कश्मीर की आवाज़


जिस कश्मीर को आप केवल आतंकवादियों की सहायता में पत्थरबाजी के लिए जानते हैं, वहाँ ऐसे लोग भी हैं जो आतंकवादियों के छक्के छुड़ाने का हौसला रखते हैं. बल्कि ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है. और ये वही लोग हैं जो ख़ुद भारतीय मानते हैं और जमू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग.


हुआ बस यह था कि इनकी आवाज़ दबा दी गई थी. यह दबाने का काम किसी और ने नहीं, शेख़ अब्दुल्ला के शासन ने किया था. ख़ुद नेहरूजी ने महसूस किया अब्दुल्ला का साथ देकर उन्होंने ग़लती कर दी. लेकिन जब उन्होंने महसूस किया तब तक पानी सिर से गुज़र चुका था.

अगस्त 1953 में जब उसकी पहली गिरफ़्तारी की गई तब तक वह अपने गुर्गे पूरे कश्मीर में फैला चुका था और उन्हें अपना शासन रहते बहुत मजबूत कर चुका था.

इसके पहले वह विलय के पक्ष में आंदोलन करने वाले तमाम हिंदुओं और मुसलमानों पर बेइंतहां जुल्म ढा चुका था. जेल में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जान ले चुका था. कई और लोगों की जान जेल से बाहर ले चुका था. लिहाजा उसका और उसके गुर्गों का ख़ौफ़ लोगों पर क़ायम रहा.

पाकिस्तान से भेजे गए गुर्गों को भी वह जगह-जगह स्थापित कर चुका था. इनसे मिलकर उसके गुर्गे अपना काम कर रहे थे. आमजन को डरा-धमका रहे थे और उसे पाकिस्तानपरस्त बना रहे थे. उसी पाकिस्तान के पक्ष में जो अब्दुल्ला को स्वायत्तता के मुद्दे पर कुत्ते की तरह दुरदुरा चुका था और वह अपना सा मुँह लेकर लौट आया था.

लेकिन कश्मीर पर क़ब्ज़ा तो उसे चाहिए था और इसके लिए उसने अब्दुल्ला को हरसंभव सहायता जारी रखी. जो वास्तव में अब्दुल्ला को उसकी सहायता नहीं, बल्कि पाकिस्तान द्वारा अपने हित में अब्दुल्ला का इस्तेमाल था. अब्दुल्ला इसमें इस कदर मशगूल हुआ कि उसने सारे कश्मीरियों की आवाज़ सिर्फ़ दबा नहीं दी, बल्कि बदल दी. उन्हें अपनी बात बोलने के लिए मजबूर किया.

मजबूरी में उन्होंने सिर्फ़ बोला ही नहीं, वह सब किया भी जो अब्दुल्ला और उसके परवर्तियों ने चाहा. चूँकि भारत सरकार ने इस पर कभी कोई प्रभावी लगाम नहीं लगाया तो उसका और उसके जैसे दूसरे अलगाववादियों का मन बढ़ता ही गया. इसी क्रम में कश्मीरी पंडितों की सबसे बीभत्स मॉब लिंचिंग हुई. जिसे तब के अखबारों-चैनलों में से किसी ने मॉब लिंचिंग नहीं कहा.

तब शायद उनके पास यह शब्द था नहीं. असल में उन्हें किसी नए पवित्र शब्द की जरूरत तभी पड़ती है जब किसी वास्तविक अपराधी के ख़िलाफ़ निर्दोष आमजन कोई क़दम उठाता है. इसका अंदाजा आप आसानी से लगा सकते हैं इन दिनों देश के कुछ अंग्रेजी अखबारों की हेडलाइन-फोटो-कार्टून प्रोपगंडा नीति से.

आपको यह ख़बर बहुत कम अख़बारों में दिखी होगी और दिखी भी होगी तो किसी कोने में. ख़बर यह है कि बैंक लूटने आए आतंकवादियों को आमजन ने मार भगाया. हालांकि इस घटना में कुछ लोग घायल भी हो गए, लेकिन उन्होंने जिस साहस का परिचय दिया, यह वे पहले नहीं कर सकते थे.

आज कर पा रहे हैं, यह बड़ी बात है. यह एक बड़ा परिवर्तन है. तैयार रहें, हो सकता है कि आने वाले दिनों में लोग ऐसे ही आतंकवादियों को धरना-दबोचना और उनकी ही भाषा में उनके कृत्यों का जवाब देना शुरू करें. अफजल की मौत पर शर्मिंदा बुद्धिजीवी और अख़बार तब शायद इसे भी मॉब लिंचिंग का नाम देंगे.

शुरुआत हो गई है तो दूर तलक जाएगी. बहरहाल मेरी राय कि खूंखार आतंकियों का सामना करने वाले इन आम नागरिकों और गार्ड को पुरस्कृत किया जाना चाहिए.


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