गढ़ तो चित्तौडग़ढ़...
इष्ट देव सांकृत्यायन
गढ़ तो चित्तौडग़ढ़,
बाक़ी
सब गढ़ैया... यह कहावत और इसके साथ-साथ मेवाड़ के महाराणाओं की शौर्यगाथाएं बचपन
से सुनता आया था। इसलिए चित्तौड़ का गढ़ यानी क़िला देखने की इच्छा कब से मन में पलती आ रही थी, कह नहीं सकता। हां, मौक़ा अब जाकर मिला, अगस्त में। जिस दिन कार्यक्रम सुनिश्चित
हो पाया, तब तक रेलवे
रिज़र्वेशन की साइट दिल्ली से चित्तौडग़ढ़ के लिए सभी ट्रेनों में सभी बर्थ फुल बता
रही थी। जैसे-तैसे देहरादून एक्सप्रेस में आरएसी मिली। उम्मीद थी कि कन्फर्म हो
जाएगा, पर हुआ नहीं। आख़िर ऐसे
ही जाना पड़ा, एक बर्थ पर दो
लोग। चित्तौडग़ढ़ पहुंचे तो साढ़े 11 बज रहे थे। ट्रेन सही समय पर पहुंची थी। स्टेशन के प्लैटफॉर्म से
बाहर आते ही ऑटो वालों ने घेर लिया। मेरा मन तो था कि तय ही कर लिया जाए, पर राढ़ी
जी ने इनके प्रकोप से बचाया। उनका कहना था कि पहले कहीं ठहरने का इंतज़ाम करते हैं।
फ्रेश हो लें और कुछ खा-पी लें, फिर सोचा जाएगा। इनसे बचते हुए सड़क पर पहुंचे तो
सामने ही एक जैन धर्मशाला दिखी। यहां बिना किसी झंझट के कम किराये पर अच्छा कमरा
मिल गया। रेलवे स्टेशन के पास इतनी अच्छी जगह मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
फ्रेश होने और नाश्ता आदि करने के बाद क़रीब एक बजे हम
लोग निकल पड़े क़िले की ओर।
दूरी कुछ ख़ास नहीं है, लेकिन ऑटो वाले ने अपने वादे के विपरीत बस स्टैंड से थोड़ा आगे ले
जाकर छोड़ दिया। वहां से हमें दूसरा ऑटो पकडऩा पड़ा, जो हमें क़िले की ओर ले
चला। थोड़ी दूर आगे चलते ही क़िला शुरू हो गया।
पहले पाडल पोल, फिर हनुमान पोल, इसके बाद जोरला और अंत में राम पोल। इससे
थोड़ा और आगे ले जाकर उसने हमें छोड़ दिया। थोड़ी दूर पैदल चलने के बाद सामने फतेह
प्रकाश महल था। बड़े से क्षेत्र में फैला कभी महल रहा यह भवन अब राजकीय संग्रहालय
बन चुका है। इसके परिसर में बड़ी संख्या में ऊंट और घोड़े लिए लोग खड़े थे। साथ
में पारंपरिक वस्त्रों की कई दुकानें भी थीं। पहले तो हमें लगा कि ये भी घोड़े और
ऊंट से टूर कराने वाले हैं और कपड़े भी शायद बिकने के लिए हों, पर बाद में ग़ौर करने पर मालूम हुआ कि ये फ़ोटो खिंचाने के
शौक़ीन लोगों के लिए हैं। घोड़े और पारंपरिक
वस्त्राभूषणों से लेकर बंदूकें तक यहां थोड़ी देर के लिए किराये पर उपलब्ध हैं।
बहुत लोग यहां महाराणा प्रताप से लेकर सुलताना डाकू तक बनने का अपना शौक़ पूरा कर रहे थे। चूंकि साथ में गाइड कोई नहीं था और स्थानीय गाइड जो
करता है, वह हम बख़ूबी
जानते भी हैं, लिहाज़ा स्वयं
आसपास का जायजा लेने हम लोग महल के पिछवाड़े चले गए। पीछे दूर-दूर तक फैला मैदान
और खंडहर ही दिख रहे थे। कैसे और किधर जाया जाए तो सब कुछ देखा जा सकता है, इसका कुछ अंदाजा नहीं हो पा रहा था।
इतनी बार बसे-उजड़े
क़िले जैसा वहां कुछ दिख ही
नहीं रहा था। एक बार तो हमें ऐसा लगा गोया हम बेवजह ही आ गए इतनी दूरी तय करके। बस
नाम ही नाम है। थोड़े दिनों पहले मैंने क़िले की जर्जर
हालत उसके संरक्षण के लिए केंद्रीय खनन एवं ईंधन अनुसंधान संस्थान तथा केंद्रीय
भवन अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के प्रयासों की ख़बर भी पढ़ी थी। जिसमें कहा
गया था कि अलाउद्दीन खिलजी के हमले से क्षतिग्रस्त हुआ यह दुर्ग अब प्रदूषण के
आक्रमण से त्रस्त है। हमें लगा,
कहीं
उत्खनन से उपजा प्रदूषण 7वीं शताब्दी के
इस अंतरराष्ट्रीय धरोहर को पूरी तरह खा ही तो नहीं गया। हमारा इरादा सबसे पहले
विजय स्तंभ और फिर पद्मिनी महल देखने का था, जिसका कोई रास्ता अपने-आप से पता नहीं चल रहा था। इसी बीच एक दुकानदार
से बात हुई तो उसने बताया कि क़िले का असली
नज़ारा तो आपको विजय स्तंभ से ही मिलेगा और वह यहां से लगभग तीन किलोमीटर दूर है।
रास्ता पूछने पर मालूम हुआ कि सामने बाईं तरफ़ जा रही सड़क से सीधे चले जाएं। इसी पर आपको सारी धरोहरें दिख
जाएंगी। यह मालूम हो जाने के बाद हमने तय किया कि अब पहले संग्रहालय ही देख लेते
हैं। संग्रहालय में प्रवेश के टिकट लिए गए और हम अंदर।
इस दोमंजि़ले महल का निर्माण उदयपुर के महाराणा फतह सिंह ने करवाया
था। इस महल का निर्माण 20वीं शताब्दी के
शुरुआती दौर में करवाया गया। बाद में 1968 में इसी भवन में राज्य सरकार द्वारा संग्रहालय स्थापित किया
गया। इस संग्रहालय में मध्यकाल में राजाओं द्वारा इस्तेमाल की गई विभिन्न वस्तुओं
से लेकर पाषाण काल की कई कलाकृतियां तक मौजूद हैं। इसके संग्रह में शामिल सिक्के, कलाकृतियां, मूर्तियां,
अस्त्र-शस्त्र
और लकड़ी की बनी कई चीज़ें न केवल दुर्ग और मेवाड़ के प्राचीन वैभव, बल्कि इसके संघर्ष का भी साक्षात्कार
कराती हैं। चित्तौड़ की नियति बहुत कुछ दिल्ली जैसी रही है, बार-बार बसने, बसकर उजडऩे और फिर बसने की। शौर्य, षड्यंत्रों, युद्ध, नीति-अनीति, सत्ता संघर्ष, राजनीति-कूटनीति और पारिवारिक विखंडन के
साथ-साथ युद्धों और जौहर में जाने कितने प्राणों की आहुतियों के जितने दौर इस क़िले ने देखे हैं, उन्हें देख और
महसूस कर तो ख़ुद काल का मन भी टूट कर रह जाए। गहलोत वंश के राजाओं द्वारा स्थापित
इस क़िले पर पहले सिसौदिया राजाओं का क़ब्ज़ा हुआ। सिसौदिया लोगों की अलाउद्दीन से लंबी लड़ाई चली और आख़िरकार
वह हार गया। फिर अकबर से लंबी लड़ाई चली, जो छल-बल का प्रयोग कर अंतत: जीत गया। यही वह क़िला है, जिसने राणा
कुंभा, राणा सांगा और महाराणा
प्रताप का शौर्य देखा है, इसी ने पन्ना
धाय का बलिदान देखा और इसी ने बनवीर की गद्दारी भी देखी है। संग्रहालय में मौजूद
वस्तुओं का बारीक़ी से निरीक्षण करें तो
इसे आप महसूस कर सकते हैं।
फतह प्रकाश महल के बीच में एक बड़ा सा आंगन है, जहां कई पर्यटक बैठे आराम करते मिले। इस
आंगन में दो पेड़ भी लगे हैं और बीचोबीच एक छतरी भी है। यहां से बाहर निकल कर एक
चने बेचने वाले से हमने विजय स्तंभ और रानी पद्मिनी महल जाने का रास्ता पूछा। उसने
बताया, 'सामने ही जो सड़क दिख
रही है, उस पर बाईं तरफ़ मुड़ कर सीधे चले जाएं। इसी रास्ते पर आपको यहां के सभी दर्शनीय मिल
जाएंगे।’ और हम चल पड़े।
बमुश्किल एक किलोमीटर आगे चल कर सड़क के बाएं हाथ सतबीस देवरी है। वस्तुत: यह एक
भव्य जैन मंदिर है। इसमें एक मुख्य मंदिर भगवान श्री महावीर जी का है, इसके अलावा तीन मंडपों में विभक्त इस
मंदिर में कुल 27 मंदिर हैं। एक
परकोटे के अंदर ऊंची जगती पर स्थापित इस मंदिर का निर्माण विक्रम संवत 1505 (सन् 1448 ई.) में हुआ था। इस
मंदिर में एक कल्पवृक्ष भी है।
शौर्य का प्रतीक
यहां से लगभग दो किलोमीटर और आगे चलने पर सड़क से दाएं हाथ विजय
स्तंभ है। बहुत बड़े परिसर में मौजूद इस स्तंभ का निर्माण 1448 ई. में ही कराया गया था।
मालवा के सुल्तान पर विजय की स्मृति में निर्मित इस स्तंभ को महाराणा कुंभा ने
भगवान विष्णु को समर्पित किया था। इस बड़े परिसर के ही एक हिस्से को जौहर स्थल के
रूप में चिन्हित किया गया है। इसके पीछे कुछ छोटे-छोटे मंदिरों के अवशेष हैं और एक
मंदिर भी है। अंदर पहुंच कर मालूम हुआ कि लोग ऊपरी तल तक जा भी सकते हैं, लेकिन इसके लिए टिकट लेना होगा। मुश्किल
यह थी कि टिकट यहां नहीं, प्रवेश द्वार पर
मिलता है। पद्मिनी महल में प्रवेश के लिए भी वहीं से टिकट मिलता है, अन्यथा उसे भी बाहर से ही देखकर लौटना
पड़ेगा। मजबूरन फिर से वापस लौटना था। मैं तो उसी परिसर में ठहर कर वहां उपलब्ध
पुरातत्व संपदा देखने लगा, लेकिन मेरे दो
साथी श्री हरिशंकर राढ़ी और श्री बद्री प्रसाद यादव वहां से टिकट घर के लिए लौट गए।
क़रीब तीन किलोमीटर से कुछ अधिक ही दूर तक आने-जाने
में समय तो लगना ही था, लिहाज़ा आसपास
मौजूद अन्य जगहों का भी जायजा मैंने ले लिया। दूसरी दर्शनीय जगहों पर जाने के
रास्ते और नियम-क़ानून भी पता कर लिए। खीज
भी आई। इतना गैर प्रोफेशनल अप्रोच सिर्फ़ भारत के ही पर्यटन विभागों का हो सकता है।
इसके लिए टिकट क़िले के प्रवेश द्वार के पास मिलता है, लेकिन वहां ऐसा कोई
साइनबोर्ड तक नहीं दिखा जिससे यह जाना जा सके। बेहतर होता कि वहां प्रवेश वहां
सामने ही साइनबोर्ड लगा दिए जाते और पूरे क़िले में कहीं भी घूमने के लिए सभी टिकट
इकट्ठे वहीं दे दिए जाते। इससे पर्यटन विभाग की भी बचत होती और पर्यटक को भी
बार-बार टिकट लेने-देने के झंझट से फ़ुर्सत मिल जाती।
मित्रों के टिकट लेकर आने पर इस स्तंभ के
अंदर गए। इसमें भीतर जाने की अनुमति तो है, पर बेहद संकरी और अंधेरी गलीनुमा सीढिय़ों वाले इस रास्ते में प्रकाश
की कोई व्यवस्था नहीं है। इससे ऊपर जाना काफ़ी मुश्किल काम
है। अगर इसके भीतर प्रकाश की व्यवस्था की जा सके तो इसकी भव्यता भी बढ़ जाएगी और
पर्यटकों के लिए सुविधा भी। साथ ही अंदर जाने में जोखिम भी कम हो जाएगी। 37 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले स्तंभ में कुल नौ
मंजि़लें हैं। बाहर से तो यह शानदार है ही, भीतर भी जगह-जगह ख़ूबसूरत नक्काशी है। सबसे ऊपरी मंजि़ल से चित्तौडग़ढ़
क़िले के भीतर मौजूद कई दर्शनीय जगहें साफ़ दिखाई देती हैं। हमने वहीं से कुछ तसवीरें भी खींचीं। नीचे उतरने पर
मालूम हुआ कि इस परिसर में ही मौजूद मंदिर के पीछे ही गोमुख कुंड है, जो बाहर से देखने पर क़िले का ही एक हिस्सा लगता है।
वह सौंदर्य अनूठा
इसके बाद हम रानी पद्मिनी महल की ओर बढ़े। यह महल एक ताल के भीतर बना
है। झील से पहले एक परिसर बना है,
जिसे
रानी पद्मिनी उद्यान कहा जाता है। हमें उम्मीद थी कि टिकट लेकर महल को अंदर जाकर
देखा जा सकता है, लेकिन वास्तव
में ऐसा कुछ है नहीं। यह टिकट इसी उद्यान परिसर के लिए होता है, जिसके अंतिम छोर से पानी के बीच बने महल
को ठीक से देखा जा सकता है। महल चूंकि एक तालाब के भीतर बना है और सड़क या उद्यान
से महल के बीच कोई पुल भी नहीं है, इसलिए अंदर जाकर महल देखना संभव नहीं है। चित्तौडग़ढ़ के इतिहास में
इस महल का विशेष महत्व है। तीन मंजि़लों वाले इस जलमहल का निर्माण कब हुआ, इस बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
केवल यह पता चला कि सन् 1881 में राणा सज्जन
सिंह ने इसकी दीवारों पर प्लास्टर कराया और कुछ नए निर्माण भी कराए थे।
पद्मिनी उद्यान के व्यूप्वाइंट पर मैं, बद्री जी और राढ़ी जी |
बताया जाता
है कि महल के भीतर एक कमरे में आदमक़द शीशे लगे हैं।
इन्हीं शीशों के ज़रिये राजा रतन सिंह ने बहुत आग्रह पर दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन
खिलजी को तालाब के जल में रानी पद्मिनी का प्रतिबिंब दिखाया था, जिसके बाद वह रानी पद्मिनी को पाने के लिए
बेचैन हो उठा और फिर मेवाड़ के राणा व खिलजी के बीच कई युद्ध हुए। लोगों का मानना
है कि इस महल का उपयोग रानी पद्मिनी केवल गरमी के दिनों में किया करती थीं। शेष
समय वह राणा कुंभा महल में ही रहती थीं। तालाब के दूसरे छोर पर कुछ खंडहर दिखाई
देते हैं। बताया जाता है कि ये खातण रानी के महल के खंडहर हैं। यहां से कुछ और आगे
चलकर भाक्सी है। जनश्रुतियों के अनुसार महाराणा कुंभा ने मालवा के सुलतान महमूद
शाह को पकड़ कर यहीं पांच महीने तक क़ैद रखा था। इसके
आगे मृगवन शुरू हो जाता है।
यह सब देखने में शाम के चार बज गए थे। अब वापस लौटना था और अभी कई
चीज़ें देखनी भी थीं। लौटते हुए हमने सबसे पहले इसी सड़क पर मौजूद कालिका माता
मंदिर के दर्शन किए। चित्तौडग़ढ़ क्षेत्र का यह सबसे पुराना मंदिर है। इसका निर्माण
मेवाड़ के गुहिलवंशी राजाओं ने आठवीं शताब्दी में करवाया था। शुरुआत में यह सूर्य
मंदिर था, पर बाद में
आक्रांताओं द्वारा सूर्य प्रतिमा खंडित कर दिए जाने के कारण सज्जन सिंह ने इसका
जीर्णोद्धार करवाया और यहां कालिका माता की प्रतिमा स्थापित करवाई। इसकी दीवारों
पर अभी भी सूर्य प्रतिमाएं उकेरी हुई हैं। थोड़ा और आगे चलकर मीरा मंदिर है। यह भी
एक बड़े परिसर में मौजूद है। हालांकि अब इसे आम तौर पर मीरा मंदिर के नाम से जाना
जाता है, लेकिन मीरा
मंदिर यहां मुख्य मंदिर के पार्श्व भाग में एक छोटा सा मंदिर है। इसका मूल नाम
कुंभास्वामिन मंदिर है और अब यहां गर्भगृह में श्यामसुंदर की प्रतिमा स्थापित है।
मूल रूप से यह भगवान वराह का मंदिर रहा है। इसका निर्माण महाराणा कुंभा ने 1449 ई. में करवाया था। ऊंचे
शिखर, विशाल कलात्मक मंडप एवं
प्रदक्षिणा वाला यह मंदिर इंडो-आर्यन स्थापत्य कला का सुंदर नमूना है।
कीर्ति स्तंभ |
अहिंसा का कीर्ति स्तंभ
अब यहां से हमें कीर्ति स्तंभ की ओर निकलना था। इसके लिए हमें क़रीब तीन किलोमीटर पैदल सुनसान रास्ते पर चलना था। हम चल पड़े। यह
पूरा रास्ता पठार की चट्टानों और सड़क के दोनों तरफ़ शरीफे के बाग़ान से भरा पड़ा
है। यह फल लगने का समय नहीं था,
वरना
शायद कुछ लिए भी होते। रास्ते की सारी थकान दूर कर देने के लिए यह जीवंत दृश्य ही
काफ़ी था। बीच-बीच में कई जगह चट्टानों से अपने-आप बन
पड़ी आकृतियां ऐसा आभास दे रही थीं मानो उन्हें सायास किसी सधे कलाकार ने बनाया
हो। क़िले के दूसरे आकर्षणों की तरह वहां भी कई और
पर्यटक पहले से मौजूद थे। 12वीं शताब्दी में
बनवाया गया यह स्तंभ 22 मीटर ऊंचा है।
राणा रावल कुमार सिंह के शासन काल में इसे जैन व्यापारी जीजा भगरवाल ने बनवाया था।
यह जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव जी को समर्पित है। इसके निकट ही एक जैन
मंदिर भी है। कीर्ति स्तंभ और मंदिर की बाहरी दीवारों पर भी बहुत सुंदर प्रतिमाएं
उत्कीर्ण हैं। इसके पीछे नदी और सामने घाटीनुमा मैदान है। यह जगह इतनी शांत और
सुंदर है कि अगर समय होता तो शायद हम यहां घंटों बैठना पसंद करते। वहां से वापस
लौटते समय रास्ते में भगवान शिव का एक मंदिर था, जहां कोई यज्ञ चल रहा था और उसी समय प्रसाद वितरण हो रहा था।
हमने सोचा क्यों न पुण्यलाभ उठाया जाए और प्रसाद ले लिया। इसके बाद दर्शन भी कर
लिया। यह भी कोई प्राचीन मंदिर ही था, लेकिन कोई ऐसा अभिलेख यहां उपलब्ध नहीं था, जिससे ठीक-ठीक जानकारी मिल सके। चलते-चलते
क़रीब साढ़े सात बजे हम राणा कुंभा महल पहुंच गए
थे। महल तो क्या, अब केवल खंडहर
बचे हैं और ये खंडहर ही चित्तौड़ के ऐतिहासिक गौरव के वास्तविक स्मृतिशेष हैं।
जिस समय हम वहां पहुंचे ठीक उसी समय महल
के अंदर से एक गाय निकल रही थी। यहां पुरासंपदा के रख-रखाव का अंदाज़ा इसी बात से
लगाया जा सकता है। महल के अंदर जाने के लिए मुख्य दरवाज़ा छोटा सा है। लगभग पांच
फुट ऊंचा। वहां तक पहुंचने के लिए स्लोप जैसा बना हुआ है। भीतर जाने पर पहले एक
कमरा है, फिर गलियारानुमा
निर्माण और अब बिना छत के हो गए कई कमरों के खंडहर। आसानी से समझा जा सकता है कि
किसी समय इस महल का क्या वैभव रहा होगा। इस महल के पीछे एक और खंडहर है। यह खंडहर
भी एक ऐसे प्राचीन भवन का है, जो न केवल
मेवाड़, बल्कि मनुष्यता के
इतिहास में एक निर्णायक मोड़ का साक्षी रहा है। बताया जाता है कि यही वह जगह है
जहां महाराणा उदय सिंह का जन्म हुआ था। उस समय मेवाड़ का राजकाज संभाल रहा बनवीर
राणा विक्रमादित्य की हत्या पहले ही कर चुका था, आगे वह अपना मार्ग निष्कंटक करने के लिए उदय सिंह की ही हत्या
करने वाला था। इसकी भनक पन्ना धाय को लग गई और उन्होंने उदय सिंह की जगह स्वयं
अपने पुत्र चंदन की बलि दे दी। यह अलग बात है कि आज पन्ना धाय की चर्चा लोगों की
ज़ुबानों और कुछ किताबों के सीमित पन्नों तक ही सीमित है, बाक़ी चित्तौड़ में उनके
नाम का कोई स्मारक नहीं दिखा।
राणा कुंभा महल |
इस महल का निर्माण वास्तव में राणा हमीर ने करवाया था, लेकिन बाद में 15वीं सदी में राणा कुंभा ने इसमें कई
परिवर्तन-परिवर्धन करवाए और इसीलिए इसे कुंभा महल कहा जाने लगा। इसके सामने ही
बनवीर की दीवार और बड़ी पोल भी है। यहीं से एक रास्ता चित्तौड़ के महाराणा की
कुलदेवी तुलजा भवानी के मंदिर की ओर भी जाता है।
कल्पतरु की छांव
यह सब देखते हुए रात 9 बजे हम वापस अपने कमरे में थे। थोड़ी देर शहर में घूमने भी निकले और
खा-पीकर लौट आए। अगले दिन सुबह ही सांवलिया जी मंदिर निकले। यह चित्तौडग़ढ़ से 40 किलोमीटर दूर उदयपुर वाले हाइवे पर स्थित
है। उदयपुर हाइवे पर बागुंड-भादसोड़ा चौराया से बाईं तरफ़ एक रास्ता निकलता है। इसी रास्ते पर 6 किलोमीटर आगे जाकर भदसोड़ा गांव में है यह मंदिर। इसी मंदिर
के कारण अब यह गांव धीरे-धीरे एक छोटे क़सबे का रूप ले
चुका है।
सांवलिया जी मंदिर |
भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित यह मंदिर अभी निर्माणाधीन है, लेकिन भव्य है। जब पूरा बन कर तैयार होगा
तो निश्चित रूप से यह स्थापत्य कला का एक अप्रतिम नमूना होगा। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
आसन्न होने के कारण परिसर में इसकी तैयारियां भी शबाब पर थीं। हर तरफ बिजली वाली
झालरें सजाई जा रही थीं, झांकियों और
अन्य कार्यक्रमों आदि के लिए कई जगह इंतज़ाम बनाए जा रहे थे। इससे भीतर का माहौल
काफ़ी अस्त-व्यस्त लग रहा था, लेकिन व्यवस्था चाक-चौबंद थी। किंवदंती है
कि सन 1840 में इसी क्षेत्र
के भोलाराम गुर्जर को यह सपना आया कि यहां तीन मूर्तियां ज़मीन में दबी हुई हैं।
खुदाई की गई तो यह सपना सच निकला। वहां से श्रीकृष्ण की तीन मनमोहक मूर्तियां
निकलीं। इनमें एक को मंडपिया गांव में स्थापित किया गया, दूसरे को भादसोड़ा में और तीसरे को
प्राकट्य स्थल छापर में ही स्थापित कर दिया गया। बाद में उन्हीं जगहों पर भव्य
मंदिर बनवाए गए।
इस मंदिर परिसर में भी एक कल्पवृक्ष है। पुराणों के अनुसार कल्पवृक्ष
समुद्रमंथन से निकले 14 रत्नों में से
एक है। ऐसा माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठ कर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूरी हो जाती है। हालांकि पद्मपुराण के
अनुसार तो पारिजात (नाइट जैस्मीन) ही कल्पतरु है, लेकिन बहुमत ओलिएसी कुल के ओलिया कस्पीडाटा के पक्ष में है।
यह वृक्ष फ्रांस, इटली और दक्षिण
अफ्रीका के अलावा ऑस्ट्रेलिया में भी पाया जाता है। भारत में यह झारखंड, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक के अलावा नर्मदा नदी के किनारे कई
जगह पाया जाता है। हालांकि यहां इसकी संख्या अत्यंत सीमित है। इस पेड़ का तना मोटा
और टहनियां लंबी होती हैं और पत्ते बहुत ही ख़ूबसूरत। इसकी औसत आयु क़रीब तीन हज़ार साल मानी जाती है। वैसे सबसे पुराने वृक्ष की आयु
कार्बन डेटिंग के ज़रिये छह हज़ार साल आंकी जा चुकी है। इसकी ख़ूबी यह है कि यह
बहुत ही कम पानी में फलता-फूलता है और इसके पत्तों से लेकर फल-फूल तक सभी हिस्से
औषधीय दृष्टि से अत्यंत
उपयोगी हैं। शायद यही कारण है कि इसे इच्छाएं पूरी करने वाला मानकर इसकी पूजा की
जाती है। बाहर निकलने पर यहां कई जगह राजस्थानी पगडिय़ों के अलावा तलवार-ढाल आदि
हथियार भी बिकते दिखे। दोपहर के दो बज चुके थे। अब भोजन अनिवार्य हो गया था। अत:
हमने एक ढाबे पर राजस्थान के स्थानीय व्यंजन दाल-बाटी का स्वाद लिया और वापसी के
लिए चल पड़े। चित्तौडग़ढ़ लौटकर हमने राणा सांगा और अन्य बाज़ारों की
घुमक्कड़ी भी की। अगर एक दिन का समय और होता तो निश्चित रूप से हम उदयपुर भी जा
सकते थे, पर फ़िलहाल उसे अगले सफ़र के लिए
मुल्तवी कर स्टेशन की ओर बढ़ लिए। चित्तौड़ के गढ़ की भव्यता का दर्शन हमें वापस
रेलवे स्टेशन आकर ही हुआ, जहां फुटओवर
ब्रिज से क़िले की प्राचीरें दिखाई
दे रही थीं। दूर-दूर तक फैली ये प्राचीरें ही बता रही थीं कि अपने समय में इसका
वैभव क्या रहा होगा।
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जान कर चलें
कैसे पहुंचें
निकटतम हवाई अड्डा उदयपुर है, जो यहां से 70 किलोमीटर दूर
है। कई शहरों से प्रीमियर बस सेवाएं भी यहां के लिए चलती हैं। रेल की बात करें तो
दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, अजमेर, उदयपुर, जयपुर और कोटा से यहां के लिए सीधी
टे्रनें हैं।
कब जाएं
आम तौर पर तापमान यहां 24 से 35 डिग्री सेल्सियस
के बीच होता है। मुफ़ीद समय सितंबर
से मार्च के बीच होता है। अप्रैल से जून तक यहां तेज़ गर्मी होती है और
जुलाई-अगस्त बारिश। इस मौसम में जाएं तो थोड़ा एहतियात बरतें।
कहां ठहरें
ठहरने के लिए यहां सभी तरह के होटलों और गेस्ट हाउस के अलावा
सुविधाजनक धर्मशालाएं भी हैं।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन कारगिल विजय दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteज़रूर सर! बहुत अच्छा लगा जानकर.
Deleteek-ek batein yaad aa gayein. Achha yad dilaya aapne. khalis ghumakkdi ka apna hi maza hai. agle tour mein fir milte hain.
ReplyDeleteधन्यवाद सर! खालिस घुमक्कड़ी का ही तो असली मजा है, बाकी सब तो बस ऐसे ही है. और अगले टूर पर पूरी तैयारी के साथ. :-)
Deletebahut accha lekh hai,travel ka apna maja hai!
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