पत्रकार, गिरगिट और झाड़ू की सींक
घर से निकला ही था कि देखा, मेरी फटफटिया के सीट पर गिरगिट जी विराजमान हैं. मैंने पूछा - कौन हैं सर आप? यहां कैसे विराज रहे हैं? आप तो इसे शायद चला भी नहीं पाएंगे?
उन्होंने मेरे किसी भी सवाल का जवाब देने के बजाय उलटा सवाल ठेल दिया - जर्नलिस्ट हो क्या बे? एक साथ इत्ते सारे सवाल .... और पहचानते भी नहीं मुझे?
मैंने कहा - हूं तो, पर आपने जान कैसे लिया?
'बिना सोचे-समझे इत्ते सारे सवाल कोई जर्नलिस्ट ही कर सकता है', उनका जवाब था, 'गनीमत है कि तुम प्रिंट मीडिया वाले लगते हो.'
मैं तो हैरान, 'आप तो महाज्ञानी हैं सर! ये भी आपने कैसे जान लिया...?'
'इसलिए कि तुम प्रासंगिक सवाल कर रहे हो. माइक-कैमरा वाले होते तो सवाल-जवाब दोनों के सिर-पैर से तुम्हारा कोई मतलब नहीं होता.'
'वाह! आप तो केवल अंतर्यामी ही नहीं, बुद्धिजीवी भी लगते हैं. ऐसी तार्किक सोच तो ज्ञानीजनों में भी दुर्लभ है.' मैंने स्तुति में नतमस्तक होते हुए अपनी शंका उनके समक्ष रखी, 'हे सर, अब तो अपना परिचय दें.'
‘अरे मूर्ख, अब तक नहीं पहचाना मुझे? मैं वही हूं जिसे 49 सर ने अपने चुनाव चिन्ह के रूप में मांगा है.’
‘ओह यानी आशुतोष दादा सही बता रहे थे?’
’तुम जर्नलिस्टों के साथ यही दिक़्क़त है. जो सही सूचना होती है, वह तुम्हें मज़ाक लगती है और जो मज़ाक होता है, पुख़्ता ख़बर लगती है. पता नहीं कैसे विश्वसनीय होते हैं तुम्हारे सूत्र.’
’अच्छा सर, लगे हाथ एक बात और बता दीजिए!’ मैंने विनती की.
‘पूछ, क्या जानना चाहता है.’
आयसु पाय भला मैं कहां चुप रहने वाला था. मैंने पूछा, ‘आपसे गले मिलने वाले वे दूसरे सज्जन कौन हैं, जिनके बारे में Manoj Sahu जी ने पूछा है.’
‘अबे बकलोल इतना भी नहीं समझता.....’ उन्होंने मेरी ओर रहस्यमय मुस्कान फेंकी, ‘सब मुझसे ही कहलवाएगा? ऐं?’
‘सर आप स्वयं कहें तो ज़्यादा अथेंटिक बात होगी न!’
‘ये ज़्यादा और कम अथेंटिक क्या होता है बे? अरे या तो अथेंटिक या ग़ैर-अथेंटिक!’ उन्होंने डपटा.
‘माफ़ करें सर, ग़लती हो गई,’ मैंने हाथ जोड़े, ‘पर मेरा ज्ञान तो बढ़ाइए.’
‘अरे वो और कौन हो सकता है उनके सिवा जिनके लिए मैंने चुनाव लड़ा था और जिनकी मदद से 49 दिन सरकार चलाई थी.
‘अच्छा सर, अब आप चलें. मुझे जल्दी दफ्तर पहुंचना है.’
‘ऐं, मैं क्यों चलूं? मैं तो यहां धरना देने आया हूं,’ वो तो अड़ ही गए.
मैंने कहा, ‘प्रभु, पर मैं तो एक अदना जर्नलिस्ट हूं. मेरे पास धरना देकर क्या मिलेगा आपको? मैं तो अपनी मांगे मानने की भी हैसियत में नहीं हूं. आपकी क्या मानूंगा?’
इससे पहले कि वे कुछ बोलते पड़ोसी का बच्चा झाड़ू की सीक लिए आ गया और उसे देखते ही वो........
उन्होंने मेरे किसी भी सवाल का जवाब देने के बजाय उलटा सवाल ठेल दिया - जर्नलिस्ट हो क्या बे? एक साथ इत्ते सारे सवाल .... और पहचानते भी नहीं मुझे?
मैंने कहा - हूं तो, पर आपने जान कैसे लिया?
'बिना सोचे-समझे इत्ते सारे सवाल कोई जर्नलिस्ट ही कर सकता है', उनका जवाब था, 'गनीमत है कि तुम प्रिंट मीडिया वाले लगते हो.'
मैं तो हैरान, 'आप तो महाज्ञानी हैं सर! ये भी आपने कैसे जान लिया...?'
'इसलिए कि तुम प्रासंगिक सवाल कर रहे हो. माइक-कैमरा वाले होते तो सवाल-जवाब दोनों के सिर-पैर से तुम्हारा कोई मतलब नहीं होता.'
'वाह! आप तो केवल अंतर्यामी ही नहीं, बुद्धिजीवी भी लगते हैं. ऐसी तार्किक सोच तो ज्ञानीजनों में भी दुर्लभ है.' मैंने स्तुति में नतमस्तक होते हुए अपनी शंका उनके समक्ष रखी, 'हे सर, अब तो अपना परिचय दें.'
‘अरे मूर्ख, अब तक नहीं पहचाना मुझे? मैं वही हूं जिसे 49 सर ने अपने चुनाव चिन्ह के रूप में मांगा है.’
‘ओह यानी आशुतोष दादा सही बता रहे थे?’
’तुम जर्नलिस्टों के साथ यही दिक़्क़त है. जो सही सूचना होती है, वह तुम्हें मज़ाक लगती है और जो मज़ाक होता है, पुख़्ता ख़बर लगती है. पता नहीं कैसे विश्वसनीय होते हैं तुम्हारे सूत्र.’
’अच्छा सर, लगे हाथ एक बात और बता दीजिए!’ मैंने विनती की.
‘पूछ, क्या जानना चाहता है.’
आयसु पाय भला मैं कहां चुप रहने वाला था. मैंने पूछा, ‘आपसे गले मिलने वाले वे दूसरे सज्जन कौन हैं, जिनके बारे में Manoj Sahu जी ने पूछा है.’
‘अबे बकलोल इतना भी नहीं समझता.....’ उन्होंने मेरी ओर रहस्यमय मुस्कान फेंकी, ‘सब मुझसे ही कहलवाएगा? ऐं?’
‘सर आप स्वयं कहें तो ज़्यादा अथेंटिक बात होगी न!’
‘ये ज़्यादा और कम अथेंटिक क्या होता है बे? अरे या तो अथेंटिक या ग़ैर-अथेंटिक!’ उन्होंने डपटा.
‘माफ़ करें सर, ग़लती हो गई,’ मैंने हाथ जोड़े, ‘पर मेरा ज्ञान तो बढ़ाइए.’
‘अरे वो और कौन हो सकता है उनके सिवा जिनके लिए मैंने चुनाव लड़ा था और जिनकी मदद से 49 दिन सरकार चलाई थी.
‘अच्छा सर, अब आप चलें. मुझे जल्दी दफ्तर पहुंचना है.’
‘ऐं, मैं क्यों चलूं? मैं तो यहां धरना देने आया हूं,’ वो तो अड़ ही गए.
मैंने कहा, ‘प्रभु, पर मैं तो एक अदना जर्नलिस्ट हूं. मेरे पास धरना देकर क्या मिलेगा आपको? मैं तो अपनी मांगे मानने की भी हैसियत में नहीं हूं. आपकी क्या मानूंगा?’
इससे पहले कि वे कुछ बोलते पड़ोसी का बच्चा झाड़ू की सीक लिए आ गया और उसे देखते ही वो........
Sahi Thonka hai !
ReplyDeleteअब ये लोग हर जगह ठुक ही रहे हैं. :-)
Deleteबहुत सही ..
ReplyDeleteधन्यवाद मोनिका जी!
Deleteमतलब झाड़ू के आते ही गिरगिट गायब हो लिया। तभी आजकल मोदी-समाज ने झाड़ू हाथ में ले लिया है।
ReplyDelete:)
क्या पता मोदी जी ने यही सोच कर झाड़ू उठाया हो! :-)
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