ग़ायब होने का महत्व
इष्ट
देव सांकृत्यायन
परिवेदना
के पंजीकरण और निवारण की तमाम व्यवस्थाएं बन जाने के बाद भी भारतीय रेल ने अपने
परंपरागत गौरव को बरकरार रखा है। देर की सही तो क्या, कैसी भी सूचना देना वह आज तक
मुनासिब नहीं समझती। जानती है कि हमसे चलने वाले ज़्यादातर लोग नौकरीपेशा हैं और वह
भी तीसरे दर्जे के। इनके पास उपभोक्ता फोरम जाने तो क्या, चिट्ठी लिखने की भी
फ़ुर्सत नहीं होती। ऊपर से शिकायत निवारण के हमारे विभिन्न तंत्रों ने इनकी पिछली
पीढ़ियों को इतने अनुभव दिए हैं कि समझदार आदमी तो अगर फ़ुर्सत हो, तो भी यथास्थिति
झेलते हुए मर जाना पसंद करे, पर शिकायत के लिए कोई दरवाज़ा न खटखटाए। ख़ासकर रेल के
संबंध में। वैसे भी, हमारे पास दुनिया देखने का जो इकलौता मुनासिब साधन है वह रेल
है, इसलिए अनुभव भी जितने हैं, सब रेल के ही दिए हुए हैं। तो जीवन का यह जो अनुभव
मैं आपसे साझा करने जा रहा हूं, यह भी रेल का ही दिया हुआ है और पूरे होशो-हवास
में बता रहा हूं कि मेरा अपना और मौलिक है।
हुआ
यह कि हम सफ़र में थे। सफ़र से एक और सफ़र पर निकलना था, लिहाज़ा ठहरने के लिए जो ठीया
चुना वह रेलवे स्टेशन के निकट का
था। पहली बार जब स्टेशन पहुंचे तो मालूम हुआ कि हमारी अगली ट्रेन 2 घंटे लेट है।
तय किया कि अभी इसी कमरे में पड़े रहते हैं, क्योंकि हमारा चेक आउट टाइम तीन घंटे
बाद का है। पर जब अगली बार निकले तो नए दिन का किराया शुरू हो जाने की पूरी
संभावना थी, लिहाज़ा सब साजो-सामान लेकर निकले। स्टेशन पहुंचने पर मालूम हुआ कि अब
ट्रेन तीन घंटे और लेट हो गई है। लेकिन, अब निकलते तो जाते कहाँ? लिहाज़ा वहीं
वेटिंग रूम में डेरा डाल दिया। इस तीन घंटे बाद फिर मालूम हुआ कि अब ट्रेन छह घंटे
और लेट हो गई है। अब तक तो जैसे-तैसे बच्चों को चिप्स-कुरकुरे-कोल्ड ड्रिंक के दम पर
रोक रखा था, पर अब बच्चे मानने वाले नहीं थे। जैसा कि भारत में आम तौर पर होता है,
बड़े अपने बड़प्पन के खोल में दुबके पड़े रहें तो पड़े रहें, पर बच्चों को दूसरे बच्चे
मिलते ही सारी दीवारें कूद-फांदकर अपने बचपन के मैदान में निकलते देर नहीं लगती।
वहाँ उन्हें ट्रेन के इंतज़ार में बोर होते दूसरे बच्चे मिले और वे चल पड़े हाइड एंड
सीक खेलने।
ग़ौर
किया तो पता चला, यह वही खेल है जिसे हम अपने बचपन में आइस-पाइस कहा करते थे। एक
बच्चे ने अपनी आँखें बंद कीं और बाक़ी ग़ायब। अब बेचारा वो ढूंढे बाकी को। एक वह है
जिसकी तलाश किसी को नहीं है, और उसे सबकी तलाश है। उस बच्चे की स्थिति वैसी ही हो
जाती है, जैसी हमारे देश के ज्ञात इतिहास में ईमानदारी की चली आ रही है। यहाँ वही
महत्वपूर्ण होते हैं जो ग़ायब हो जाते हैं। जो सामने रहते हुए क़तई महत्वपूर्ण नहीं
होते, ग़ायब होते ही बेहद महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इसीलिए कई लोग, जो महत्वपूर्ण
होने के लिए पहले ग़ायब नहीं हो पाते, महत्वपूर्ण होने के बाद ग़ायब होना सीख लेते
हैं। इस तरह के महत्वपूर्णों की पहली कटेगरी में संत-महात्मा आते हैं। वे
महत्वपूर्ण ही इसलिए माने जाते हैं क्योंकि उन्हें सबके बीच से बैठे-बैठे ग़ायब हो
जाना आता है। इसे वे अंतर्धान हो जाना बोलते हैं। महत्वपूर्णों की एक दूसरी कटेगरी
भी है, जिसमें जनप्रतिनिधि, सरकारी अफसर और बाबू लोग आते हैं। ये पहले महत्वपूर्ण
बनते हैं, फिर ग़ायब हो जाते हैं। बाद में ग़ायब होने का यह आशय बिलकुल न लगाएं कि
इनकी महत्वपूर्णता का इनकी ग़ायबता से कोई संबंध नहीं है। संबंध है।
संबंध
ऐसे है कि जब ये ग़ायब हो जाते हैं तो इनका महत्व और ज़्यादा बढ़ जाता है। हालांकि
बढ़ता हुआ यह महत्व एक दिन चूक जाता है और तब इन्हें फिर से प्रकट होना पड़ता है। जब
ये प्रकट होते हैं तो अपने साथ कई और महत्वपूर्ण रहस्य भी ले आते हैं प्रकट करने
के लिए। हर बार इन रहस्यों की वृत्ति-प्रकृति सब अलग-अलग होती है और हर बार नए-नए
रहस्यों का साक्षात्कार कर जनता दंग रह जाती है। इसके बाद वह फिर अपने विवेकानुसार
कुछ को महत्वपूर्ण बनाती है और कुछ को नहीं बना पाती। जिन्हें वह दुबारा
महत्वपूर्ण बना देती है, वे अपना महत्व और-और बढ़ाने के लिए फिर ग़ायब हो जाते हैं;
जिन्हें नहीं बना पाती, वे ग़ायब भी नहीं होते। वे फिर अगले अवसर तक के लिए प्रकट
रहते हैं। तब तक जब तक कि वे फिर से महत्वपूर्ण न बन जाएं। और महत्वपूर्ण बनते ही,
आप तो जानते हैं, फिर से ग़ायब होना उनकी मजबूरी हो जाती है।
जैसा
कि आप जानते ही हैं, आज़ादी के बाद हमारे देश में अगर सबसे ज़्यादा महत्व किसी का
बढ़ा है तो वो हैं फाइलें। आदमी हो न हो, उसकी फाइल होनी चाहिए। हृदय परिवर्तन के
पक्षधर हमारे लोकतंत्र ने मनुष्य में सुधार की संभावना को कितना ठीक से पहचाना है,
इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि हमारे यहाँ अगर फाइल में कोई ग़लती हो
जाए तो उसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। फाइल के हिसाब से आदमी को सुधरना
पड़ता है। क्योंकि फाइल तो कभी ग़लत होती ही नहीं। पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश
की फाइलों को भी अपनी इस महत्वपूर्णता का भान हो गया है और इसके साथ ही उन्हें
ग़ायब होने से महत्व बढ़ने के संबंध का भी पता चल गया। ख़ैर, नतीजा वही हुआ जो होना
था। अब अपना महत्व बढ़ाने के लिए फाइलों ने भी ग़ायब होना सीख लिया है। यह कला सीखते
ही उन्होंने अपना महत्व बढ़ाना शुरू कर दिया है। पहले कुछ कोयला खदानों की फाइलों
ने सोचा कि सचिवालय में हमारा क्या काम! और वे वहाँ से उठकर कोलियरी की ओर कहीं
चली गईं। बहुत तलाशा लोगों ने, पर वे मिलीं नहीं। फिर कुछ खेल से संबंधित फाइलों
ने महसूस किया कि सचिवालय में बैठे-बैठे उनका दम घुट रहा है। लिहाज़ा वे भी किसी
मैदान की ओर कूच कर गईं। खिलाड़ी उन्हें तलाशने की कोशिश में जुटे हुए हैं, पर अभी
तक उनका कुछ अता-पता चला नहीं। शायद तलाशने वाले हमारी तरह आइस-पाइस के खिलाड़ी हैं
और फाइलें निशानेबाजी और कबड्डी वग़ैरह से संबंधित हैं। वे कबड्डी के मैदान की ओर
रुख नहीं करेंगे और ये आइस-पाइस से मिलने वाली नहीं हैं। ख़ैर, हमें क्या? अभी पता
चला है, कुछ चार्जशीट वाली फाइलें ग़ायब हो गई हैं। पता नहीं, वो चार्ज होने की
हैं, या लेने की, या देने की या फिर करने की। बहरहाल जो भी हो, पर अब ग़ायब हो गई
हैं तो महत्वपूर्ण मान ली जानी चाहिए।
मेरे
एक मित्र बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से देशप्रेम की भावना घट रही है। मेरे जैसा
कमअक्ल आदमी इसका अर्थ यह लगाता है कि देश का महत्व घट रहा है। हे भगवान, कहीं अगर
देश ने अपना महत्व बढ़ाने की ठान ली....?
कोहरा है। ट्रेनें तो लेट हैं। इत्ती लेट कि उनकी जोड़ी की सेवा केंसिल करनी पड़ रही है। यानी गायब। मनई भी कोहरे में गायब सा हो रहा है।
ReplyDeleteबाकी आइस-पाइस का समय भी खतम होगा।
>> यह बगल की खिड़की में हमारे ब्लॉग की फीड बदल कर http://halchal.org/feed/ कर दी जिये अंन्यथा वह 3 साल पुरानी पोस्ट दिखा रहा है!
जी ज़रूर! तुरंत बदलते हैं. :-)
Deleteधन्यवाद! :)
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