ऊँची लहरों वाली झील


रामबन से अनंतनाग की दूरी 100 किलोमीटर से कम ही है। लेकिन इसे तय करने में करीब चार घंटे लग जाते हैं और कभी-कभी ज़्यादा भी। अनंतनाग से बांडीपुरा की दूरी लगभग सवा सौ किमी होगी। यह दूरी तय करने में अमूमन पाँच से छह घंटे लगने ही हैं। दक्षिण से उत्तर की ओर देखें तो इसी दायरे में सिमटी है कश्मीर घाटी। श्रीनगर इन दोनों के लगभग बीच में पड़ता है। श्रीनगर से आगे चलकर बांडीपुरा के लगभग पास में एक झील है — वुलर लेक। लोग बताते हैं कि यह डल से भी बड़ी झील है और सौंदर्य तो इसका वाकई संसार के सारे सौंदर्य को फीका कर देने वाला लगता है। अद्भुत, अप्रतिम, अतुलनीय।

सबसे बड़ी बात यह है कि वुलर पर अभी पर्यावरण, पारिस्थितिकी और संस्कृति के महान और अजेय शत्रु बाजार की नज़र पड़ी तो है, पर अभी गड़ी नहीं है। लेकिन बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी। मैं जानता हूँ, एक न एक दिन बाजार डल की तरह इसे भी लील जाएगा। वैसे ही जैसे आतंकवाद का अजगर कश्मीर को लील रहा था। ख़ैर, उस अजगर का तो लगभग इलाज हो गया है, लेकिन इस बाजार के अनाकोंडा का क्या होगा?

अब कश्मीर के समाज-राजनीति की बात बाद में कर ली जाएगी। पहले आइए, कुछ इस झील की ही बात कर लेते हैं। लोग बताते हैं कि इस झील का मूल नाम महापद्मसर है। महापद्म इसके अधिदेवता माने जाते हैं। यह झेलम के रास्ते में आती है। भारत में यही मीठे पानी की सबसे बड़ी झील है। मेरे साथी ने बताया था कि मौसम के अनुसार इसका आकार घटता-बढ़ता रहता है। सिकुड़ती है तो पचीस-तीस वर्ग किमी रह जाती है और फैलती है तो ढाई सौ वर्ग किलोमीटर तक चली जाती है।

अनंतनाग से हम मुँह अंधेरे चले थे। वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते दोपहर हो गई थी। उस समय इस झील में लहरें हहराती हुई उठती लहरें देखकर समुद्र जैसा आभास हो रहा था। मैंने इतनी बड़ी और खूबसूरत झील और उसमें ऐसी लहर उठते पहली बार देखा था। इन लहरों को कश्मीरी भाषा में उल्लल कहते हैं। यही उल्लल पहले बिगड़कर उल्लोल, फिर उल्लर और अब वुलर हो गया। इस तरह इसी नाम से इस झील को जाना जाने लगा। लेकिन मूल नाम – महापद्मसर – अभी भी कोई लुप्त नहीं हुआ है।

इसके किसी कोने पर एक द्वीप भी है। यह एक फितरती यानी आर्टिफिशियल द्वीप  है, जिसे जैनुल लंक कहते हैं। इसे जैनुल आबदीन नाम के सुलतान ने नाविकों को खतरे के समय आश्रय देने के लिए बनवाया था। लंक कश्मीरी भाषा में द्वीप को कहते हैं। मेरे मित्र के अनुसार बहुत पहले यह द्वीप झील के बीचोबीच था। कब? पूछने पर उन्होंने बताया, जब बना था तब। यह बना होगा 15वीं शताब्दी में। उस द्वीप को मैं देख तो नहीं पाया, लेकिन झील के बीच में कोई टापू कैसे बनाया गया होगा, वह भी तीन-चार सौ साल पहले, यह वाकई मेरे लिए हैरतअंगेज था। इसकी कोई जानकारी मेरे दोस्त के पास भी नहीं थी। लेकिन इस विषय में वे आश्वस्त थे कि वो है कृत्रिम ही।

जैनुल आबदीन को कश्मीर के लोग वुड शाह कहते हैं। वुड यानी बड़ा। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने आमजन की भलाई के लिए बहुत काम किए। धार्मिक मामलों में वे दूसरे मुसलिम बादशाहों की तुलना में काफी सहिष्णु थे। उन्होंने बाहर से लाकर कुछ मुसलमानों को बसाया जरूर, लेकिन किसी को मुसलमान बनने के लिए मजबूर नहीं किया। वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे और सबको बराबर का दर्जा देते थे।

मुझे लगता है अभी जिस कश्मीरियत की बात की जा रही है, उसे ठीक से समझने के लिए इस बादशाह और उसके शासनकाल को भी जानना जरूरी है। जैसा कि मेरे मित्र ने बताया, कश्मीर में हिंदुओं पर लंबे समय से चला आ रहा जजिया बड शाह यानी जैनुल आबदीन के समय में ही हटाया गया था। उन्होंने कश्मीर में गोवध पर भी रोक लगा दी थी और महाभारत तथा कल्हण की राजतरंगिणी का फारसी अनुवाद भी उनके समय में ही हुआ था।  

बरार कस्बे से निकलने के बाद इस झील के किनारे हमने करीब घंटा गुजारा था। वहाँ से नदिहाल होते हुए बांडीपुरा पहुँचने में हमें एक घंटे से थोड़ा अधिक समय लगा था। हम वहाँ पहुँचे तो शाम के चार बज रहे थे, लेकिन झुटपुटा अँधेरा जैसा माहौल बनने लगा था। हमारे साथी और मेजबान दोनों ने यही सलाह दी कि अब खाइए-पीजिए, आराम करिए। अभी कहीं निकलिए मत। जहाँ जाना होगा, सुबह जाइएगा।

©इष्ट देव सांकृत्यायन



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