Yudhishthir ka kutta by Hari Shanker Rarhi
Cover Page of Yudhishthir ka Kutta |
युधिष्ठिर का कुत्ता
व्यंग्य संग्रह
(लेखक हरिशंकर राढ़ी )
हरिशंकर राढ़ी का प्रथम व्यंग्य संग्रह " युधिष्ठिर का कुत्ता " अयन प्रकाशन मेहरौली नई दिल्ली से प्रकाशित होकर आ गया है. यह कुल सोलह व्यंग्यों का संग्रह है जो लगभग बीस साल की अवधि में लिखे गए हैं। संग्रह की पृष्ठ संख्या 132 है और मूल्य 260 /- है. यह संग्रह अब हिंदी बुक सेंटर पर उपलब्ध है जो की साइट पर ऑन लाइन मंगाया जा सकता है. साथ ही स्नैपडील पर भी उपलब्ध है। इस संग्रह पर वरिष्ठ व्यंग्यकार सुरेश कांत कहते है :
कल शाम व्यंग्यकार हरिशंकर राढ़ी (Hari Shanker Rarhi) द्वारा भिजवाया गया उनका प्रथम व्यंग्य-संकलन 'युधिष्ठिर का कुत्ता' मिला। 132 पृष्ठों का 260 रुपये मूल्य वाला यह संकलन अयन
प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली-110030 ने छापा है, जिसमें भूमिका के अतिरिक्त उनके
पिछले 20 वर्षों
में लिखे गए 16 व्यंग्य
शामिल हैं।
छोटी-सी
भूमिका में उन्होंने कई बड़ी बातें कही हैं। एक तो यह कि यथार्थ-दर्शन का 'पुण्य'
हर आँख को नहीं मिलता और जब
मिल जाता है तो 'व्यंग्य'
का जन्म होता है। दूसरे,
उनके इस संकलन के प्रकाशन
का श्रेय उनके कई मित्रों की झिड़कियों को जाता है। तीसरे,
हिंदी-साहित्य में व्यंग्य
की दखलंदाजी और स्वीकार्यता बढ़ने के बावजूद उसके प्रभाव में कमी आई है। और उसका
संभावित कारण उन्होंने यह बताया है कि आज की राजनीति और समाज का पतन बेशर्मी की हद
तक हो चुका है; उसकी
खाल इतनी मोटी हो चुकी है कि उसे चोट लगती ही नहीं। दूसरी ओर,
आज का व्यंग्यकार कितना भी
गाल बजा ले, वह
कबीर नहीं हो सकता। चौथे, उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित परसाई ने किया और वह इसलिए कि
1990 के
आसपास उन्हें परसाई-रचनावली के छहों खंड पढ़ने का सौभाग्य मिल गया था। बाद में
अंग्रेजी-साहित्य के होरास वालपोल, जुवेनाल आदि के रोमन से अंग्रेजी में अनुवाद भी उन्होंने
पढ़े, जिससे
मुझे यह अतिरिक्त जानकारी मिली कि रोमन भी कोई भाषा है,
जबकि मैं उसे अब तक लैटिन
और अंग्रेजी भाषाओं की लिपि ही समझता आया था। व्यंग्य और हास्य के संबंध में भी
उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं, जैसे यह कि उसे न तो पूरी तरह नकारा जा सकता है और न ही
स्वीकार किया जा सकता है। फिर उन्होंने संकलन में संकलित अपने व्यंग्यों के बारे
में बताया है कि वे (दूसरों की तरह) किसी कॉलम के दबाव में नहीं लिखे गए हैं और न
मौसमी पकवान ही हैं। और अंत में उन्होंने पुनः अपने कोंचने वाले मित्रों और
हितैषियों के साथ-साथ प्रकाशक को भी धन्यवाद दिया है।
शेष पुस्तक पूरी पढ़ने के बाद। तब तक आप भूमिका में लिखी उनकी विचारोत्तेजक स्थापनाओं पर विचार करें, खासकर इस पर कि व्यंग्य की दखलंदाजी और स्वीकार्यता बढ़ने के बावजूद उसका प्रभाव कम क्यों हुआ है और क्या वाकई ऐसा है या लेखक की नजरों से कम प्रभावित करने वाली रचनाएँ ही गुजरीं और उन्होंने उनके आधार पर ही यह धारणा बना ली?

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