दीन दुखियों की सेवा करते थे। उन्होंने शिरडी में लगभग साठ वर्षों तक वास किया और 15 अक्टूबर, 1918 को साईं ने देहत्याग किया।
साईं के नाम के पीछे भी एक कथा बताई जाती है। यहां खडोबा मंदिर भी प्रसिद्ध है। जिस समय साईं बाबा वहां पधारे, मंदिर के पुजारी चिमड़ा नागरे जी ने एक तेजस्वी फकीर को देखकर अनायास ही कहा था,‘‘ आओ साईं!’’ और तभी से बाबा ‘साईं’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
शिरडी का बस स्टेशन क्षेत्र छाया : हरिशंकर राढ़ी |
दर्शनोपरांत रह - रहकर अनेक बातें मन में आती रहीं। यह एक ऐसे युग पुरुष का साधना स्थल है जो पूरे जीवन धन - वैभव के प्रति वितृष्णा के भाव सहित जीता रहा और संभवतः भारतीय जीवन दर्शन का एक प्रमुख सिद्धांत अपनाए रहा कि - ‘‘नाहं कामये मोक्षं न स्वर्गं न पुनर्भवम्। कामये दुःखतप्तानां प्राणिनां आर्तनाशनम्।’’ अर्थात् न मुझे स्वर्ग की इच्छा है और मोक्ष की। मैं तो दुख से तप्त प्राणियों की पीड़ा दूर करने की कामना करता हूँ। इससे बड़ा धर्म और इससे बड़ा कर्म मानवमात्र के लिए दूसरा हो ही नहीं सकता। यही वह कर्म है जिसने एक अज्ञातनामा व्यक्ति को भगवान का दर्जा दे दिया और आज भी वह हर पीडि़त के लिए आशा की किरण हैं, एक साक्षात भगवान हैं। हाँ, यह बात अलग है कि साईं के भक्तों में बहुत से ऐसे हैं जो पीडि़त नहीं हैं, आर्त नहीं हैं, कुछ हैं तो बस व्यापारी हैं। कुछ देकर कुछ मांगने आते हैं - एक प्रकार का बदलैन करने। एक ऐसा व्यवहार जिससे साईं जीवनभर दूर रहे। किसी को व्यापार बढ़ाना है तो किसी को विदेश जाना है। किसी ने किसी कार की मन्नत मान रखी है तो किसी को पॉश कॉलोनी में कोठी चाहिए। ऐसे ‘भक्तों की भीड़ में आर्तजन तो कहीं खो ही जाते हैं। परंतु साईं की नजरों से आर्तजन नहीं खोते, तभी तो हर वर्ग और हर धर्म के लोग इस छोटे से स्थान पर खिंचे चले आते हैं।
मंदिर से बाहर आए तो रात हो गई थी। रात का भोजन लेना था। हमें यह मालूम था कि मंदिर की तरफ से नाममात्र के शुल्क पर भोजन प्रसाद की व्यवस्था होती है। मंदिर के एक कर्मचारी से पूछताछ की तो पता चला कि सड़कपार से संस्थान की एक बस साईं भोजनालय तक भक्तों को निःशुल्क लेकर जाती है और यहीं लाकर छोड़ देती है। हमने सड़क पार की और बस में सवार हो गए। भोजनालय पहुंचकर फिर एक बार साईं दरबार की विशालता का अंदाजा हुआ। साईं भोजनालय की व्यवस्था वाकई बहुत बड़ी है। भोजनालय के बाहर टोकन काउंटर हैं जहां भक्त पंक्तिबद्ध होकर वांछित टोकन ले सकता है। यहां दो प्रकार के टोकन मिलते हैं - एक सामान्य टोकन जिसका शुल्क दस रुपये है और दूसरा विशिष्ट जिसका शुल्क 40 रुपये है। टोकन लेकर हॉल में प्रवेश कीजिए। इस हॉल की विशालता और व्यवस्था भी प्रंशसनीय है। बड़ी ही सफाई और स्नेह से यहां साईं का भोजन प्रसाद लीजिए।
साईं आश्रम छाया : गूगल से साभार |
कुल मिलाकर शिरडी एक ऐसा स्थल है जहां साईं का अस्तित्व महसूस किया जा सकता है। लगभग हर कदम पर माहौल साईंमय लगता है और वहां से चलते समय दोबारा आने की इच्छा जरूर जागती है।
कैसे पहुँचें ?
शिरडी एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुका है और यहां पर यातायात की अच्छी सुविधाएं उपलब्ध हैं। निकटतम रेलवे स्टेशन साईंनगर है किंतु यह पूर्णतया न तो विकसित है और न मुख्य मार्ग पर है। देश के तमाम बड़े शहरों से यहां पहुंचने के लिए या तो दिल्ली - मुंबई रेलमार्ग पर मनमाड में उतरा जा सकता है जो शिरडी से लगभग 60 किमी है या फिर कोपरगांव जो 45 किमी के आस-पास है। नियमित रेलगाडि़यां उपलब्ध हैं। सड़क मार्ग से शिरडी नासिक, औरंगाबाद एवं मुम्बई बई से जुड़ा है तथा राज्य परिवहन की बसें नियमित अंतराल पर चलती रहती हैं। नासिक से शिरडीकी दूरी 110 किमी, औरंगाबाद से 126 किमी, पुणे से 183 किमी तथा मुंबई से लगभग 200 किमी है।
सुन्दर और उपयोगी जानकारी
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