दवाई उद्योग का असली फार्म्युला
ये दो अलग-अलग विषयों पर की गई फेसबुकीय
टिप्पणियां हैं. टिप्पणियां अपने ही एक पोस्ट पर आशुतोष कुमार सिंह ने की हैं. ब्लॉग
की दुनिया से जुड़े लोग भी जान सकें, इस इरादे से इसे यहां दे रहा हूं.
हिन्दुस्तान के बाजारों में जो कुछ भी
बिक रहा है अथवा बेचा जा रहा है उसकी मार्केटिंग का एक बेहतरीन फार्मुला है भ्रम
फैलाओं, लोगों को डराओं और मुनाफा कमाओं। जो जितना भ्रमित होगा, जितना डरेगा उससे
पैसा वसूलने में उतना ही सहुलियत होगी। डर और भ्रम को बेचकर मुनाफा
कमाने की परंपरा तो बहुत पुरानी रही है, लेकिन वर्तमान में इसकी होड़ मची हुई
है। लाभ अब शुभ नहीं रह गया है। लाभालाभ के इस होड़ में मानवता कलंकित हो रही है।
मानवीय स्वास्थ्य से जुड़ी हुई दवाइयों को भी इस होड़ ने अपनी गिरफ्त में ले लिया
है। दवाइयों की भी ब्रान्डिंग की जा रही है। दवाइयों को लेकर कई तरह के भ्रम
फैलाएं जा रहे हैं। दवाइयों के नाम पर लोगों को डराया जा रहा है।
ब्रांडेड व जेनरिक दवाइयों को लेकर हिन्दुस्तान के मरीजों को भी खूब भ्रमित किया जा रहा है। मसलन जेनरिक दवाइयाँ काम नहीं करती अथवा कम काम करती हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हिन्दुस्तान में लिगली जो भी दवा बनती है अथवा बनाई जाती है, वह इंडियन फार्मा कॉपी यानी आईपी के मानको पर ही बनती हैं। कोई दवा पहले 'दवा' होती है बाद में जेनरिक अथवा ब्रांडेड। दवा बनने के बाद ही उसकी ब्रांडिंग की जाती है यानी उसकी मार्केटिंग की जाती है। मार्केटिंग के कारण जिस दवा की लागत 2 रुपये प्रति 10 टैबलेट है उपभोक्ता तक पहुँचते-पहुँचते कई गुणा ज्यादा बढ़ जाती है। फलतः दवाइयों के दाम आसमान छुने लगते हैं। ये तो हुई ब्रांड की बात। अब बात करते हैं जेनरिक की।
सबसे पहला प्रश्न यही उठता है कि जेनरिक दवा क्या है। इसका सीधा-सा जवाब है, जो दवा पेटेंट फ्री है वह जेनरिक है। इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मोहन की दवा कंपनी ने वर्षों शोध कर एक नई दवा का आविस्कार किया। अब उस दवा पर विशेषाधिकार मोहन की कंपनी का हुआ। इस दवा को ढूढ़ने से लेकर बनाने तक जितना खर्च होता है, उसकी बजटिंग कंपनी की ओर से किया जाता है। उसका खर्च बाजार से निकल आए इसके लिए सरकार उसे उस प्रोडक्ट का विशेषाधिकार कुछ वर्षों तक देती है। अलग-अलग देशों में यह समय सीमा अलग-अलग है। भारत में 20 तक की सीमा होती है। बाजार में आने के 20 वर्षों के बाद उस दवा के उस फार्मुले का स्वामित्व खत्म हो जाता है। ऐसी स्थिति में कोई भी दूसरी फार्मा कंपनी सरकार की अनुमति से उस दवा को अपने ब्रांड नेम अथवा उस दवा के मूल साल्ट नेम के साथ बेच सकती है। जब दूसरी कंपनी उस दवा को बनाती है तो उसी दवा को समझने-समझाने के लिए जेनरिक दवा कहा जाने लगता है। इस तरह से यह स्पष्ट होता है कि जेनरिक दवा कोई अलग किस्म या प्रजाति की दवा नहीं हैं। उसमें भी मूल साल्ट यानी मूल दवा वहीं जो पहले वाली दवा में होती है। केवल दवा बनाने वाली कंपनी का नाम बदला है, दवा नहीं बदली है।
वैसे भी पहले दवा ही बनती है, बाद में उसकी ब्रांडिग होती है। यदि भारत जैसे देश में जहाँ पर आधिकारिक तौर पर गरीबी दर 29.8 फीसद है या कहें 2010 के जनसांख्यिकी आंकड़ों के हिसाब से यहां साढ़े तीन सौ मिलियन लोग गरीब हैं। वास्तविक गरीबों की संख्या इससे काफी ज्यादा है। जहाँ पर दो वक्त की रोटी के लिए लोग जूझ रहे हैं, वैसी आर्थिक परिस्थिति वाले देश में यदि दवाइयों के दाम जानबूझकर ब्रांड के नाम पर आसमान में रहे तो आम जनता अपने स्वास्थ्य की रक्षा कैसे कर पायेगी!
सच तो यह है कि भारत में स्वास्थ्य को
लेकर न तो आम जनता सचेत है और न ही सरकारी स्तर पर ऐसा कुछ दिख रहा है। पिछले 65 वर्षों में सरकार
ने क्या किया है इसकी पोल रिसर्च एजेंसी अर्नेस्ट एंड यंग व भारतीय वाणिज्य एवं
उद्योग महासंघ (फिक्की) की ओर से जारी एक रिपोर्ट
में खुल कर सामने आया है। इस रिपोर्ट में स्वास्थ्य संबंधित जो मुख्य बातें बतायी
गयी है उसके मुताबिक लगभग 80 फीसदी शहरी परिवार और 90 फीसदी ग्रामीण
परिवार वित्तीय परेशानियों के कारण अपने वार्षिक घरेलू खर्च का आधा हिस्सा भी ठीक
से स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च नहीं कर पाते। सन् 2008 में किए गए अध्ययन के आधार पर जारी इस
रिपोर्ट में सबसे चौकाने वाला तथ्य यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित खर्च के
कारण भारत की आबादी का लगभग 3 फीसदी हिस्सा हर साल गरीबी रेखा के नीचे
फिसल जाता है। यहाँ पर यह भी ध्यान देने वाली बात है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर कुल
खर्च का 72 प्रतिशत केवल दवाइयों पर खर्च होता है। रिसर्च एजेंसी
अर्नेस्ट एंड यंग व फिक्की के संयुक्त तत्वाधान में जारी इस रिपोर्ट में
सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल लक्ष्य के बेहतर क्रियान्वयन के लिए एक रूपरेखा बनाने
की आवश्यकता पर सरकार का ध्यान आकृष्ट किया गया है। रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया
गया है कि अगर जीडीपी का 4 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर
खर्च किया जाए, तो अगले 10 सालों में सबके लिए सार्वभौमिक
स्वास्थ्य देखभाल लक्ष्य को हासिल किया जा सकेगा।
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि चीन एकमात्र ऐसा देश है जो अपनी विशाल जनसंख्या के कारण इसी तरह की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहा है, बावजूद इसके पिछले दो-तीन वर्षों में वह 84 फीसदी जनसंख्या को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने में सफल रहा है और फिलहाल जीडीपी का 5 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च भी कर रहा है। भारत में स्वास्थ्य पर जीडीपी का एक फीसदी भी ठीक से खर्च नहीं होता।
मुंबई में पिछले दिनों प्रतिभा जननी सेवा संस्थान की ओर से स्वस्थ भारत विकसित भारत अभियान के अंतर्गत चलाएं जा रहे जेनरिक लाइए पैसा बचाइए कैंपेन के तहत तीन-चार सभाओं में बोलने का मौका मिला था। मुंबई के पढ़े-लिखे लोगों के मन में भी जेनरिक को लेकर अजीब तरह का भ्रम था। किसी को लग रहा था कि ये दवाइयां सस्ती होती है, इसलिए काम नहीं करती। ज्यादातर लोग तो ऐसे थे जिन्होंने जेनरिक शब्द ही कुछ महीने पहले सुना था। कुछ लोगों को लग रहा था कि जेनरिक दवाइयां विदेश में बनती हैं। इसी संदर्भ में सामाजिक कार्यकर्ता अफजल खत्री ने एक वाकया सुनाया। उन्होंने बताया कि जब वे ठाकुर विलेज स्थित एक दवा दुकान पर गए और दवा दुकानदार से डायबिटिज की जेनरिक दवा माँगे तो वहाँ खड़ी एलिट क्लास की कुछ महिलाएं मुँह-भौ सिकुड़ते हुए उनसे कहाँ कि जेनरिक दवाइयां गरीबों के लिए बनती है, वो यहाँ नहीं मिलेगी किसी झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाके के दवा दुकान पर चले जाइए। अफजल खत्री के जिद पर दवा दुकानदार ने जेनरिक दवा उनको आखिरकार दी।
उपर की बातों से स्पष्ट हो जाता है कि आज भी हमारा पढ़ा-लिखा समाज सच्चाई जाने बिना आधे-अधूरे जानकारी के आधार पर किसी चीज के बारे में गलत-सही जो धारणा-अवधारणा बना लेता है, उसे त्यागने के लिए वह तैयार नहीं है। फिर भी हमारे लिए यह सुखद रहा कि जेनरिक दवाइयों के बारे में व्याप्त भ्रम के बारे में पूरी बात जानने के बाद ज्यादातर सभा में आए ज्यादातर लोग इस भ्रम से निकल चुके हैं।
(आशुतोष स्वस्थ भारत विकसित भारत अभियान चला रही प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान के राष्ट्रीय समन्वयक व युवा पत्रकार हैं। संपर्क-zashusingh@gmail.com)
स्वास्थ्य सबको देना है तो उनसे व्यापार कैसे किया जा सकता है?
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