आक्थू !!!
इष्ट देव सांकृत्यायन कहीं पान खाकर, तो कहीं गुटखा, कहीं तंबाकू खाकर और कहीं बिन कुछ खाए, ऐसे ही ... बेवजह... आक्थू! कहीं कूड़ा देखकर, तो कहीं गंदगी और कहीं बिन कुछ देखे ही, ऐसे ही मन कर गया..... लिहाज़ा .... आक्थू! चाहे रास्ता हो, या कूड़ेदान, स्कूल हो या तबेला, रेलवे या बस स्टेशन हो या फिर हवाई अड्डा, यहाँ तक कि चाहे बेडरूम हो या फिर तीर्थ ... जहां देखिए वहीं … आक्थू! हमारे लिए थूकदान कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे कहीं से ढोकर लाना या फिर किसी प्रकार का श्रम करना ज़रूरी हो। हम थूकने की क्रिया में असीम श्रद्धा और विश्वास के कारण जहां चाहते हैं वहीं और जिस चीज़ को चाहते हैं उसे ही अपनी सुविधानुसार थूकदान बना लेते हैं। शायद यही वजह है कि जिस तरह दूसरे देशों में हर मेज़ पर ऐश ट्रे यानी राखदान पाई जाती है, वैसे ही हमारे यहाँ कुछ सफ़ाईपसंद घरों में पीकदान या थूकदान पाया जाता है। यह अलग बात है कि वहाँ भी थूकदान का इस्तेमाल थूकदान की तरह कम ही होता है। यहाँ तक कि ख़ुद वे लोग भी, जो घर में सफ़ाई के मद्देनज़र थूकदान रखते हैं, बाहर निकलने पर सफ़ाई का ध्यान रखना ग़ैर ज़रूरी ही नहीं, ल...