हरिशंकर राढ़ी
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भीमाशंकर मंदिर का एक विहंगम दृश्य छाया : हरिशंकर राढ़ी |
भीमाशंकर की पहाड़ियाँ और वन क्षेत्र शुरू होते ही किसी संुदर प्राकृतिक और आध्यात्मिक तिलिस्म का आभास होने लग जाता है। सहयाद्रि पर्वतमाला में स्थित भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग कई मामलों में अन्य ज्योर्तिलिंगों से अलग है, और उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि यह आरक्षित वन क्षेत्र में स्थित है, जिसके कारण इसका अंधाधुंध शहरीकरण नहीं हो पाया है। यह आज भी पर्यटकीय ‘सुविधओं’ के प्रकोप से बचा विचित्र सा आनंद देता है। वैसे सर्पीली पर्वतीय सड़कों पर वाहन की चढ़ाई शुरू होते ही ऐसा अनुमान होता है कि हम किसी हिल स्टेशन की ओर जा रहे हैं और कुछ ऐसे ही आनंद की कल्पना करने लगते हैं। किंतु वहां जाकर यदि कुछ मिलता है तो केवल और केवल भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग तथा साथ में समृद्धि प्रकृति का साक्षात्कार। पुणे से लगभग सवा सौ किलोमीटर की कुल दूरी में पर्वतीय क्षेत्र का हिस्सा बहुत अधिक नहीं है, किंतु जितना भी है, अपने आप में बहुत ही रोमांचक और मनोहर है।
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भीमाशंकर मंदिर का सम्मुख दृश्य छाया : हरिशंकर राढ़ी |
जनवरी का महीना था। दिल्ली में भयंकर ठंड पड़ रही थी। उसपर हमारी गाड़ी सुबह की थी। दिल्ली से प्रातःकाल निकली हमारी ट्रेन पुणे अगले दिन करीब 11 बजे पहुँची तो वहां मौसम एकदम सुहावना था। सर्दी का नामो-निशान नहीं, बल्कि हाल यह था दिल्ली से पहने हुए गरम कपड़े बोझ लग रहे थे और ट्रेन में ही उन्हें निकाल देना पड़ा। मेरे एक दूर के रिश्तेदार मिश्र जी रेलवे स्टेशन पर हमें लेने पहुंचे हुए थे। मैं और मेरे एक मित्र, हम कुल दो जने थे। मिश्र जी मेरे मित्र के गांव के हैं और पुणे में ही रहते हैं। इसलिए नई जगह की दिक्कतों का हमें सामना नहीं करना पड़ा।
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भीमाशंकर मंदिर का प्रातः दृश्य छाया : हरिशंकर राढ़ी |
पुणे से भीमाशंकर तक की यात्रा हमें बस से करनी थी, वह भी प्राथमिकता के आधार पर सरकारी बस से। सरकारी बसें भौतिक रूप से भले ही थोड़ी खराब हों और औसत आय के लोग यात्रा करते हों, इनपर विश्वास किया जा सकता है और ये सुरक्षित भी होती हैं। यद्यपि यात्रा प्रारंभ करने से पूर्व ही मैंने बहुत सी जानकारियां जुटा लीं थीं, फिर भी कुछ अधूरा तो रह ही जाना था। पुणे में रिश्तेदार पहले तो अपने यहां चलने की बात पर अड़े, लेकिन इस प्रतिज्ञा पर कि अगले दिन हम लौटकर उन्हीं के यहां ठहरेंगे और पुणे घूमेंगे, वे मान गए। पुणे में दो बस अड्डे हैं - शिवाजी नगर और स्वार गेट। भीमाशंकर, महाबलेश्वर आदि के लिए बसंे स्वार गेट बस अड्डे से जाती हैं। स्वार गेट बस अड्डा रेलवे स्टेशन से लगभग दस-बारह किलोमीटर होगा। यही ज्ञान हमारी अगली महाबलेश्वर यात्रा में काम आया।
स्वार गेट बस अड्डे से भीमाशंकर के लिए महाराष्ट्र रोडवेज की एक बस मिल गई। लगभग एक बजे यह बस पुणे से भीमाशंकर के लिए चल पड़ी और हम शहर से निकलते ही यात्रा का आनंद लेने लगे। राश्ट्रीय राजमार्ग संख्या 60 से होते हुए बस गंतव्य की ओर दौड़ने लगी। जनवरी का महीना था और सड़क के दोनों किनारों पर हरी-भरी फसलें लहलहा रही थीं। इस क्षेत्र में रबी के मौसम में भी मक्के की खेती होती है। खेतों में चरते हुए पशुओं के झंुड, सुखद हवा और रम्य वातावरण यात्रा को सुखद बना रहे थे। बस सरकारी थी और भरी हुई थी। जगह-जगह सवारियों को उतारते चढ़ाते हुए चल रही थी। दक्षिण भारत की अनेक यात्राओं में मैंने देखा कि लंबी दूरी की सरकारी बसें चलती तो तेज हैं किंतु रास्ते भर सवारियां उतारती-चढ़ाती हैं और अपने यहां की भाषा में कहें तो लोकल का आनंद देती हैं। पुणे से आगे निकलने के बाद भीमाशंकर जाने के दो रास्ते हो जाते हैं। एक रास्त घोड़ेगांव होकर जाता है तो दूसरा मंचर होकर। जहां तक मुझे याद है, मेरी बस मंचर होकर गई थी और वहां लंबा विश्राम भी लिया था।
भीमाशंकर पहुंचे तो शाम के लगभग पांच बज रहे होंगे। मुझे अंदाजा था कि यहां भी अन्य तीर्थस्थलों या पर्यटन स्थलों की तरह होटलों के एजेंट घेरेंगे, पकाएंगे और होटल के लिए जान मुश्किल में कर देेंगे। लेकिन यहां तो स्थिति कुछ उलटी ही थी। एक सूना-सूना सा स्थान, केवल कुछ बसें खड़ीं, उनमें से भी पर्यटक बसों की संख्या अधिक। न कोई भीड़-भाड़ और न कोई पूछने वाला। बस से उतरकर शरीर सीधा किया। मंदिर का रास्ता पूछा और आगे बढ़ गए। अनजान जगह पर पूछताछ करना ठीक होता है, लेकिन एक सीमा तक। ज्यादा पूछने में भी आपके अनाड़ीपने की बू आती है। यहां तो न कोई बाजार जैसा माहौल, न अट्टालिकाएं और न होटलों की लाइने। खैर, हम दोनों थोड़ी दूर आगे बढ़े तो एक बुझे से आदमी ने मरे से स्वर में पूछा -‘होटल लेना है?’ हमने जवाब नहीं दिया और आगे बढ़ गए। फिर भी उसने अपने तईं एक मरी सी गली की ओर इशारा कर दिया और जो हम सुन सके, उसने कहा कि यहां आपको अच्छे होटल नहीं मिलेंगे, आपको यहीं आना पड़ेगा। साथ में जो सज्जन थे, षांत रहना और धैर्य रखना उनके लिए बहुत ही मुश्किल है, किंतु मेरी वजह से ज्यादा सक्रियता नहीं दिखा पा रहे थे। हम उस बुझे आदमी को अनसुना करके आगे बढ़ गए।
और उसकी बात सच निकली कि वहां अच्छे होटल नहीं मिलेंगे। जो एक - दो मिले, उन्हें होटल नहीं कह सकते थे। किसी के घर की दूसरी मंजिल पर अस्थायी सा एक ढांचा - पटिया, चद्दर या किसी ऐसी ही सामग्री से बना हुआ एक या दो कमरा जिसमें गुजारा हो सके या जिसे किसी तरह छत का नाम दिया जा सके। एक ऐसे ही सुरंगनुमा ‘होटल’ में घुसे और किराया पूछा तो कुछ घृणा जैसी मनःस्थिति पैदा हुई। लुब्बे-लुवाब यह कि वहां से खिसकना पड़ा - इस निःशुल्क चेतावनी के साथ कि बाद में आएंगे तो यह भी नहीं मिलेगा और यह कि यहां होटल नहीं हैं। यह इलाका वनक्षेत्र संरक्षित है और यहां निर्माण की अनुमति नहीं हैं। वहां से निकले तो मेरा मन हुआ कि पहले वाले को ही देख लिया जाए। तब तक मित्र महोदय को एक धर्मशाला नजर आ गई और उनके कदम उधर ही बढ़ गए। धर्मशाले के बाहरी रूप रंग से ही मुझे अनुमान लग गया कि यहां तो गुजारा हो नहीं सकता। समय ही व्यर्थ करने हम जा रहे हैं क्योंकि मित्र महोदय को अनुमान से अधिक सीधी बात पर भरोसा था। अनमने मन से हमारा स्वागत हुआ। बताया गया कि कमरा तो मिल जाएगा, किराया सौ या डेढ़ सौ लगेगा। इससे पहले कि कमरा देखा जाए, जनाब ने बताया कि शौच के लिए जंगल में जाना पड़ेगा। यहां शौचालय नहीं है। क्यों ? इसलिए कि यहां पानी की भीषण समस्या है और पानी पांच किलोमीटर दूर से रिक्शे - रेहड़ी पर केन में भरकर लाया जाता है। उम्र का एक बड़ा हिस्सा उत्तर भारत के एक सुविधाहीन गांव में बिना शौचालय के गुजारने के बावजूद इस अनजान अभयारण्य में साहस नहीं हुआ। अंधेरा घिर रहा था और समीप के जंगल से गीदड़ और न जाने किन -किन जानवरों की आवाजें आ रही थीं।
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भीमाशंकर मंदिर के पृष्ठ में हरिशंकर राढ़ी |
अब मैंने और अधिक समय गंवाए बिना, जल्दी से पहले वाले मरे से आदमी की गली में भागना उचित समझा। खैर यह जल्दबाजी कुछ हद तक कामयाब रही क्योंकि पहुंचते-पहुंचते एक तीन विस्तरों वाला कमरा हमें मिल गया। दो विस्तरों का कमरा उठ चुका था। लिहाजा उस लाॅज में (संभवतः जिसका नाम चेतन लाॅज था) तीन विस्तरों वाला कमरा ले लेने में ही भलाई थी। किराया छह सौ रुपये। मित्र ने मोलभाव किया तो इतना ही हो पाया कि वह छह सौ में ही चार-पांच बाल्टी पानी दे देगा। पानी का वही रोना कि एक बाल्टी पानी वहां पर बीस या पच्चीस रुपये का। और यह भी कि मंदिर में दर्शन हेतु जाने से पूर्व भोर में ही वह नहाने के लिए दो बाल्टी पानी गरम भी कर देगा। हाँ, शौचालय था किंतु अटैच नहीं, काॅमन।
भीमाशंकर के दर्शन: तथाकथित लाॅज में अपना-अपना बैग फेंक व हाथ-मुंह धोकर हम भीमाशंकर के दर्शन के लिए निकल पड़े। बड़ी मुश्किल से पांच सौ मीटर दूर रहा होगा वह लाॅज से। हाँ, मंदिर काफी नीचे है और लगभग दो सौ सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं। सीढ़ियां बहुत चैड़ी हैं और लगातार नहीं हैं, इसलिए अधिक कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता है।
मंदिर एक तरह से तलहटी में है। इसकी प्राचीनता इसकी दीवारों और बनावट से जाहिर हो जाती है। मंदिर आकार- प्रकार में बहुत विशाल तो नहीं है किंतु बनावट एवं महत्त्व के कारण एक गहन आध्यात्मिक वातावरण की अनुभूति अवश्य कराता है। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है जो आकार में छोटा ही है। अन्य मंदिरों की भांति इसमें गर्भगृह के सम्मुख एक मंडपम है जिसमें ज्योतिर्लिंग की दिशा में नंदी की मूर्ति है। दीवारों से छत तक पत्थर के टुकड़ों से निर्मित है और दक्षिण भारतीय नागरा शैली को अपनाया गया है।
जब हम पहुँचे तो अंधेरा घिर रहा था। सायंकालीन आरती की तैयारियाँ हो रही थीं। मंदिर में कम ही भक्त उपस्थित थे। संभवतः अधिकांश यात्री दर्शनोपरांत शाम तक वापस लौट जाते हैं क्योंकि ठहरने की समस्या तो है ही। स्थानीय आबादी भी कम है और जिस दिन हम गए थे, उस दिन न कोई पर्व और न त्योहार। अतः जिस तरह की शांति किसी मंदिर में होनी चाहिए, वैसी ही थी। आरती के बाद मित्र ने पुजारी से बात की तो उसने अगले दिन एकदम प्रातः आने की सलाह दी। प्रातःकालीन शृंगार से पूर्व लिंग का रजत आवरण हटाकर सफाई की जाती है और उस समय के दर्शन को कुछ लोग बहुत अधिक महत्त्व देते हैं। जैसा कि मैंने पहले ही बताया, मित्र अत्यंत धार्मिक स्वभाव के हैं, इसलिए यह तय किया गया कि अगली सुबह चार बजे ही मंदिर परिसर में उपस्थित हो जाएंगे।
जिस प्रकार भीमाशंकर में ठहरने के विकल्प सीमित हैं, उसी प्रकार भोजन के लिए भी विकल्प सीमित हैं। ले-देकर एक ढाबा जैसा भोजनालय जिसमें दाल-रोटी और एक - दो सब्जी ही उपलब्ध थी। रेस्तरां का तो दूर-दूर तक नामो-निशान नहीं। खैर, मेरे लिए इतना बहुत है, समस्या उन लोगों के लिए है जिनके लिए भोजन बहुत बड़ी चीज है और जो बहुत महंगा और विविधतापूर्ण आहार लेकर ही स्वयं को धन्य और बड़ा मानते हैं। जो भी था, खा-पीकर हमने तीन बजे प्रातः का अलार्म लगाया और सो गए।
प्रातः दर्शन: भोर में समयानुसार उठकर हमने लाॅज मालिक को जगाया और गरम पानी की मांग की। ठंड तो ज्यादा नहीं थी, फिर भी सामान्य पानी से नहाना संभव नहीं था, सामान्य पानी भी उसी के पास था। जब तक अन्य कार्यों से हम निवृत्त हों, उसने एक-एक करके दो छोटी बाल्टी गरम पानी उपलब्ध करा दिया। मजे की बात यह हुई कि पानी कुछ अधिक ही गरम हो गया था और हमारे पास ठंडा पानी था नहीं कि उसे मिलाकर सामान्य कर लें। जैसे-तैसे बच-बचाकर नहाने की औपचारिकता पूरी की गई और हम एक बार पुनः अंधेरे में सीढ़ियाँ उतरते, कुत्तों की भौंक खाते मंदिर परिसर में उपस्थित।
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भीमाशंकर मंदिर की सीढ़ियों का दृश्य छाया : हरिशंकर राढ़ी |
प्रातःकालीन दर्शन अपेक्षा के अनुरूप रहा। मित्र ने पुजारी से अग्रिम परिचय कर लिया था, सो पूजा-दर्शन उन्होंने मन से कराया। भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग में पुजारियों की लूट-पाट का कोई आंतक नहीं है। कम से कम हमें तो कोई भी ऐसा पंडित-पुजारी नहीं मिला जिसने पैसे की मांग की हो या भोजन इत्यादि के नाम पर उगाही करनी चाही हो। जो भी दिया, स्वेच्छा या बलपूर्वक ही दिया। बहुत अच्छा लगी यह स्थिति। प्रातःकाल मंदिर का प्रांगण बहुत ही सुंदर लग रहा था और दूर मंदिर से ऊँचाई पर फैली पहाड़ियां वातावरण को मनोरम बना रही थीं। चहुंओर प्राकृतिक हरीतिमा एक अलग ही रंग जमा रही थी। सुबह की गुनगुनी धूप प्रांगण में ही रोके रखना चाहती थी। धीरे-धीरे भक्तों की संख्या बढ़ने लगी थी। नौ-दस बजे तक पुणे और अन्य नगरों से यात्री पहुंचने लगते हैं और देखते-देखते भीमाशंकर की नीरवता चहल-पहल में बदल जाती है। दोपहर बाद हमें पुणे लौटना था। अभी कुछ अन्य जगहें भी घूमनी थीं, इसलिए हम भीमाशंकर लिंग को प्रणाम कर वापसी की सीढ़ियां चढ़ने लगे। हमारे मन और होठों पर भीमाशंकर स्त्रोत बार-बार आ रहा था। सीढ़ियों पर प्रसाद स्वरूप ताजा बनते हुए पेड़े, औटता हुआ दूध बहुत ही लुभाता है और पेड़े खरीदने से षायद ही कोई बच पाता हो। न जाने फिर कब आना होगा इस भूमि पर, यही सोचते और भीमाशंकर स्त्रोत को सुनते हम अपने तल पर एक बार फिर वापस।
यं डाकिनीशाकिनिकासमाजे निशेव्यमाणं पिशिताशनैश्च।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शंकरं भक्तहितं नमामि।।
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भीमा नदी के उद्गम की ओर वनपथ |
भीमा उद्गम की ओर: भीमाशंकर वस्तुतः भीमा नदी के उद्गम पर बसा हुआ है और इसी कारण इस ज्योतिर्लिंग का नाम भीमाशंकर है। भीमाशंकर एक बहुत बड़ा वनक्षेत्र तो है ही, भीमा नदी का उद्गम भी यहीं है। कथा के अनुसार भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति भीमा नदी के उद्गम पर ही है जो मंदिर से लगभग दो किलोमीटर से अधिक दूरी पर गहन वन में स्थित है। पगडंडियों से ही जाना होता है और वन में हिंसक जन्तु भी रहते हैं। एक बार रास्ता भटके तो लौटना बहुत ही कठिन। जहां हमने चाय पी, वहीं मालूम हुआ कि भीमा नदी के उद्गम तक पथ प्रदर्शक के रूप में किसी न किसी को ले जाना पड़ेगा। अब तो पूरा ध्यान नहीं है, लेकिन दूकानदार ने ही एक 12-14 साल का लड़का सौ - दो सौ रुपये में हमारे साथ गाइड के तौर पर लगा दिया। लड़का बहुत वाचाल और मनमौजी था। उसके साथ हम कुछ डरते तो कुछ आनंदित होते भीमा नदी के उद्गम पर पहुंच गए।
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भीमा नदी के उद्गम पर शिवलिंग |
जनवरी महीने में भीमा में पानी तो कहने मात्र को था। एक झरनेनुमा स्थान के पास एक अत्यंत छोटी सी मढ़िया बनी हुई थी और पास में एक शिवलिंग जैसी आकृति पर कुछ फूल चढ़े हुए थे। कहा जाता है कि भीमाशंकर की उत्पत्ति यहीं पर हुई थी।
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भीमा नदी का उद्गम छाया : हरिशंकर राढ़ी |
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भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति: भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति के संबंध में एक कथा विख्यात है। कहा जाता है कि डाकिनी वन (आज का भीमाशंकर वनक्षेत्र) में राम-रावण युद्ध के पश्चातकाल में कर्कटी नामक राक्षसी अपने महाबलवान पुत्र भीमा के साथ रहती थी। कर्कटी लंकेश्वर रावण के भाई कुंभकर्ण की पत्नी थी, वही कुंभकर्ण जो अपनी षट्मासी निद्रा के लिए प्रसिद्ध है और जो राम के हाथों मारा गया था। कर्कटी ने अपने पुत्र भीमा को उसके पिता के विषय में कुछ नहीं बताया था और यह रहस्य भीमा को परेशान किए रखता था। एक दिन भीमा के अति हठ के बाद कर्कटी ने राम -रावण युद्ध का वर्णन किया और बताया कि उसके पति और भीमा के पिता कुंभकर्ण श्री विश्णु के अवतार अयोध्या के राजा श्री राम के हाथों मारे गए थे। तब से वह इसी प्रकार दुखों का पहाड़ उठाए भटक रही है। यह सुनकर भीमा को बहुत क्रोध आया तथा उसने विष्णु से अपने पिता का बदला लेने का निश्चय किया।
भीमा को ज्ञात था कि विष्णु से बदला लेना इतना आसान नहीं है, इसलिए उसने ब्रह्मा की घोर तपस्या की और उनसे अतुलित शक्ति प्राप्त कर ली। इसके बाद उसने मनुष्यों, ऋषियों और देवताओं पर भयंकर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया। देवराज इंद्र के स्वर्ग पर आक्रमण करके, इंद्र को पराजित करके स्वर्ग को अपने अधीन कर लिया। तीनों लोकों में उसका आतंक हो गया। सभी देवता मिलकर भगवान शिव के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि वे उन्हें भीमा के आतंक से रक्षित करें। भगवान शिव ने देवताओं को उनकी रक्षा का आश्वासन दिया। एक बार उसने परम शिवभक्त कामरूपेश्वर को बंदी बना लिया और उनपर अतिशय अत्याचार करने लगा। एक दिन भीमा ने कामरूपेश्वर को आदेश दिया शिव के बजाय उसकी पूजा करे। कामरूपेश्वर के मना कर देने पर क्रोधित हो उसने तलवार निकाल ली और शिवलिंग पर वार करने ही जा रहा था कि भगवान शिव प्रकट हो गए। शिव - भीमा में भयंकर युद्ध हुआ तथा देवर्षि नारद की प्रार्थना पर भगवान शिव ने भीमा का वध कर दिया। देवतागण प्रसन्न हुए और शिव से प्रार्थना की कि वे वहीं पर ज्योतिर्लिंग रूप में विराजें। भगवान शिव ने उनकी प्रार्थना मान ली और वे भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में डाकिन वन में स्थापित हो गए।
यह भी कहा जाता है कि युद्ध में शिव के शरीर से गिरी पसीने की बूंदों से भीमा नदी की उत्पत्ति हुई। एक अन्य कथा के अनुसार भगवान शिव ने यहीं त्रिपुरासुर का वध किया था और उस युद्ध में गिरे स्वेदकणों से भीमा नदी का जन्म हुआ था।
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भीमाशंकर वन में हनुमान मंदिर छाया : हरिशंकर राढ़ी |
आस-पास के दर्शनीय स्थल: भीमाशंकर मंदिर के आस-पास देखने के लिए प्रकृति में बहुत कुछ है। भीमाशंकर अभयारण्य अपने आप में एक बड़ा आकर्षण है। इस अभयारण्य में विभिन्न प्रकार के पक्षी और वन्य जंतु बहुतायत में देखे जा सकते हैं । हमारे पास समय कम था, अतः अभयारण्य घूमने की इच्छा अधूरी ही रह गई। हाँ, प्रकृति के साहचर्य में मुझे अकूत संतोष मिलता है, इसलिए जो भी मिल जाए उसे छोड़ना नहीं चाहता। भीमा उद्गम से वापसी के बाद पता लगा कि कुछ दूर जंगल में हनुमान जी का एक प्रसिद्ध मंदिर है। दूरी लगभग दो किलोमीटर होगी, पैदल का ही रास्ता है। इतना समय हमारे पास था और हम निकल पड़े जंगल की ओर। वास्तव में सहयाद्रि पर्वत माला का यह हिस्सा बहुत ही सौंदर्यशाली और हरा-भरा है। रास्तें में बहुत से युवक-युवतियां हनुमान मंदिर की ओर जाते मिले। हनुमान मंदिर तो कोई विशिष्ट नहीं है, किंतु यहां की शांति और एकांत मनमोहक था। इधर-उधर कूद-फांद करते हुए बंदर हमारा मनोरंजन कर रहे थे। निरभ्र वातावरण एक विशेष आनंदानुभूति दे रहा था। कुछ देर रुककर हम अपने लाॅज वापस आ गए। हनुमान लेक तथा अन्य स्थलों के भ्रमण का लोभ संवरण कर हम दोपहर बाद पुणे जाने वाली बस में भीमाशंकर की शांति और सौंदर्य मन में बसाकर वापस चल दिए।
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हनुमान मंदिर का एक दृश्य छाया : हरिशंकर राढ़ी |
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जरूरी जानकारियाँ: भीमाशंकर पुणे से लगभग 125 किलोमीटर की दूरी पर है और नियमित रूप से सरकारी तथा निजी बसें चलती रहती हैं। सरकारी बसें पुणे के स्वारगेट बस अड्डे से चलती हैं। पुणे से भीमाशंकर या तो मंचर या फिर घोड़ेगांव होकर जाया जाता है। दोनों रास्ते ठीक हैं। निजी गाड़ियां प्रायः घोड़ेगांव होकर जाती हैं। टैक्सियां भी हमेशा मिल जाती हैं। यदि आपका समूह 4-5 या इससे अधिक का हो तो टैक्सियां बेहतर रहेंगी। पुणे से भीमाशंकर दर्शन की निजी बसें भी चलती हैं जो पुणे से सुबह चलकर षाम को वापस छोड़ देती हैं। चूंकि भीमाशंकर में ठहरने की व्यवस्था अच्छी नहीं है, इसलिए इस सुविधा का लाभ उठाया जा सकता है। हाँ, भीमाशंकर से पहले अच्छी श्रेणी के होटल और रिजाॅर्ट मिल जाते हैं। यदि दो दिन का समय हो तो अभयारण्य, हनुमान लेक और ज्योतिर्लिंग के दर्शन ठीक से हो सकते हैं । यहां पूरे वर्ष जाया जा सकता है, किंतु यदि गर्मियों से बचा जाए तो बेहतर होगा।
From Maheshpur azamgarh happy to see you uncle . it'a coincidens i type our village Maheshpur on google and see your photos and blog.please explore the beauty of our village.keep it thanks
ReplyDeleteFrom Maheshpur azamgarh happy to see you uncle . it'a coincidens i type our village Maheshpur on google and see your photos and blog.please explore the beauty of our village.keep it thanks
ReplyDeleteIt's a pleasure to know that you are from maheshpur. As I have living in delhi for over 25 years, i don't know exactly about you because you may be from new generation. I have written much on Bhairo baba, maheshpur, Rarhis, Mahrajganj on this blog. you can search for it and can contact me.
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