Rarh and Rarhi

राढ़ और  राढ़ी

--हरिशंकर राढ़ी 


(यह आलेख किसी जातिवाद या धर्म-संप्रदाय की भावना से नहीं लिखा गया है। इसका मूल उद्देश्य एक समुदाय के ऐतिहासिक स्रोत और महत्त्व को रेखांकित करना तथा वास्तविकता से अवगत कराना है।)

महराजगंज के इतिहास और वर्तमान की बात हो तो राढ़ियों की चर्चा के बिना अधूरी ही रहेगी। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, महराजगंज बाजार प्रमुखतया विशुनपुर (राढ़ी का पूरा) की ही जमीन पर बसा हुआ है और इसकी स्थापना से लेकर विकास में राढ़ियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। आज बाजार का विकास और विस्तार बहुत हद तक हो चुका है तथा आज के दौर में समाज के हर वर्ग और क्षेत्र का सहयोग और समर्पण है।
बहुत दिनों तक यह अज्ञात ही रहा कि महराजगंज के राढ़ी किस मूल क्षेत्र के निवासी हैं क्योंकि सामान्यतः हमारे देश में इतिहास और आत्मकथा लेखन की परंपरा नहीं रही है। मुगलकाल और अंगरेजी राज्य में साक्षरता दर और स्वस्थ परंपराओं का लोप होता गया। स्थिति ऐसी आई लोग या तो रोजी-रोटी में फंस गए या फिर पोंगापंथी परंपराओं में। अंगरेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति ने बहुत नुकसान पहुंचाया।
‘राढ़ी’ शब्द से सामान्यतः झगड़ालू प्रवृत्ति का बोध होता है और यही धारणा विशुनपुर और महेशपुर के राढ़ियों के विषय में पाई जाती रही है। कुछ हद तक इनमें क्षत्रियत्व और स्वाभिमान (अक्खड़पन की सीमा तक) पाया जाता है इसलिए इस अर्थ की सामान्यतः पुष्टि भी हो जाती है। किंतु वास्तविक इतिहास कुछ और ही है और वह बंगाल की उच्च बौद्धिक क्षमता और परंपराओं वाले गौरवशाली इतिहास का हिस्सा है।
वस्तुतः राढ़ी की उत्पत्ति किसी अनुमानित अर्थ या प्रवृत्ति से नहीं हुई है। यह शब्द बंगाल के राढ़ क्षेत्र से संबंधित है। राढ़ क्षेत्र विश्व के प्राचीनतम क्षेत्रों में एक है। उपलब्ध कुछ स्रोतों को सही मानें तो राढ़ क्षेत्र का अस्तित्व तब था जब हिमालय का अस्तित्व नहीं था। यह एक मान्यताप्राप्त संकल्पना है कि जहां आज हिमालय है, वहां पहले टेथिस सागर था और उसके दोनों ओर दो भू़क्षेत्र थे जिनके परस्पर टकराने से हिमालय का जन्म हुआ। तो भी, राढ़ क्षेत्र राढ़ नामक नदी द्वारा लाई गई मिट्टी से बना था और आदिम काल से यह आबाद था। राढ़ क्षेत्र को दो भागों में बांटा गया - पूर्वी राढ़ और पश्चिमी राढ़।
पूर्वी राढ़ के अंतर्गत ये क्षेत्र आते हैं: 1- पश्चिमी मुर्शिदाबाद, 2- बीरभूम जिले का उत्तरी भाग, 3-पूर्वी बर्धमान, 4- हुगली, 5- हावड़ा क्षेत्र, 6- पूर्वी मेदिनीपुर तथा 7- बांकुड़ा जनपद का इन्दास थाना क्षेत्र।
पश्चिमी राढ़ में ये क्षेत्र सम्मिलित हैं: 1- संथाल परगना, 2- बीरभूम के अन्य क्षेत्र, 3- बर्धमान का पश्चिमी भाग, 4- बांकुडा (इन्दास थाना क्षेत्र को छोड़कर), 5-पुरुलिया, 6- धनबाद, 7-हजारीबाग के कुछ इलाके, 8- रांची के कुछ इलाके, 9-सिंहभूम तथा 10- मेदिनीपुर का कुछ इलाका ।
आनंदमार्ग प्रकाशन तिलजला, कोलकाता द्वारा प्रकाशित और श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा लिखित पुस्तक ‘सभ्यता का आदि बिंदु -राढ़’ के तथ्यों को प्रामाणिक मानें तो राढ़ क्षेत्र में सभ्यता विकसित ही नहीं हुई थी, अपितु सभ्यता का यहां जन्म हुआ था। एक समय था जब राढ़ क्षेत्र का ध्वज विदेशों तक लहराता था। यहां केे लोगों ने जय का दंभ पालने के बजाय मानवसेवा को अपना धर्म माना।
प्रभात रंजन के अनुसार मंगलकाव्य और वैष्णव काव्य साथ - साथ चल रहे थे। इस क्रम में जयदेव को वे प्रमुखता देते हैं जिन्होंने गीत गाविंद की रचना की और वैसा लालित्य शायद ही किसी अन्य गीत में हो। राढ़ क्षेत्र के प्रमुख लोगों में रवीन्द्रनाथ टैगोर, राजशेख बसु, रासबिहारी बसु, सुभाषचंद्र बोस, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद ( नरेंद्रनाथ दत्त) की गणना की जा सकती है। रामकृष्ण परमहंस जहां राढ़ी ब्राह्मण थे, वहीं विवेकानंद राढ़ी कायस्थ। राढ़ क्षेत्र में इतनी प्रसिद्ध और महान विभूतियाँ हुईं कि उनको सूचीबद्ध कर पाना बहुत दुष्कर कार्य है। वैसे तो राढ़ क्षे़त्र की सभी जातियां अपने को राढ़ी लिखती हैं किंतु राढ़ी ब्राह्मण और राढ़ी कायस्थ स्वयं को ‘राढ़ी’ के नाम से ही कहलाना पसंद करते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि यह क्षेत्र विकसित था। चहुंओर से समतल और जलोढ़ मिट्टी, विदेशी आक्रमण से दूर, हरीतिमा से भरपूर था यह क्षेत्र। हर प्रकार से संपन्न होने के कारण सभ्यता और संस्कृति का विकास तो होना ही था। कालांतर में राढ़ क्षेत्र शैव मतावलंब के गहरे प्रभाव में पड़ा। जगह - जगह शिव के मंदिर इसके प्रमाण हैं। किंतु वैष्णव प्रभाव भी कम नहीं हुआ।
राढ़ क्षेत्र में राढ़ी ब्राह्मणों की उपस्थिति और इतिहास का विवेचन करना बहुत सहज नहीं है। ये इस क्षेत्र के ज्यातिपुंज रहे हैं। राढ़ियों को कुलीन ब्राह्मणों के वर्ग में रखा जाता है। यह तो बहुत स्पष्ट नहीं है कि इनकी उत्पत्ति यहीं की है या ये विस्थापित होकर आए हैं, किंतु इनकी परंपराओं, ज्ञान और उपलब्धियों को देखकर तार्किक रूप से यह कहा जा सकता है कि ये यहां के आदि निवासी थे। ब्राह्मण वंशावली का ज्ञान रखने वाले और विवेचन करने वाले भिन्न -भिन्न मत रखते हैं।
राढ़ क्षेत्र का इतिहास लिखना यहां मेरा उद्देश्य नहीं है, हालांकि मेरे पास कुछ शोधपरक जानकारी जरूर है। यह तो प्रसंगवश है। मेरा लेखनक्रम यहां महराजगंज (आजमगढ़) के राढ़ी ब्राह्मणों और उनके स्थानीय महत्त्व को रेखांकित करना है।
जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया, इस बात का कोई बड़ा प्रमाण नहीं है कि राढ़ी ब्राह्मण यहां के मूल निवासी थे या कहीं से विस्थापित होकर आए थे। विकीपीडिया एवं कुछ अन्य वेबसाइटों का अध्ययन करने से मालूम होता है कि राढ़ी ब्राह्मण मूलतः कन्नौज के कुलीन ब्राह्मण थे और किसी अज्ञात समय और अज्ञात कारणों से बंगाल के इस क्षेत्र में पहुंचे। कन्नौज क्षेत्र के ब्राह्मणों को कान्यकुब्ज ब्राह्मण भी कहा जाता है।
बंगाली कुलीन ब्राह्मण कुल पांच प्रसिद्ध गोत्रों में आते हैं जिनमें- शांडिल्य, भारद्वाज, कश्यप, वत्स और सावण्र्य या स्ववर्ण हैं। इन्हें यहां दो प्रमुख वर्गों में रखा गया है -राढ़ी और वरेन्द्र। बंगाल में इनके होने के प्राचीनतम प्रमाण कुमारगुप्त के ताम्रपत्रों से 433 ईस्वी में मिले हैं। एक ताम्रपत्र में राढ़ी ब्राह्मण द्वारा किसी जैन विहार को भूमिदान करने का उल्लेख है। वैसे पौराणिक एवं प्रागैतिहासिक ग्रंथों में भी इनके वहां होने का प्रमाण मिलता है। कुछ पारंपरिक ग्रंथों एवं कथाओं में भी, जिन्हें कुलग्रंथ या कुलपंजिका कहा जाता है, इनकी उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है। बंगाल के राजाओं के दरबारी ग्रंथों में भी राढी ब्राह्मणों का जिक्र है। इनके प्रमुख लेखक हरि मिश्र, एदू मिश्र, वाचस्पति मिश्र, राजेन्द्रलाल मित्र हैं और ये लगभग 13वीं से 15वीं सदी के अभिलेख हैं।
कहा जाता है कि आदिसुर नामक किसी राजा को यज्ञ कराने हेतु योग्य वैदिक ब्राह्मणों की आवश्यकता थी और उसके राज्य में वैदिक विशेषज्ञ ब्राह्मण नहीं थे। (एदू और हरि मिश्र के आख्यान के आधार पर) उसने कोलांचल और कान्यकुब्ज के पांच ब्राह्मणों को यज्ञकार्य हेतु आमंत्रित किया। यह वृत्तांत आठवीं सदी का होगा। इतिहास के जानकारों के अनुसार आदिसुर बंगाल के बजाय उत्तरी बिहार का था। यह तर्क भी पूरी तरह स्वीकार्य नहीं है क्योंकि आदिसुर का राज्य मिथिला क्षेत्र के सन्निकट है और मिथिला में योग्य वैदिक ब्राह्मणों की कमी नहींं रही होगी।
कहा जाता है कि बंगाल के सेन राजाओं ने ब्राह्मणों को भूमि और धन खूब दिया। वे समाज में वैदिक प्रथाएं और मूल्य स्थापित करना चाहते थे। वे समाज में पूर्ण अनुशासन चाहते थे और यह अनुशासन उन्होंने ब्राह्मणों पर भी लागू किया। कुलीन ब्राह्मण उसे ही माना जाता था जिसके मातृ और पितृ दोनों पक्ष 14 पीढ़ियों तक कुलीन रहे हों। हालांकि ब्राह्मणों ने इसका विरोध भी किया, किंतु कुलीनता की यह प्रथा परंपरा में बदल ही गई।
बंगाल मंे जो भी राढ़ी ब्राह्मण हैं, उनके साथ प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। उनमें प्रमुख जातिनाम व गोत्र निम्नवत हैं:
1. मुखर्जी या मुखोपाध्याय (भारद्वाज गोत्र)
2. बनर्जी या बंदोपाध्याय (शांडिल्य गोत्र)
3. चटर्जी या चट्टोपाध्याय (कश्यप गोत्र)
4. गांगुली या गंगोपाध्याय (सावर्ण गोत्र)
इसके अतिरिक्त लाहिड़ी, सान्याल, मोइत्रा और बागची वरेंद्र समूह के राढ़ी ब्राह्मण हैं।
जो राढ़ी ब्राह्मण राढ़ क्षेत्र छोड़कर दूसरे राज्यों में चले गए, उनमें अधिकांशतः अपना जातिनाम ‘मिश्र’ लगाते हैं। इनमें भी प्रायः वे लोग हैं जिनका गोत्र कश्यप है। उत्तरी भारत के मिश्र जातिनाम के ब्राह्मणों में कश्यप गोत्र शामिल नहीं है। इस प्रकार की चर्चा मुझसे एक बार काशी विद्यापीठ से सेवानिवृत्त प्रो0 वंशीधर त्रिपाठी जी से हो गई। वे ‘कश्यप’ गोत्र सुनते ही बोल पड़े कि इस जातिनाम ‘मिश्र’ में कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण हो ही नहीं सकता। वह या तो किसी की गद्दी यानी ‘नेवासा’ (ससुराल या ननिहाल में वंशहीनता की स्थिति में उसी वंश की संपत्ति और घर पर स्थायी रूप से निवास करने वाला) पर होगा या किसी अन्य कारण से अपना जातिनाम बदल लिया है। जब उन्हें पता लगा कि कुछ मिश्र लोग मूलतः राढी हैं तो उन्होंने कहा कि यही कारण है कि उन्हें कश्यप और मिश्र में तुल्यता का संदेह हुआ। राढ़ी तो मूलतः बंगाली ब्राह्मण हैं और मिश्र जातिनाम बंगाल में नहीं होता। प्रो0 वंशीधर त्रिपाठी एक सुदीर्घ अध्येता रहे हैं। आज उनकी वय 85 से ऊपर की है। वे एक अत्यंत अच्छे और गंभीर लेखक रहे हैं। आप मनोविज्ञान, समाज विज्ञान और दर्शनशास्त्र में एम ए तथा डबल पीएच. डी हैं। उन्होंने भारतीय साधु समाज पर शोध किया था और उसके लिए विधिवत दीक्षा लेकर साधु समाज में एक लंबा समय बिताया था। उनकी पुस्तक ‘साधूज ऑफ इंडिया’ एक प्रसिद्ध और मान्यताप्राप्त ग्रंथ है जो अमेरिका के पुस्तकालयों में तथा विश्वविद्यालयों में चर्चित है।
महराजगंज के राढ़ी निश्चित रूप से इसी राढ़ क्षेत्र से विस्थापित हैं। उनकी अधिकांश परंपराएं बंगाल के ब्राह्मणों से मिलती हैं। अंतर एक ही है कि यहां के राढ़ी मूलतः और अधिकांशतः शाकाहारी हैं। वे वैष्णव एवं शैव दोनों ही पंथों में विश्वास रखते हैं और आदिशक्ति दुर्गा उनकी कुल अधिष्ठात्री देवी हैं। वे ही उनकी अंतिम शरण हैं। महराजगंज के राढ़ी राढ़ क्षेत्र से विस्थापित होकर कब और क्यों आए, इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है। हो सकता है कि अतिरिक्त स्वतंत्रता, रिक्तता और अस्तित्व की तलाश में राढ़ को छोड़ दिया हो। किसी प्राकृतिक आपदा का संकेेत तो मिलता नहीं। यह भी कहा जाता है कि नवाव शुजाउद्दौला के समय युद्ध और धर्मपरिवर्तन से भयभीत होकर पलायन करना पड़ा हो।
महाराजगंज के राढ़ियों की मान्यता के अनुसार उनके पूर्वज पहले सुगौटी में आकर बसे। यह गांव भैरव स्थान से लगभग एक किमी की दूरी पर छोटी सरयू के उत्तरी तट पर है। तब शायद बाढ़ का प्रकोप ज्यादा हुआ करता था। कालांतर में विष्णु और महेश दो सगे भाइयों ने एक और विस्थापन लिया। विष्णु ने महराजगंज के पास बांगर क्षेत्र को चुना और बस गए तथा महेश भैरोजी से लगभग तीन किलोमीटर उत्तर पूर्व कछार क्षेत्र में बस गए। यहीं से विष्णु के नाम पर विष्णुपुर (विशुनपुर) तथा महेश के नाम पर महेशपुर आबाद हुआ। आज दोनों ही गांवों में इन्हीं के वंशजों की एक बड़ी आबादी है। अब समय परिवर्तित हो गया है, पहले इन्हें लोग मिश्र के बजाय राढ़ी कहकर ही बुलाते थे।
जैसा कि मैंने पहले कहा, राढ़ी ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व के साथ क्षत्रियत्व अधिक है। ये लोग बड़े अभिमानी, सुपठित, तार्किक और ज्ञानी थे। पंडिताई, यजमानी और व्यावसायिक पूजा-पाठ जैसे ब्राह्मणोचित कार्य में कभी संलग्न नहीं हुए। अधिकांशत: राढ़ी अच्छे किसान भी थे और इनके पास कृषियोग्य भूमि की अधिकता थी। जमींदार भी थे ये।
क्रमशः...........





Comments

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-03-2017) को

    "हथेली के बाहर एक दुनिया और भी है" (चर्चा अंक-2610)

    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  7. बहुत सुन्दर राढ़ी वंश के बारे में बतलाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद, मुझे राढ़ी वंश के बारे में जानने की बहुत उत्सुकता थी। (बीजेन्द्र कुमार मिश्र,कस्यप गोत्र,राढ़ी मिनरल)

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  8. मान्यवर श्री हरी शंकर राढ़ी जी ,राढ़ी वंश के उद्भव और विकास पर सारगर्भित लेख के लिए थन्यवाद। मेरी जाति
    उत्तर दाढ़ी कायस्थ समाज की है। हमारे समाज की उपस्थिति बिहार राज्य के भागलपुर , पुर्णिया, बांका , मुंगेर तथा झारखण्ड में है । हमारे समाज में उपनाम घोष,
    दास, मित्र, दत्त, सिन्हा पाया जाता है । मैं अपनी बात करुं तो मेरा उपनाम सिन्हा है और गोत्र वत्स है। कुल कदाचित दधिपनार सिंह है । आपके अनुसार हमारे समाज की स्थिति क्या हो सकती है।

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    1. राढी‌‌‌‌ समाज मेंं कायस्थ भी आते हैं..उपनाम से अंतर नहीं पडता. मुख्य सम्बंध गोत्र से है..यह जानकर अच्छा लगा कि आप भी राढी‌ हैं

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  9. बहुत सुन्दर अपने पूर्वजों के विषय में जानकर बहुत ही अच्छा लगा

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  10. अच्छा लगा पूरी जानकारी कैसे मिलेगी

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  11. जानकारी बढी़ अपने समाज के विषय।वस्तुतःऐसे प्रयासो से ही व्यापत भ्रांतियाँ दूर होगी।वैसे मै बिहार राढि़य समाज,पटना का अध्यक्ष हूँ।अगर संभव हो आपका सम्पर्क न0चाहूँगा।

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  12. धन्यवाद महोदय..मेरा सम्पर्क (नम्बर ) है..09654030701

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  13. राढी ब्राह्मणों के बारे में आप के द्वारा दी जानकारी सत्य है क्योंकि मुझे अपने पूर्वजों से ये बात पटाचसली थी कि हैम लीग आज़मगढ़ कद महराजगंज से आकर देवरिया जिले के गौरा बरहज में बस गए थे।आज भी हम लोगों की कुल देवी मां जगदम्बा ही हैं और हनुमान ध्वज हमेश ही स्थापित किया जाता है। वर्तमाब में में निदेशक, केंद्रीय रेशम बोर्ड, वस्त्र मंत्रालय, भारत सरकार के पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात अपने गृहनगर में ही रहता हूँ। मेरा सम्पर्क नंबर 9448389738 है।

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  14. Dr Pradeep Kumar Mishra, Ex- Director, Central Silk Board, MoT, Govt of India, now settled at Gaura Bargah, Deoria UP-274603, Contact No. 9448389738. I also beling to Radhe Mishra community. I was desirous to visit once Maharaaj Ganj to see it from where my fore father's migrated to current place.

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  15. गौरा बरहज देवरिया उत्तर प्रदेश 274603

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  16. धन्यवाद महोदय जी मुझे बहुत उत्सुकता थी की मैं अपने वंश कें बारे में जानू मैं भी राढी़ वंश हैं हूं मेरा गोत्र कश्यप है उपनाम मिश्रा है मैं गोरखपुर सहजनवा नारंगपट्टी का रहने वाला हूं आशा करता हूं कि आंखें भी कुछ जानकारी दीजिए धन्यवाद

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  17. आदि गौड़ हिमालय भर्मण के बाद गौड़ बंगाल ( राधि क्षेत्र) में रुके। ये सभी सात ऋषि के वंश थे। कुछ शाखाओं के लोग यहां बसे रहे,बाकी 5501 साल पहले दोबारा उतर दिशा में पहुंचकर ब्रह्मवर्त में पहली स्थाई मानव बस्ती 1444 गांव के रूप में बसाते हैं।यहां गौड़ बंगाल मे छूटी आदि गौड़ ब्राह्मणो की एक शाखा के अत्रि गौत्र के शशांक गौड़ ने यहां राज्य स्थापित किया। ये शाखा भी खत्म हो गई थी। ब्रह्मव्रत के आदि गौड़ से निकलर कन्नौज गए, सभी गौत्र के लोगों को वहा कन्यकुज गौड़ बोला गया, इन्ही कन्यकुज शाखाओं के 5 गौत्र बंगाल गए, इन्हें कुलिन गौड़ ब्राह्मण बोला जाता है। सब ब्राह्मणो के भाग, वर्तमान के हरियाणा के आदि गौड़ ब्राह्मणों में जुड़ जाते हैं। ये आदि गौड़ ब्राह्मण, ब्राह्मणों की जड़ होने के कारण इनके छोटे बच्चे को भी, वहा हर जाति के लोग दादा या बाबा बोलते हैं। यहां बाद में जाने वालों में अत्रि गौत्र के लोग नाम मात्र के ही मिलेंगे,ये उतर भारत मे रहे या वहा से पशिचम देशो की तरफ भी गए । अत्रि कन्यकुब्ज मे भी कम मिलेंगे। कन्यकुब्ज के बाद उड़ीसा में इसी तरह आदि गौड़ ब्राह्मणों का एक समहू गया, उसे उत्कल गौड़ ब्राह्मण बोलते हैं, इनमे भी सभी गौत्र के लोग थे, रथ शर्मा (अत्रि) गौत्र के हैं। असे ही आदि गौड़ ब्राह्मणों की सभी गौत्र की शाखा मैथिल में बसी, इन्हे मैथली गौड़ बोलते हैं, अत्रि गौत्र यहां भी शायद नहीं गया। अत्रि ब्राह्मणों का मूल गौत्र है, जो उस समय मात्र एक शाखा सिंधु नदी पार करके पार के निवासी हुए,जो पारसी (पर्शियन धर्म ) के जनक हुए।

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  18. आदि गौड़ ब्राह्मण जड़ हैं सबकी

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  19. हरिशंकर जी, बहुत अच्छी बात है। बहोत धनबाद.
    ये जानकर अच्छा लगा, राधि ब्राह्मण 5 गोत्रीय है.. भारद्वाज, कश्यप, सांडिल्य, वात्या और सावर्णि।
    मैं अविनाश मिश्रा, भारद्वाज गोत्र, चुनार (मिर्जापुर), मेरे पूर्वज भी इसी क्षेत्र से गया था।
    मोब - 9910466055

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