हहुआए विशेषज्ञ और कश्मीर का भविष्य


बांडीपुरा से सीधे पूरब बढ़ें तो लद्दाख मंडल के करगिल जिले की सीमा आ जाती है। हालांकि खास करगिल वहाँ से बहुत दूर है। थोड़ा उत्तर होकर पूरब की ओर बढें तो एक तरफ करगिल और दूसरी ओर बाल्टिस्तान की सीमा है। सीधे उत्तर भी जाएं तो बाल्टिस्तान की सीमा आ जाएगी। इससे उत्तर पश्चिम की ओर बढ़ें तो गिलगित है। बांडीपुरा जिले की उत्तरी सीमा पर पूरा गिलगित ही गिलगित है।

गिलगित और बाल्टिस्तान दोनों फिलहाल पाकिस्तान के कब्जे में हैं। लेकिन उसके कब्जे वाले कश्मीर की ही तरह गिलगित-बाल्टिस्तान में भी लगातार इस बात की माँग चल रही है कि उन्हें भारत में मिलने दिया जाए। यह आंदोलन दिन-ब-दिन जोर पकड़ रहा है। वहाँ के स्थानीय लोग अपने को लद्दाख का विस्तार और भारत का अभिन्न अंग मानते हैं।

बांडीपुरा कभी बारामुला जिले का हिस्सा था। बारामुला वस्तुतः वाराह मूल का अपभ्रंश है। इसका पश्चिमी छोर कश्मीर के उस हिस्से से मिलता है जो अब पाकिस्तान के कब्जे में है। मशहूर स्की रिसॉर्ट गुलमर्ग और गुलमर्ग वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरी, ये दोनों बारामुला में ही आते हैं। वह उरी सेक्टर भी इसी जिले के पश्चिमी छोर, यानी कश्मीर के पाकिस्तानी कब्जे वाले हिस्से से लगा हुआ है।

सुरक्षाबलों को सबसे ज्यादा एहतियात बरतने की जरूरत अगर कहीं होती है तो यहीं होती है। इसके आसपास दोबंग, चकोती, बाग आदिअ झेलम नदी के आसपास की ये सब जगहें कई वजहों से बहुत संवेदनशील हैं। मजबूर हो जाने पर कोई भी, कैसी भी और कुछ भी संधि कर लेना और गर्दन से आपकी पकड़ ढीली होते ही संधि और अंतरराष्ट्रीय विधि-विधानों की ऐसी-तैसी कर देना ही पाकिस्तान की फितरत है। सीधे युद्ध की हिम्मत उसमें है नहीं, तो इस क्षेत्र की प्राकृतिक बनावट का फायदा उठाकर दहशतगर्दों को भेजने में ही उसे अपनी सारी काबिलीयत दिखाई देती है।

इस इलाके की प्राकृतिक बनावट ही ऐसी है कि मानवीय आँखें कैसी भी चौकस हों, चूक हो जाती है। जब आप धरती से दो किलोमीटर ऊपर किसी पहाड़ी पर बने बंकर से जमीन की सतह से भी बहुत नीचे नदी की तलहटी में देख रहे होते हैं तो आपके पास कैसी भी दूरबीन हो इंसान ही नहीं, हाथी भी चींटी नज़र आता है। 2016 का पाकिस्तानी गीदड़ों का हद दर्जे का कायराना हमला ऐसी ही किसी चूक का नतीजा था।

इन दोनों जिलों की आधे से अधिक आबादी बेहद गरीब है। काम के नाम पर लोगों के पास भेड़-बकरियों की चरवाही है, कुछ छोटे-मोटे हस्तशिल्प हैं, थोड़ी-बहुत खेती या छोटे-मोटे व्यापार हैं। इससे बचे लोग या तो छोटी-बड़ी नौकरियों में हैं या फिर कुलीगीरी जैसे कामों में। मध्यवर्ग की भी ठीक-ठाक आबादी है। वह मध्यवर्ग ही है, जिसके नाते इस पूरे क्षेत्र या कहें, पुराने बारामुला जिले को जिसमें आज का बांडीपुरा भी शामिल था, विद्या और कश्मीरी संस्कृति का गढ़ समझा जाता था।

इस छोटे से कस्बे ने भारतीय मनीषा को कई विद्वान दिए हैं। इतिहासकार हसन खुइहामी यहीं के थे। खुइहामी वह शख्सीयत हैं जिन्होंने उन राजाओं की भी पहचान की जो राजतरंगिणी में कल्हण से छूट गए हैं। हालांकि उस वक़्त उनकी कब्र भी अतिक्रमण की शिकार हो चुकी थी। 1947 से पहले तक यह कस्बा साहित्य और व्यापार दोनों का बड़ा केंद्र था। कह सकते हैं कि अवशेष रूप में अभी भी है, लेकिन बस अवशेष रूप में ही।

एक और बात, भारत के किसी क्षेत्र के मध्यवर्ग की तरह यहाँ का मध्यवर्ग भी अमूमन वित्तीय रूप से बस इतना ही सक्षम है कि वह भी भूखा न रहे और साधु न भूखा जाए। पूरे भारत की तरह यहाँ भी मध्यवर्ग और गरीब वर्ग के बीच आम तौर पर इतना ही फासला है कि मध्यवर्ग ने अपने को जैसे तैसे ढक रखा है। इसका यह मतलब नहीं है कि यहाँ अमीर नहीं हैं। आखिर भारत के बजट में सबसे बड़ा वाला हिस्सा कश्मीर का रहा है। तो ऐसा हो कैसे सकता है कि यहाँ अमीर न हों। लेकिन सच यह है कि उस बजट का बंटवारा यहाँ उतना भी नहीं होता रहा है जितना कांग्रेसी दौर के बाकी भारत में ईमानदारी से या खैरात में हो जाता रहा है।

बजट की सारी आवक केवल कुछ मुट्ठी भर परिवारों में सिमट कर रह जाती रही है। कोई इन गिनती के परिवारों से बहुत ज्यादा जुड़ गया तो हो सकता है कि उसके छींटे उस तक भी आ जाएं। बस इससे ज्यादा नहीं। अधिकतर आबादी अपने हाड़ पेरने और खून गारने वाली कमाई तक ही सीमित है। यही गरीबी और बेकारी उसे मजबूर बनाती है। इस गरीबी को और सघन बनाती है प्रभावशाली लोगों और उनके कुछ बेहद करीबी चमचों की ओर से भेजी गई सामाजिक लानत।

जो इस लानत को भी नहीं मानता, उसे जो जिल्लत नसीब होती रही है, उसकी कल्पना आप यहाँ दिल्ली या दौलताबाद या भोपाल या इलाहाबाद में बैठकर नहीं कर सकते। जब तक आप उसकी कल्पना नहीं कर सकते तब तक यहाँ बैठे-बैठे केवल वहाँ से आ रही आतंकी घटनाओं और पत्थरबाजी की खबरें पढ़कर और टीवी पर चल रही बेतुकी और बेहूदा बहसें सुनकर कभी यह अपने हलक से नीचे उतार ही नहीं सकते कि कश्मीरी भी अपने दिल से उतने ही हिंदुस्तानी हैं, जितने हम-आप। अगर आप इसकी कल्पना कर ले गए तो आपको लगेगा कि उनके दिल में जो भारतीयता है, वो शायद हमसे आपसे भी कहीं ज्यादा है। कम से कम इससे कम तो नहीं ही है।

पिछली पोस्ट में सफरनामे और इन बातों का जिक्र मैंने सिर्फ़ इसलिए किया क्योंकि अभी कश्मीर में अनुच्छेद 370 के समापन और उसे संघशासित क्षेत्र बनाए जाने के बाद से भविष्य की स्थितियों को लेकर पानी के बुलबुले की तरह उग आए विशेषज्ञों के विश्लेषण जब आप पढ़ें तो इन बातों का खयाल रखें। आदरणीय भाई प्रदीप सिंह से एक शब्द उधार लूँ तो इस समय सबसे खतरनाक हहुआए हुए विशेषज्ञ ही हैं।

©इष्ट देव सांकृत्यायन

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