ऐसे भी दिन तूने देखे, ओए नूरू!!


 कवि त्रिलोचन शास्त्री एक बात कहा करते थे - अच्छी कविता वह नहीं है जो पूरी तरह बन्द रहे और वह भी नहीं जो पूरी तरह खुली हो। अच्छी कविता वह है जो थोड़ी खुली हो और थोड़ी बन्द। अच्छी कविता वह है जो पहली बार सुनने पर भी समझी जा सके और बाद में जितनी बार पढ़ी-सुनी जाए, उसके उतने नए-नए अर्थ, नए-नए भाव खुलें।

आजकल गाली गलौज को बिलकुल वैसे ही साहित्य का अभिन्न अंग माना जाने लगा है जैसे नंगेपन को सिनेमा और नंगई को राजनीति का। गजब यह है कि साहित्य वालों को सिर्फ अपने ही पढ़े-लिखे होने का भयावह और बीभत्स अहंकार है और इसलिए वे अपने पक्ष में गंभीर दिखने वाले अत्यन्त हास्यास्पद कुतर्क भी लिए आते हैं।

जुगुप्सा की इस बाढ़ ने व्यंजना के बिम्ब और प्रतीक जैसे उपकरणों के लिए कोई स्पेस ही नहीं छोड़ा है। जिनने पहले इन माध्यमों से गहरे सत्य को व्यक्त करने की कोशिश की है, आने वाले दिनों में उनका क्या होगा, यह सोचकर ही कभी कभी मन सिहर जाता है। वैसे भी संस्कृति की दुनिया में विकृतात्म राजनीतिक पिट्ठुओं के कब्जे ने कुपाठ और दुर्व्याख्याओं की आशंका को निरंतर बढ़ाया ही है और वह घटने का नाम भी नहीं ले रही है।

लोककथाओं की प्रवृत्ति यह है कि अभिधा में वे कोई बात ही नहीं करतीं। आध्यात्मिक कथ्य से जुड़ी लोककथाएं तो बिलकुल ही नहीं। मुझे लगता है कि चमत्कार को लोक साहित्य का एक अनिवार्य तत्व जो मान लिया गया है, उसकी वजह शायद यही है। बिंबों और प्रतीकों के जरिए एक चमत्कार का सृजन कर वे बहुत गहरे और बड़े सत्य की ओर इशारा कर रही होती हैं। एक ऐसे सत्य की ओर जिस तक शरीर के तल पर जीने वाला मन मुड़े ही नहीं। रास्ते को भी संकरा और दुर्गम बना देती हैं। पता नहीं क्यों?

ऐसे ही एक कथा जुड़ी है शेख नूरुद्दीन वली से। बहुत प्रीतिकर और बड़े गहरे अर्थों वाली। इस कथा के एक छोर शेख नूरुद्दीन या नंद ऋषि हैं और दूसरा छोर हैं लल्ल दय्द या लल्लेश्वरी।

कहते हैं कि नूरुद्दीन ने जन्म लेते ही अपनी मां का दूध पीने से मना कर दिया और लल्लेश्वरी के सामने आते ही उनका उनका दूध अपने आप पीने लगे। समझने वालों के लिए इसका अभिप्राय स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है। चमत्कार से हटकर देखें तो यह जनश्रुति अपने आप में आध्यात्मिकता की लौकिक परिभाषा है।

चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अब के कुलगाम जिले के कैमोह गांव के एक मुस्लिम परिवार में जन्मे शेख नूरुद्दीन सांसारिक कभी हो ही नहीं पाए। यह कैमोह गांव प्रशासनिक तौर पर है तो अब कुलगाम जिले में, लेकिन निकटता इसकी अनंतनाग से है। अनंतनाग जिले के मुख्यालय से इसकी दूरी सिर्फ १० किलोमीटर है। हां, रास्ता पहाड़ी और थोड़ा दुर्गम होने से समय थोड़ा अधिक लगता है।

कहते हैं कि शेख नूरुद्दीन थोड़े बड़े हुए तो तरूणावस्था में  उनकी शादी हुई और फिर उन्हें कुछ व्यापारियों के साथ काम पर लगाया गया। उनके पिता शेख सलाउद्दीन और मां सद्र मोजी की चाह यह थी कि नूर कुछ सीख-पढ़ कर व्यापार करें। पर नूर का मन सांसारिक बवाल में एक दिन न रमा। 

उन्हें एक से छुड़ा दूसरे, दूसरे से तीसरे और तीसरे से चौथे व्यापारी के साथ लगाया गया। पर सब बेकार। नूर का मन इन सांसारिक झमेलों में न तो रमना था और न रमा। आखिरकार वे सब छोड़-छाड़ कर जंगल चले गए। तप करने। हालांकि तब तक उनके तीन बच्चे हो चुके थे और उम्र ३० के करीब थी। जंगल भी गए तो टिके ऐसी जगह जहां किसी की नजर न पड़े। 

वह जगह कोई दूर नहीं थी। उनके गांव के पास ही जंगलों के बीच एक गुफा में। तब तो शायद कोई नहीं देख पाया पर कुछ श्रद्धालु अब गुफा तक जाते हैं। घने जंगल के बीच दो कद यानी आम कश्मीरी कद के लिहाज से लगभग १० से १२ फुट गहरी। तो यहां १२ साल तक वे तप करते रहे और किसी की नजर न पड़ी। 

हमारे कबीर ने जिस सत्य की ओर संकेत किया, उसे शायद उन्होंने खुद तप शुरू करने से पहले ही जान लिया था। कस्तूरी कुंडल बस जाए तो कौन ढूंढ पाता है! अब तप का कोई हिंदू या मुसलमान या यहूदी या पारसी ढंग तो क्या होगा। तप तो तप है। पर लोग कहते हैं तो मान ही लेते हैं।  लोक विश्वास यह है कि तप उन्होंने हिन्दू ढंग से किया।

जैसा कि पहले ही जिक्र में आ चुकी लोकश्रुति साफ संकेत देती है, वे शैशवास्था से ही लल्ल दय्द से अत्यंत प्रभावित थे, आगे भी उन्होंने लल्ल की सीख को प्रमुखतः अपनाया। 

शेख नूरुद्दीन की प्रतिष्ठा भी कश्मीर में तुलसी और कबीर जैसी ही है। लोक के संत और जनकवि। इनके पद वहां मुहावरे बन चुके हैं। बात बात में उनकी काव्य पंक्तियों का आना और कई बार तो अपनी पूरी बात ही लल्ल या नूर के माध्यम से कहना यहां लोगों की आदत में शुमार है।

यह मैंने जाना श्रीनगर से अनंतनाग की ओर लौटते हुए। मुझे आना तो था रामबन, पर बस अनंतनाग की मिली। मैंने भी सोचा चलो ठीक है। बकौल गालिब, सैर के वास्ते थोड़ी सी फिजा और सही। बैठ लिया।

मेरे बैठते ही एक वरिष्ठ नागरिक आए। लंबी सफेद दाढ़ी वाले, खालिस कश्मीरी लबादे में। उन्होंने कश्मीरी में ही कुछ कहा। बात मेरी समझ में न आनी थी, न आई। मैंने बेवकूफ की तरह उन्हें ताका और खड़ा होने लगा। उन्होंने झोले की ओर इशारा किया और ऊपर लगे रैक की ओर देखा। मैं समझ गया कि ये रैक पर रखना चाहते हैं और इसमें मेरी मदद चाहते हैं।

मैंने उनका झोला उठाकर ऊपर रख दिया और बैठ गया। फिर उन्होंने कुछ पूछा, खुद बैठने के बाद। मैंने कहा, मैं थोड़ी सी तो समझ लेता हूं कश्मीरी, पर आपका ठेठ लहजा और बिलकुल खालिस कश्मीरी मेरी पकड़ से बाहर है। क्या आप हिंदी में बात कर सकते हैं?

उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा, बाहर से आए लगते हो!
मैंने कहा, जी।
इस तरह थोड़ी ही देर में उनसे परिचय हो गया। कश्मीर के बारे में बातें होने लगीं। मैं जब भी आतंकवाद और राजनीति की कोई बात छेड़ता, वो धीरे से मेरा हाथ दबा देते। यानी कि, यह बात न करो।

बस चलकर अभी श्रीनगर से बाहर निकली ही थी कि एक सज्जन कंडक्टर पर उखड़ गए। चीखकर उन्होंने सभी यात्रियों का ध्यान खींचा। खैर, कंडक्टर ने उन्हें समझ बुझा कर शांत किया। बड़बड़ बड़बड़ फिर भी वे देर तक करते रहे। 

इस तरह बमुश्किल १० मिनट गुजरे होंगे कि वे बगल में बैठे यात्री पर चिल्लाने लगे। जैसे तैसे समझा-बुझा कर उन्हें चुप कराया गया। लेकिन कोशिश भी रंग नहीं ला पाई। थोड़ी ही देर में वे फिर चीखने लगे। 

मैंने धीरे से बगल के बुजुर्ग से पूछा, इस पागल को कंडक्टर उतार क्यों नहीं देता?
उन्होंने कहा, बोल न देना। चुप बैठो। वो बना हुआ पागल है। अपनी पहुंच का रौब दिखा रहा है। अच्छा है कि तुम बात नहीं समझ रहे।
मैंने उनसे पूछा कि बस में बेवजह पहुंच का रौब दिखाने की जरूरत क्या है? उन्होंने धीरे से कहा कि ये पता कैसे चलेगा कि वो अब्दुल्ला के किसी चमचे के चमचे के चमचे के चमचों का चमचा है? अभी देखना, कुछ लोग उसके आगे-पीछे दुम हिलाएंगे। जानते हो, नंद रेशी ने एक बात कही है - 
पोशिनी पोशिवरिय गरन
मोगुल गरन हुनिय वस
शाज शिनाले गरन
खर गरन गुह लीद ता तस

मैंने हिंदी में मतलब पूछा तो उन्होंने बताया -
उरियल (कोई चिड़िया) फूलों की बगिया ढूंढ़ती है, उल्लू चाहता है कोई निर्जन स्थान। सियारिन निर्जन स्थान पर नीरस कचरे में रस लेती है तो गधे को चाहिए गोबर और धूल।

नंद ऋषि से यही मेरा पहला परिचय था। यह जानने के बाद कि जिन्हें यह नंद रेशी कह रहे हैं, उनका असली नाम शेख नूरुद्दीन वली है और रेशी का अर्थ ऋषि है, मैंने जानना चाहा कि वे मुसलमान होकर उन्हें इस नाम से क्यों याद करते हैं। उन्होंने कहा, नंद रेशी उस जमाने में मुसलमान परिवार में पैदा होकर सबसे ज्यादा प्रभावित लल्ला से हुए, जब बड़ी संख्या में यहां हिन्दू मुसलमान बन रहे थे। जानते हो क्यों, क्योंकि हिंदू-मुसलमान जैसा बंटवारा सियासतदानों और मजहबी ठेकेदारों के अलावा बाकी किसी के काम का नहीं है। तुम्हारी पीढ़ी न जानती हो वो अलग बात है, पर हमारी पीढ़ी जानती है कि हमारे बाब्बे (पुरखे) एक हैं। मजहब बदल जाने से बाबे तो ना बदल जाने! जो नंद को माने वो लल्ला को कस ना माने। नंद ने तो खुद एक जगह अल्ला से दुआ की है कि वे उन्हें अपने तक लल्ला सी पहुँच दें।

समय तो बदलता रहता है, आदमी भी बदल जाता है। ऐसे ही कभी मजहब भी बदल गया। पर इससे क्या हम कुछ और हो गए? इससे क्या हमारे बाब्बे बदल गए? जिनके बाब्बे बदल जावें, उनके लिए जानते न क्या कहते? यह कहते हुए वे गहरे व्यंग्य से हंसे। देखो बदलाव पे नंद रेशी ने क्या कहा ‌-

अशाख सुय युस अश्कसती दाजे
सुन जन प्रजलिस प्रनानुय पन
अशकुन नर येस वलिंजी साजे
अदा मली वातिय सुय लमकन

[नंगा बदन और उस पर नदी के पानी को छू कर आती सर्द हवाएं
खाने को ढीली खिचड़ी और अधकचरी सब्जियां
ऐसे भी दिन तूने देखे, ओए नूरू!
बगल में बैठी मेरी बीवी और गर्म कम्बल में ढके हम दोनों
खाने को मिले सुस्वादु भोजन
ऐसे भी दिन तूने देखे, ओए नूरू!!]

कश्मीर की संस्कृति को बुनने में लल्ल और नंद जैसे कई और ऋषि और संत शामिल हैं। इनमें हब्बा खातून और अर्णिमाल जैसे कई नाम हैंकश्मीरी अवाम के लिए ये दोनों बराबर ही हैं। थोड़े-बहुत बदले नामों से हिंदू-मुसलमान सबमें समान रूप से सम्मान्य। और सबसे बड़ी खूबी यह कि कोई किसी को छोड़ने के लिए राजी नहीं है। न हिंदू मुसलमान ऋषियों या संतों को और न मुसलमान हिंदू ऋषियों और संतों को।  

फिर भी वहाँ वह सब हुआ जिसने घाटी को पूरी दुनिया में बदनाम किया। क्यों और कैसे? इसमें कश्मीर के आमजन की हिस्सेदारी और मजबूरी क्या है, इसे समझने के लिए समझदारी से भी ज्यादा तटस्थता और धैर्य की जरूरत है।

©इष्ट देव सांकृत्यायन


Comments

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-08-2019) को "सुख की भोर" (चर्चा अंक- 3433) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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