Mahraj ganj: Azamgarh

महराजगंज बाज़ार
                    -हरिशंकर राढ़ी 


 महराजगंज की स्थिति को लेकर पिछले लेख में लिखी गई बातें तथ्यपरक साबित हो रही हैं। विशुनपुर की तुलना में महराजगंज नया है और यह गाँव विशुनपुर की भूमि पर बसा है। यह बात स्थानीय लोग तो मानते ही हैं, सरकारी अभिलेखों से भी सिद्ध होती है। वैसे भी महराजगंज बाजार की अधिकांश जमीन विशुनपुर के राढ़ियों के खेत की है और अभी भी उनकी जमीन में बहुत सी दूकाने किराए पर चल रही हैं। हाँ, समय के साथ एक बड़ा हिस्सा क्षेत्रीय लोगों ने खरीद लिया है और अब इनका वर्चस्व कम होता जा रहा है। आजमगढ़ गजेटियर के एक अंक में महराजगंज के बारे में कुछ सूचना उपलब्ध है। इस सूचना के अधिकांश भाग को तथ्यपरक माना जा सकता है। आजमगढ़ गजेटियर इस अंक के पृष्ठ 244  पर लिखता हैः
The town is situated in mauza Bishanpur on the banks of the Chhoti Sarju. Close to it is a famous old Hindu shrine of Bhairo and Bishanpur has probably long been inhabitated mauza. The name of Mahrajganj however is of comparatively recent origin having been given to it, it is said, by one of the Rajas of Azamgarh……

The shrine of Bhairo is also known as Deotari, and it is alleged by the attendant Brahmans to have been a gate of the ancient city of Ajodhya, from which it is now forty kos distant. At this shrinre a small fair is held every month of the day of the full moon; but on the tenth day of the light half of Jeth, a very much larger fair is celebrated, which is attended by several thousands of people.
(Azamgarh Gazetteer, Vol XXXIII, of the District Gazetteer of the United Province of Agra and Oudh, Edited and Compiled by DRAKE –BROCKMAN – ICS. Published in 1911)
Naya Chowk Mahraj Ganj
इस पृष्ठ के आवश्यक अंशों का अनुवाद यहां दिया जा रहा है--
”यह नगर छोटी सरजू के तट पर मौजा बिशनपुर में स्थित है। इसके निकट भैरों का प्रसिद्ध और पुराना हिंदू देवालय है और संभवतः बिशनपुर एक प्राचीन रिहायसी मौजा है। हालाँकि अपेक्षाकृत महराजगंज नया है और कहा जाता है कि इसकी स्थापना आजमगढ़ के किसी राजा ने की थी।
इस पेज पर कुछ आँकड़े भी दिए हैं। हालाँकि गजेटियर के इस कथन से सहमत होने का कोई आधार नहीं बनता है कि महराजगंज आजमगढ के किसी राजा ने की थी। ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि महराजगंज की स्थापना किसी राजा ने की हो। यदि ऐसा होता तो कोई राजकीय भवन या निशान जरूर मिलता। वैसे भी महराजगंज का स्थापत्य किसी योजनाबद्ध ढंग से हुआ नहीं लगता। इसलिए यह चर्चा कि महराजगंज का नामकरण राढ़ी जिन्हें ब्राह्मणत्व एवं शौर्य के कारण ‘महराज’ कहा जाता था, के आधार पर हो सकता है।
महराजगंज क्षेत्र औद्योगिक उत्पादों के लिए कभी भी प्रसिद्ध नहीं रहा। हाँ, यह बाजार व्यापार के मामले में अग्रणी था। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में मऊ, मुबारकपुर जैसी जगहों से कपड़ा यहां आता था और लखनऊ, फर्रूखाबाद तथा अन्य पश्चिमी शहरों में इसकी आपूर्ति की जाती थी। उस समय चेतू नामक  कोई बड़ा व्यापारी इस बाजार में था जिसका जिक्र गजेटियर में आता है।
गजेटियर के प्रकाशन के समय सन् 1911 में इस बाजार में महराजगंज में थाना, पोस्ट ऑफिस, मवेशीखाना और एक उच्च प्राथमिक विद्यालय था। ये सभी आज भी इस बाजार में किंतु मवेशीखाना शायद अब नहीं है। मेरे बचपन में था, कुछ बिगडैल लोग किसी का पशु अपने खेत में चरता हुआ पाते तो उसे मवेशीखाने में ढकेल आते और पशु के मालिक को जुर्माना देकर अपना पशु छुड़ाना पड़ता था। जमाना गरीबी का था, इसलिए जुर्माने की रकम का इंतजाम मुश्किल से होता था। कभी-कभी तो लोगों का जेवर भी बंधक रखना पड़ता है। मवेशीखाने की बात आती है तो प्रेमचंद के ‘दो बैलों की कथा‘ का प्रसंग बरबस याद आ जाता है।
थाना तब भी था। अंगरेजी सरकार के जमाने में थाने का बहुत बड़ा खौफ होता था। खौफ आज भी है और सज्जनों में ज्यादा है। तब महराजगंज थाना इस समय के प्राइमरी विद्यालय की जगह पर था। आज जहां है, वह तब के पड़ोसी गांव प्रताप पुर का क्षेत्र है। सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान महेशपुर के स्वतंत्रता सेनानी स्व0 श्री लक्ष्मीकांत मिश्र इस थाने को फूँकने के लिए पहुंच गए थे। श्री जे0के0 मिश्र के मुताबिक वे एक बोझ सरपत सिर पर रखे थाने के गेट पर पहुंचे और बोले कि मैं थाना फूँकने आया हूँ, जो करना हो करो। गोली खाने तक को तैयार हो गए। उनकी इस हिम्मत पर थानेदार तक सहम गया। खैर थाना तो नहीं फूँक पाए, पुलिस ने पकड़ा, पीटा और चालान कर दिया। किंतु उनके इस कृत्य ने अंगरेजी सरकार के खिलाफ महराजगंज क्षेत्र में बिगुल बजा दिया। उनके साथ कुछ क्षेत्रीय युवा स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े जिसमें देवारा क्षेत्र के मल्लू सुराजी और नहरूमपुर (देवारा कदीम) के कुछ लोग थे जिनका नाम ठीक से याद नहीं। इन लोगों को क्षेत्र में सुराजी कहा जाने लगा। आजादी के बाद भी सामाजिक क्षेत्र में इनका योगदान जारी रहा। अब इनमें कोई भी जीवित नहीं रहा जो इतिहास के विषय में कुछ और बता सके।
गजेटियर के हिसाब से 1881 में महराजगंज की जनसंख्या 2882 थी और सन् 1891 में 2019 रह गई थी। सन् 1911 में यहा कुल 1568 हिंदू और 624 मुसलमान थे।
आज यह बाजार बहुत विकसित हो चुका है और नगर क्षेत्र के अंतर्गत संचालित होता है। महराजगंज बाजार के अतिरिक्त विशुनपुर भी इसी में सम्मिलित है। नई सड़क और नया चौक बनने के पहले पुराना चौक ही मुख्य केंद्र था। कप्तानगंज , आजमगढ़ और जीयनपुर के लिए तांगे (इक्के) यहीं से चलते थे। किसी समय फेंकू का तांगा प्रसिद्ध था। चौक के दक्षिण बैलगाड़ियां खड़ी होती थीं जहां से दूर के बाजारों में अनाज की आपूर्ति होती थी। तब छोटी सरयू में भी पानी होता था और नाव से भी व्यापार होता रहता  था।
Naya Chowk, Mahraj Ganj
साधन सीमित थे। अंधेरा होते ही रास्ता चलना दूभर हो जाता था। मौसम मानसून का हो तो महेशपुर की ओर जाना बड़ी समस्या थी। पूरा क्षेत्र देवारा था। सड़क थी नहीं और कच्चा रास्ता था जिसमें पानी भर जाता था। दोनों तरफ से सरपत की बाड़, सांपों का साम्राज्य और देर होते ही नाव का न मिलना किसी भयंकर त्रासदी से कम नहीं होता था। चौड़े रास्ते भी बैलगाड़ियों की चौड़ाई के होते थे जिन्हे खोर कहा जाता था। अब न खोर रहे और न खोर में रहने वाले लोग जो जान पर खेलकर संबध निभाते थे और अभावों को अपना जीवन दर्शन बना लेते थे। अब तो विकसित समाज है जिसमें अधिक धन और सुविधासंपन्न ही ‘मनुष्य‘ है, मानवता का क्या करना है ? सो बाजार विकसित हो रहे हैं....
भैरो जी के विषय में गजेटियर लिखता है-
भैरों जी देवस्थान को देवतरी के नाम से भी जाना जाता है और यहां के परिचारक ब्राह्मणों के अनुसार यह प्राचीन अयोध्या नगर का द्वार है, जो यहां से 40 कोस दूर है। इस देव स्थान पर हर माह की पूर्णिमा को एक छोटा मेला लगता है किंतु  जेठ माह के शुक्लपक्ष की दशमी को बहुत बड़ा मेला लगता है जिसमें हजारों लोग शामिल होते हैं...
भैरो जी और महराजगंज की प्राचीनता और सभ्यता पर प्रश्न तो नहीं उठाए जा सकते, हां इन्हें उतनी प्रसिद्धि नहीं मिली जिसके हकदार ये थे। संभवतः पिछड़ा क्षेत्र और मुख्यमार्ग पर न होना ही इसका बड़ा कारण हो...
शेष अगली किश्त में...


Comments

  1. बहुत सुन्दर। बिमल मित्र का उपन्यास 'टिपलर साहब' महराजगंज की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। बरसों पहले पढ़ा था। आपका लेख स्मृति करा गया।

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