चिंता से चतुराई घटे
इष्ट
देव सांकृत्यायन
भारत
हमेशा से एक चिंतनप्रधान देश रहा है। आज भी है। चिंतन की एक उदात्त परंपरा यहाँ
सहस्राब्दियों से चली आ रही है। हमारी परंपरा में ऋषि-मुनि सबसे महान माने जाते
रहे हैं, इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यही रहा है कि वे घर-बार सब छोड़ कर जंगल चले
जाते रहे हैं और वहाँ किसी कोने-अँतरे में बैठकर केवल चिंतन करते रहे हैं। चिंतन
से उनके समक्ष न केवल ‘इस’, बल्कि ‘उस’ लोक के भी सभी गूढ़तम रहस्य खुल जाते रहे
हैं, जिसे वे समय-समय पर श्रद्धालुओं के समक्ष प्रकट करते रहे हैं। अकसर उनके
चिंतन से बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान भी निकल आता रहा है। कालांतर में चिंतन से एक
और चीज़ प्रकट हुई, जिसे चिंता कहा गया।
हाल
में आई कौलीफेर्निया यूनिवर्सिटी की एक स्टडी के अनुसार विशिष्ट जन के चिंता के
जाल में फंसने का सबसे पहला विवरण त्रेतायुग में पाया जाता है। भगवान राम के वनगमन
के बाद महाराज दशरथ ग़लती से चिंता कर बैठे और उसका नतीजा अब आप जानते ही हैं।
वास्तव में चिंता के साइड इफेक्ट का पता यहीं से चलना शुरू हुआ और इसके साथ ही इस
पर शोध भी शुरू हुए। शोधों का निष्कर्ष यह निकला कि चिंता बहुत ही ख़तरनाक टाइप चीज़
है। इससे फ़ायदा कुछ नहीं है, जबकि नुकसान हज़ारों। और तो और, इससे कई तरह की
बीमारियां भी हो सकती हैं। आयुर्विज्ञान विभाग वाले अनुसंधानकर्ताओं ने इससे हो
सकने वाली बीमारियों की जो सूची दी, उसमें ब्लड प्रेशर और डायबिटीज़ से लेकर हार्ट
अटैक तक का नाम शामिल था।
आनन-फानन
जनकल्याण विशेषज्ञों और साहित्य के आचार्यों को बुलाया गया और इस विषय में
जागरूकता फैलाने के लिए कोई प्रभावी उपाय निकालने को कहा गया। काफ़ी सोच-विचार के
बाद उन्होंने एक स्लोगन निकाला और उसे हवा में तैरा दिया। वह स्लोगन है – चिंता से
चतुराई घटे। वैसे इसे फैलाया तो हर ख़ासो-आम के लिए गया, पर जैसा कि आम तौर पर होता
है, आम लोगों में इसे समझ कम ही पाए। अलबत्ता वे और ज़्यादा इसके फेर में फंस गए।
जबकि ख़ास लोगों ने इसे ठीक से समझा और इसके फेर में फंसने से बचे। बाद में ग़ौर
किया गया कि कुछ ख़ासजन भी इससे बच नहीं पाए। आम तो अकसर और कभी-कभी ख़ास जन भी किसी
छोटी-मोटी ग़लती के कारण चिंता में फंसकर अपनी चतुराई घटाते रहे।
इसलिए
ज़रूरी समझा गया कि इसके उपचार का कोई उपाय निकाला जाए। काफ़ी शोध-अनुसंधान के बाद
मालूम हुआ कि दवा तो इसके मामले में कुछ ख़ास काम आती नहीं, हाँ एक उपाय ज़रूर है।
उपाय यह है कि यह जैसे ही हो उसे जता दिया जाए। उस ज़माने में चूंकि कामकाज बहुत
तेज़ गति से नहीं चलता था, इसलिए यह इतनी बात पता चलते-चलते बहुत देर लग गई। त्रेता
से द्वापर युग आ गया। द्वापर में आपने देखा ही कि किस तरह चिंता ने पितामह भीष्म
को आ घेरा। अच्छी बात यह रही कि उन्होंने लगातार आयुर्विज्ञानियों के निर्देशों का
पालन किया और उन्हें जब-जब चिंता ने घेरा, वह उसे जता देते रहे।
उसके
बाद तो हमारे देश में चिंता के फेर में पड़ते ही उसे जता देने का रिवाज़ सा चल पड़ा।
हमारे नए दौर के विशिष्ट जन तो उसके फेर में पड़ने से पहले ही उसे जता देते हैं।
आजादी के बाद से लेकर अब तक हम देखते आ रहे हैं कि विशिष्ट जन अकसर बहुत गंभीर
मसलों पर सामान्य से लेकर गंभीर और कभी-कभी अति गंभीर टाइप की भी चिंता जताते रहते
हैं। मामला चाहे बाढ़ का हो या अकाल का, महंगाई का हो या बेकारी का, दंगे का हो या
आतंकवाद का, या फिर पड़ोसी देशों द्वारा हमारे देश में घुसपैठ का ही क्यों न हो...
हमारे विशिष्टजन चिंता जताने में कोई कोताही नहीं बरतते। कई बार तो चिंता द्वारा
घेरे जाने से पहले ही उसे जता देते हैं। हालांकि जनता टाइप लोगों को चिंता जताना
पसंद नहीं आता। कई बार वे किसी विशिष्ट जन द्वारा चिंता जताए जाते ही चिढ़ जाते
हैं। कहते हैं, ये तो पहले वाले भी कर रहे थे, फिर आपकी क्या ज़रूरत थी? असल में
समझ ही नहीं पाते कि चिंता जताना अपने आपमें बहुत कुछ करना है। मेरी मानें तो आप
भी इस पर अमल करें। यानी कोई चिंता आपको घेरे, इससे पहले ही उसे जता दें। क्योंकि
चिंता से चतुराई घटे और आप जानते ही हैं, चतुराई घटने का आज के ज़माने में क्या
नतीजा हो सकता है।
(यह व्यंग्य दैनिक जागरण में प्रकाशित हो चुका है.)
खूब बढ़िया , अब चिंता करों न करो चिंतित दिखने का रिवाज ही चल पड़ा है
ReplyDeleteधन्यवाद मोनिका जी. वाक़ई बात-बात पर चिंता ही जताई जा रही है. :-)
Deleteशानदार चिंतनीय पोस्ट!
ReplyDeleteधन्यवाद पाण्डेय जी!
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ReplyDeleteHealth World
आपका हिंदी फीड जोड़ लिया गया है.
Deleteजोड़ लिया बंधु!
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