राहुल गांधी के जूते में आपके पैर
राहुल गांधी के मन में
नरेंद्र मोदी के प्रति कितना प्यार है,
यह किसी से छिपा नहीं है. वैसे तो संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर भाषण देते
समय राहुलजी की आवाज़ और उनके हाव-भाव से ही सब कुछ जाहिर हो रहा था, लेकिन
नई पीढ़ी भी अभी 2002 से लेकर अब तक ख़ुद राहुलजी, उनकी माताजी
और उनके भिन्न-भिन्न पार्टीजनों की ओर से नरेंद्र मोदी को दिए गए विशेषण अभी भूली
नहीं है.
कांग्रेसजनों की ओर से मोदी को दिया गया प्रत्येक विशेषण यह
बताने के लिए काफ़ी है कि राहुलजी या कोई भी कांग्रेसजन नरेंद्र मोदी से कितना
प्यार करता है. इस देश की जनता ने इस बात को हँसकर उड़ा दिया. मैं नहीं समझ पा रहा
कि इसे बेबुनियाद और अगंभीर बातों को ऐसे ही हँसकर उड़ा देने की उसकी कला माना जाए, या
फिर तथ्यों से ठीक उलट बातों के प्रति उसकी सहिष्णुता का बेजोड़ नमूना.
ख़ैर, मैं बात तथ्यों पर नहीं करने जा रहा हूँ.
मैं बात तेदेपा की ओर से लाए गए और देश की कई प्रमुख पार्टियों की ओर से समर्थित
लेकिन बेतरह धड़ाम हो गए अविश्वास प्रस्ताव और उसके औचित्य पर भी नहीं करने जा रहा.
ना, मैं उस घिसी-पिटी स्क्रिप्ट की तो कोई बात ही नहीं कर सकता.
क्योंकि उस पर चर्चा भी स्क्रिप्टिंग की तौहीन होगी.
मैं बात उस विषय की करने जा रहा हूँ जिसे लेकर आज राहुल
गांधी बहुत लोगों के बीच मज़ाक के पात्र बने हुए हैं. हालाँकि हमेशा की तरह कुछ
बुद्धिजीवी इसी बात पर ख़ुद को लहालोट दिखाने की कोशिश भी कर रहे हैं. मुझे उन पर
भी कुछ नहीं कहना है.
भारत में देसी पत्रकारिता जिन संस्कारों के साथ पैदा हुई थी, अगर
उनका लेशमात्र भी उसमें शेष होता तो शायद यह चर्चा का विषय नहीं होता. चर्चा का
विषय आज सांसदों को मिले विशेषाधिकार होते. इन विशेषाधिकारों की आवश्यकता है भी
क्या?
आइए अब राहुल गांधी के व्यवहार पर चर्चा करते हैं. राहुल
गांधी ने जिस तरह प्रधानमंत्री की सीट के आगे जाकर उन्हें हाथ से उठने का इशारा
किया और न उठने पर जिस तरह उन्हें झुककर गले लगाने की कोशिश की और उसके बाद
ज्योतिरादित्य सिंधिया को आँख मारी... यह पूरा प्रकरण मज़ाक उड़ाने, इस या
उस दल के आधार पर विरोध या समर्थन करने और केवल समझने की नहीं, बल्कि समानुभूतिपूर्वक समझने की कोशिश माँगता है.
सहानुभूति से यहाँ काम नहीं चलेगा, समानुभूति
चाहिए. पूरी समानुभूति राहुल गांधी के प्रति. और वह भी ऐसी नहीं कि आप यह कल्पना
कर लें कि अगर आपकी माताजी इंग्लैंड से आई होतीं और आप भारत के एक बड़े खानदान में
पैदा हुए होते तो क्या होता. पहले इतनी ही कल्पना करके देखिए कि आप यहाँ से फ्रांस
चले जाएँ और वहाँ जाकर आपसे यह अपेक्षा की जाए कि आप वहाँ के सारे तौर-तरीक़े
निभाएँ... तो ज़रा सोचिए, आपका क्या हाल होगा.
आप अपनी स्थितियों में रहते हुए अपनी ओर से पूरी कोशिश
करेंगे तो भी आपको वह सब सीखते-सीखते कई साल लग जाएंगे. सब सीखकर भी आप उसे केवल
निभा लेंगे. उन तौर-तरीकों के प्रति आपके मन में कभी कोई लगाव नहीं पैदा हो पाएगा.
आप उन तौर-तरीक़ों को झेलने की तरह निभाएंगे और मौका पाते ही उन्हें किसी बोझ की
तरह अपने सिर से पटक देंगे.
यह सब आप अपनी परिस्थितियों में करेंगे. यानी जिस औकात में
हैं, उसी या फिर उससे थोड़ी बेहतर औकात में रहकर. अगर आप राहुल गांधी की औकात
में होंगे, यानी किसी भी देश के प्रथम परिवार के सदस्य की
हैसियत में, तो यक़ीन मानिए आप वह सब सीखने की ज़रूरत भी नहीं
समझेंगे.
ईश्वर की कृपा से अगर कहीं भारत जैसे चमचे उस देश में हुए
तो वे आपको सीखने ही नहीं देंगे. वे शुरू से आपको एहसास कराएंगे कि हुजूर आपको यह
सब जानने-सीखने की क्या ज़रूरत! काहे इतनी तकलीफ उठाते हैं! हम हैं न, जब जो
ज़रूरत पड़ेगी, बता देंगे.
बच्चे की पहली पाठशाला उसकी माँ होती है. सोनिया गांधी ने
साड़ी पहननी सीख ली, जनता का मन रखने के लिए गंगा में डुबकी लगा आईं, इतना क्या कम है?
सोनिया जी जब राजीव गांधी के साथ भारत आई थीं तो इंदिरा जी
ने उन्हें पहले कुछ दिन बच्चनजी (डॉ. हरिवंश राय बच्चन) के घर रखा था. उन दिनों
बच्चनजी दिल्ली में ही रहते थे. ऐसा उन्होंने इसीलिए किया था ताकि वह सोनिया भारत
की संस्कृति और तौर-तरीक़े सीख सकें.
मैं बिलकुल सोनिया गांधी की इटैलियन या ब्रिटिश पृष्ठभूमि
की बात नहीं करूंगा, लेकिन उस पृष्ठभूमि से आई और उस उम्र की कोई भी युवती किसी
दूसरे देश में जाकर वहाँ की संस्कृति-सभ्यता जानने के प्रति कितनी रुचिशील हो सकती
है, इसका अनुमान आप आसानी से लगा सकते हैं. एक और बात,
प्रधानमंत्री के परिवार की बहू आपके घर पर मेहमान हो, तो भले प्रधानमंत्री की ओर से आपको यह निर्देश हो कि इन्हें देसी
तौर-तरीक़े सिखाए जाएँ, पर उन्हें आप कितना सिखा पाएंगे?
आपका ध्यान केवल उनकी मेहमाननवाज़ी पर लगा रहेगा. ईमानदारी
से सोचें तो पाएंगे कि ऐसी स्थिति में आप उन्हें कुछ सिखाने के बजाय उन्हें
प्रसन्न रखने में ही व्यस्त रहेंगे. बच्चन परिवार देश के सबसे समझदार परिवारों में
से एक है. ज़ाहिर है, उनके साथ भी यही हुआ.
अब राहुल गांधी 49 साल के बताए जाते हैं. राजीव गांधी का
निधन 1991 में हो गया था. बेहद दुखद परिस्थितियों में. यानी राहुल गांधी तब केवल
22 साल के थे. इससे केवल पाँच साल पहले इंदिराजी भी ऐसी ही त्रासद परिस्थितियों
में दुनिया छोड़ गई थीं. ये दोनों ही घटनाएँ केवल नेहरू परिवार नहीं, पूरे
देश के लिए त्रासद थीं. इन पर केवल कांग्रेसी या नेहरू परिवार नहीं, पूरा भारत रोया था. हालांकि उसी समय पाश ने एक कविता भी लिखी थी.
क़ायदे से राहुल गांधी की जो उस समय जो उम्र थी, वह
राजनीति सीखने की भी नहीं थी. कुछ सीखने की किसी की उम्र परिस्थिति सापेक्ष होती
है. इंदिराजी अगर 20 उम्र में राजनीति में रुचि लेती थीं और उसे बहुत अच्छी तरह
जानती थीं तो इसलिए नहीं कि वह प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं, इसलिए कि वह स्वतत्रता संघर्ष में शामिल नेहरू की बेटी थीं. किसी संघर्ष
में शामिल एक नेता और एक प्रधानमंत्री की संतान होने में बड़ा फ़र्क़ होता है.
संघर्षरत नेता की संतान जनता की नब्ज़ जानती है. संघर्ष के
तौर-तरीक़े, देश की सभ्यता-संस्कृति, कमियाँ-ख़ूबियाँ,
ज़रूरतें और संसाधन जानती है. वह यह भी जानती है कि कहाँ किसे फटकारना
है और कहाँ किसे पुचकारना है. लेकिन प्रधानमंत्री की संतान सिर्फ़ शासन के तरीक़े जानती
है. उसकी भाषा से लेकर उसके बॉडी लैंग्वेज तक में शासन आ जाता है.
कल्पना करिए कि आपका परिवार देश का प्रथम परिवार मान लिया गया
हो. भारत जैसे लोकतंत्र का प्रधानमंत्री होने की आदत-सी पड़ गई हो आपके परिवार को, और इस
बीच में एक ऐसा प्रधानमंत्री भी आपके सामने रह चुका हो जो सिर्फ़ आपके नाते और आपके
प्रसादपर्यंत प्रधानमंत्री हो, तो आपके तौर-तरीक़े क्या होंगे? मोदीजी की सीट के पास जाकर राहुलजी ने जो इशारे किए, उसे आप इस नज़रिये से देखें तो ठीक-ठीक समझ सकेंगे.
ऐसे व्यक्ति को कोई आदेश या
अनुशासन मानने की नहीं, सिर्फ़ देने की
लत होती है. इस नज़रिये से देखें तो राहुल गांधी वाक़ई आपको बेहद शालीन नज़र आएंगे.
आप राहुल गांधी से गंभीर होने की उम्मीद करते हैं. वह भी राजनीति
में. क्या आपको ख़ुद नहीं लगता कि यह सरासर अन्याय है? कुछ लोग
यह भी उम्मीद पाल लेते हैं कि राहुल के बाद प्रियंका सँभालें कांग्रेस. सही पूछिए तो
यह दोनों पर अत्याचार है.
यह प्रश्न आपसे लगाकर नहीं करूंगा. वरना बुरा मान जाएंगे. पर
सोचना तो आपको ही पड़ेगा और उतनी ही समानुभूतिपूर्वक. ज़रा सोचिए किसी के होश सँभालने
से पहले उसके परिवार में बेहद त्रासद परिस्थितियों में दो जानें गई हों... वह भी इसी
राजनीति के चलते... क्या उसके मन में राजनीति के प्रति कोई लगाव बचेगा? क्या आपको
नहीं लगता कि राहुल गांधी जितनी राजनीति निभा ले रहे हैं, सच
पूछिए तो झेल ले रहे हैं, वह बहुत है?
© इष्ट देव
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सुस्वागतम!!