ऋषियों-सूफियों की साझी विरासत



दिल्ली को तो मैं शहर मानता ही नहीं। मेरी नजर में यह एक बहुत बड़ा बाजार है और बाजार को घेरे हुए कारखाने हैं। यहाँ अगर बीच-बीच में स्थानीय लोगों के पुराने गाँव और उनकी मूल आबादी न बची होती तो मुझे लगता है कि इंसान दिखाई भी नहीं देते। दोपायों के नाम पर जो होते वो या तो बाजार के व्यापारी और खरीदार होते या फिर कारखानों के पुर्जे। ये सिर्फ इस इलाके के ओरिजनल गाँव हैं जिनके होने से यहाँ ज़िंदगी की धड़कन चल रही है। वरना राजनीति और उनसे जुड़े विद्यापीठों की साजिशें और कारखाने-बाजार की यूज़ एंड थ्रो वाली अपसंस्कृति से पैदा हुई नकारात्मकता दोनों मिलकर कब का यहाँ जिंदगी की साँसें लील गई होतीं।

शहर तो मुझे गोरखपुर भी नहीं लगता। अपनी मूल प्रकृति में मेरा पूरा शहर मुझे हमेशा एक बड़ा गाँव लगा। एक ऐसा गाँव जहाँ शहर एक चोर की तरह कभी इस गली तो कभी उस गली से निरंतर घुसपैठ बनाने की कोशिश कर रहा है। पता नहीं क्यों, पर मेरे भीतर एक विश्वास है कि शहर वहाँ अपने असल मकसद में कभी कामयाब नहीं होने वाला। हो सकता है, यह एक अंधविश्वास हो, पर है। ख़ैर, शहर मानना न मानना एक बात है, पर यह भी सच है कि दुनिया के किसी भी शहर को नापता मैं गोरखपुर के पैमाने पर ही हूँ। चाहे वह अमरीका का न्यूयॉर्क हो या नेपाल का बुटवल।

उस हिसाब से मुझे बांदीपुरा भी एक मझोला गाँव ही लगा। छह-सात मोहल्लों में बँटी अपने-आपमें सिमटी-सिकुड़ी छोटी सी आबादी है। उस आबादी की जरूरतें पूरी करने के लिए एक ऊँघता हुआ बाजार। कुछ सरकारी-गैर सरकारी दफ्तर। लेकिन इस गाँव में एक बड़ी विचित्र बात है। एक मरघटिया सन्नाटा आपको चारों ओर पसरा दिखाई देगा।

बेहद खूबसूरत बादल कई बार देखने में इतनी ही ऊँचाई पर लगते हैं कि हरमुख की पहाड़ियों पर चढ़ जाएं तो शायद छू लें। लेकिन एहसास ये हमेशा किसी अनहोनी सी लिए हुए होते हैं। ठहरी हुई जिंदगी इस कदर सिमटी-सिकुड़ी है कि हर नया चेहरा इन्हें भीतर से सिहरा देता है। आप थोड़े भी संवेदनशील हों तो उस सिहरन को आसानी से महसूस कर लेते हैं।

यह केवल दो कुनबों की बीते 70 साल से निरंतर चली साजिशों और उसके चलते पूरी कश्मीर घाटी में फैले आतंकवाद का नतीजा है। पूरी कश्मीर घाटी में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को किस तरह घुसाया और कैसे पाला-पोसा गया, यह आप कश्मीर के आम आदमी से बात किए बगैर नहीं समझ सकते। आम आदमी तब तक आपसे खुलकर बात नहीं करेगा जब तक आप पर उसे भरोसा न हो जाए और भरोसा वह तभी करेगा जब कोई स्थानीय व्यक्ति आपका पूर्व परिचित और भरोसेमंद हो।

हालांकि भय-आशंका की काली छाया के तले भी कहीं-कहीं ऐसे छोटे-छोटे कोने हैं जहाँ श्रद्धा है, विश्वास है और है थोड़ी सी सहज जिंदगी। ऐसी ही जगहों में एक है सदरकूट पईन। सदरकूट एक छोटा सा गाँव है, शहर से थोड़ी दूरी पर, वुलर झील के किनारे। इस गाँव में एक मजार है, सुबहान बाबा की। सुबहान बाबा एक पहुँचे हुए संत थे। अब चूँकि घाटी में हिंदू रह ही नहीं गए, तो दिखाई भी नहीं देते। वरना इनकी मजार पर हिंदू-मुसलमान सब समान श्रद्धाभाव से आया करते थे। उनके चमत्कारों के कई किस्से यहाँ लोक में प्रचलित हैं। लोग बताते हैं कि बाबा जब खुद थे तब यहाँ हर साल सूफियों की मजलिस हुआ करती थी और उसमें सैकड़ों सूफी आया करते थे।

झील के किनारे ही कस्बे से उलटी दिशा में एक और गाँव है मलंगम। यहाँ भी एक सूफी संत नंगा बाजी साहब की यादगार है। कसबे से उत्तर की ओर निकट ही हरमुख की पहाड़ियों की तरफ एक गाँव है चक्रीशपुरा। चक्रीश शब्द तो वास्तव में बना है चक्रेश्वर से। चक्रेश्वर अर्थात भगवान विष्णु। लेकिन अब बस नाम ही बचा है। यहाँ भी एक सूफी संत कौसर साहब की मजार है। कौसर साहब अफगानिस्तान से जाने कहाँ-कहाँ होते हुए यहाँ पहुँचे थे। यहाँ वे रहे थोड़े ही दिन थे, लेकिन प्रभाव बहुत है।

बांदीपुरा जिले की सीमा में ही एक जगह है दानेश्वर। कस्बे से दूरी तो केवल साठ किलोमीटर है, लेकिन पहुँचना मुश्किल है। यहाँ एक गुफा में शिवलिंग है। इस जागृत स्थान पर श्रावण पूर्णिमा को भक्तों की बड़ी भीड़ लगती है। इसे छोटा अमरनाथ भी कहा जाता है। यहाँ करगिल, लेह और जम्मू से बड़ी संख्या में लोग आते हैं।

इसी बांदीपुरा की एक तहसील है सुंबल सोनवारी। सुंबल में एक नंदकिशोर मंदिर है। हिंदुओं के पलायन कर जाने से कई साल से यह मंदिर खुला ही नहीं था। करीब दो साल पहले स्थानीय मुसलमानों ने मंदिर खोला। वहाँ सफाई आदि की और शिवरात्रि पर वहाँ पूजा हुई। यही नहीं, कश्मीरी हिंदुओं की वापसी के लिए उन्होंने रैली भी की।

जब मैं यह कह रहा हूँ तो इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं कश्मीर घाटी से हिंदुओं के पलायन के पीछे इस्लामी कट्टरवाद की भूमिका से इनकार कर रहा हूँ। लेकिन किसी की भूमिका होना, और किसी की मुख्य भूमिका होना दोनों में बड़ा फर्क होता है। कई बार जिसकी मुख्य भूमिका दिखती है, होती नहीं है। वह असल में टूल बन गया होता है किसी के हाथ का। क्योंकि भूमिकाओं के भीतर भी भूमिकाएँ होती हैं, और उनके भीतर भी। डिब्बे भीतर डिब्बी की तरह।

इन भूमिकाओं और कश्मीर की मूलभूत समस्या को समझने के लिए आपको कश्मीरियत को समझना पड़ेगा। यकीन मानिए, वह बाकी हिंदुस्तानियत या भारतीयता से जरा भी भिन्न नहीं है। बल्कि सच तो यह है कि मूल भारतीय परंपरा का स्रोत वही है। यह ऐसे ही थोड़े है कि कश्यप को मूल ऋषि माना जाता है। हालांकि कश्मीरियत को हिंदुस्तानियत से अलग करने की साजिशें बहुत हुई हैं, पर अलग वह आज भी नहीं हो पाई है। कभी हो भी नहीं पाएगी।

यह कश्मीरियत ऐसे ही बनती है – ऋषियों, सूफियों, मंदिरों और दरगाहों की शांति और सौहार्दपूर्ण ही नहीं, परस्पर सहयोगी परंपरा से। इस परंपरा को जान और भारतीय समाज की मौलिक मनोरचना को समझकर ही उन साजिशों की इस हद तक कामयाबी की वजहों को समझा जा सकता है। आप जानेंगे तो दुष्यंत की तरह ख़ुद कहेंगे -
एक गुड़िया की कई कठपुलतियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है।  
©इष्ट देव सांकृत्यायन

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