Haldighati and Nathdwara
यात्रा संस्मरण
शौर्य एवं स्वाभिमान की भूमि हल्दीघाटी
-हरिशंकर राढ़ी
राणा प्रताप स्मारक पर लेखक |
यह सच है कि बालमन पर पड़ी छाप को छुड़ा पाना बहुत मुश्किल होता है। हमारे समय में प्राथमिक कक्षाओं में राणा प्रताप के घोड़े चेतक पर एक कविता पढ़ाई जाती थी ‘रणबीच चौकड़ी भर-भरकर चेतक बन गया निराला था’ जिसे वीररस के प्रसिद्ध कवि श्यामनारायण पांडेय ने लिखा। इस कविता को बहुत ही ओज के साथ पढ़ाया जाता था। लगभग सभी बच्चों की जु़बान पर यह चढ़ी हुई थी। हम राणा प्रताप और उनके घोड़े चेतक की वीरता और साहस की कल्पना अपने-अपने हिसाब से करते। तभी से हल्दीघाटी और चेतक मन में बैठे हुए थे। चार-पाँच साल पहले जब चित्तौड़गढ़ की यात्रा पर गया तो हल्दीघाटी जाने की उत्कंठा और बढ़ गई। अंततः इस वर्ष अपनी भ्रमणसूची में उदयपुर-हल्दीघाटी पर टिक का निशान लग ही गया।
जून में ही सहयात्रियों की तलाश पूरी करके अगस्त माह के लिए योजना बना लिया। इस बार की यात्रा में पचमढ़ी यात्रा के मेरे सभी पाँच साथी सहर्ष शामिल हो गए। उपेंद्र कुमार मिश्र, बद्रीप्रसाद यादव, युवराज सिंह, ज्ञानचंद और ज्ञानसागर मिश्र जी के साथ कुछ छह जनों का आरक्षण चेतक एक्सप्रेस में कर लिया। कभी - कभी लगता है कि हमारी सरकारें भी अच्छे नाम रख सकती हैं। उदयपुर जाने वाली गाड़ी का नाम चेतक पर हो, इससे अच्छा और कुछ नहीं हो सकता। यह नाम अनेक तर्कां से सही लगता है। चेतक एक्सप्रेस गाड़ी बहुत पुरानी है। जब दिल्ली से उदयपुर - अहमदाबाद रेलपथ छोटी लाइन का था, तब भी मैं एक बार चेतक से उदयपुर निजी काम से गया था। सन् 2002 की बात होगी। यादें धुंधली हो गई थीं। पर इतना जरूर ध्यान में था कि उदयपुर एक अच्छा शहर है, यहाँ की संस्कृति और सभ्यता प्रशंसनीय है। लोग बहुत ही सहयोगी तथा आतिथ्य करने वाले हैं।
उस बार उदयपुर में केवल सहेलियों की बाड़ी देखने का अवसर मिला था। अब मैं उस यात्रा को भूल ही नहीं चुका हूँ, याद भी नहीं रखना चाहता। तबसे बहुत बदलाव आया है। हम दस अगस्त की सुबह आठ बजे उदयपुर जंक्शन पहुंच गए। योजनानुसार हमें पहले होटल लेकर नहाना-धोना था। उसके बाद नाथद्वारा, हल्दीघाटी और एकलिंग जी के लिए निकलना था। कुल दूरी लगभग सवा सौ किलोमीटर होगी। अगले दिन पाँच बजे चेतक से वापसी थी। सुरक्षित यही होता है कि पहले दूर के स्थानों को घूम लिया जाए। जिस दिन वापसी हो, उस दिन आस-पास की जगहें देखी जाएँ। इससे गाड़ी छूटने का खतरा नहीं रहता। मुझे पहली यात्रा से ज्ञात था कि बस स्टैंड के पास हमारी पसंद और बजट के होटल मिल जाएँगे। बस स्टैंड रेलवे स्टेशन से लगभग एक किलोमीटर होगा।
योजनानुसार होटल से गाड़ी करके निकले तो रिमझिम फुहारें पड़ रही थीं। मौसम बहुत सुहावना था। हमारी यात्रा में एक स्थल और जुड़ गया था, और वह था घसियार। यह वह जगह है जहाँ श्रीनाथ जी के विग्रह को आक्रांताओं के भय से नाथद्वारा से कुछ दिनों के लिए लाया गया था। गाड़ी को एक जगह रुकवाकर जोधपुरी कचौरियों का नाश्ता किया गया। उदयपुर से घसियार की दूरी लगभग 21 किलोमीटर है और यह राजमार्ग संख्या 72 पर स्थित है।
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यह स्थान राजमार्ग पर शांत से वातावरण में स्थित है। दूर-दूर तक दिखती हुई छोटी पहाड़ियाँ, मानसून की हरियाली और रिमझिम फुहारें मन को प्रफुल्लित कर रही थीं। निश्चित रूप से पहले यह अज्ञात सा स्थान रहा होगा। आज भी न कोई भीड़-भाड़ और न कोई शोरगुल। खुले से वातावरण में श्वेत रंग में चमकता यह मंदिर बहुत शांत लग रहा था। घसियार मंदिर वह जगह है जहाँ कुछ दिनों के लिए भगवान श्रीनाथ का विग्रह छिपाकर रखा गया था। किसी समय पिंडारियों ने नाथद्वारा पर आक्रमण कर दिया और बहुत लूट-खसूट की। इसी समय जसवंत राव होल्कर तथा दौलतराव सिंधिया के बीच भयानक युद्ध हुआ जिसमें होल्कर पराजित हुआ। यह 1801 ई0 के आसपास का काल था। वहाँ से होल्कर नाथद्वारा आया और पीछे से सिंधिया की सेना भी। नाथद्वारा का वैभव देखकर उसने तीन लाख स्वर्णमुद्राओं की माँग रखी। उसकी नजर श्रीनाथ जी के मंदिर पर थी। खतरे को भाँपते हुए मेवाड़ के राजा ने श्रीनाथ जी के विग्रह को घसियार के बीहड़ों में निर्माणाधीन मंदिर में स्थापित करवा दिया। यह मूर्ति घसियार में कुछ काल तक रही। कहा जाता है कि श्रीनाथ जी की यह मूर्ति वृंदावन से लायी गयी थी। नाथद्वारा में शांति स्थापित हो जाने के बाद विग्रह को वापस लाया गया। अब घसियार में श्रीनाथ जी की काले रंग की एक बड़ी मूर्ति है। मंदिर गर्भगृह में फोटोग्राफी निषिद्ध है, इसलिए हम अंदर का कोई चित्र नहीं ले पाए। हाँ, परिसर में फोटोग्राफी की जा सकती है। गर्भगृह तथा विग्रह के अतिरिक्त हमने यथोचित फोटो खींचे।
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वस्तुतः असली हल्दीघाटी यहाँ से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर है। न जाने इस देश में कौन सी मानसिकता की हवा चली कि राणा प्रताप, वीर शिवाजी और झाँसी की रानी जैसे वीर आत्मबलिदानियों को सरकारी स्तर पर बहुत उपेक्षित किया गया। जितना यशोगान अकबर ‘महान’ का हुआ, उसका आधा भी राणा प्रताप का नहीं हुआ। सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी कवयित्री न होतीं तो शायद रानी झाँसी की वीरगाथा इतिहास में दबकर ही रह गई होती। राणा प्रताप के नाम पर यहाँ सरकारों द्वारा एक स्मारक भी नहीं बनवाया गया था। इस बात से दुखी होकर एक सामान्य से शिक्षक मोहनलाल श्रीमाली ने राणा प्रताप म्यूजियम का निर्माणकार्य अपने दम पर शुरू किया। श्रीमाली जी ने अपने गुरु और स्वतंत्रता सेनानी एवं संविधान सभा के सदस्य बलवंत सिंह मेहता की प्रेरणा से इस कठिन कार्य का बीड़ा उठाया। इस म्यूजियम के लिए उन्होंने अपना पूरा वेतन तो लगाया ही, अपना घर तक बेच देने में जरा सा संकोच नहीं किया। बाद में कुछ सहायता सरकार से भी प्राप्त हुई और अंततः इस म्यूजियम का सपना साकार हो पाया। आज भी म्यूजियम की कमाई को इसके विस्तार में लगाया जा रहा है। म्यूजियम में एक छोटा ध्वनि एवं प्रकाश कार्यक्रम होता है जो केवल राणा प्रताप की वीरता और संघर्श की झलकियाँ ही नहीं दिखाता, अपितु मुगलकालीन भारत का इतिहास भी बताता है। इसके अतिरिक्त आंतरिक भाग में राणा प्रताप के वनवास, भीलों के सहयोग, भामाषाह की दानवीरता तथा राणा प्रताप के घोड़े चेतक का घायल अवस्था में अपने स्वामी को रणभूमि से लेकर भागना एवं प्रताप के भाई शक्ति सिंह का मिलना झाँकियों के माध्यम से दिखाया गया है।
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राणा का जन्म सन् 1540 ई में हुआ था और 1572 ई0 में उनका राज्याभिषेक हुआ था।। लगभग छत्तीस वर्ष की उम्र में सन् 1576 में 18 जून को अकबर की विशाल सेना के विरुद्ध राणा ने छोटी सी सेना लेकर पारंपरिक हथियारों से भयंकर युद्ध लड़ा। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व राजा मानसिंह कर रहे थे जबकि राणा की सेना के सेनापति हाकिम खान सूर थे जो अपने अफगानी विष्वस्तों व राजपूतों की बहादुर सेना लेकर लड़ रहे थे। इस युद्ध की खासियत यह भी थी कि जहाँ अकबर का सेनापति हिंदू था वहीं राणा का मुस्लिम। ऐसा संयोग इतिहास में विरले ही मिलता है। सैनिकों की संख्या के विषय में इतिहासकार एकमत नहीं हैं, किंतु अधिकतर यही मानते हैं कि अकबर की सेना में दस हजार सेनिक थे जिनमें चार हजार राजपूत थे, जबकि राणा की सेना में तीन हजार सैनिक और चार सौ भील थे जो धनुष बाण से पारंपरिक युद्ध कर रहे थे। इस युद्ध में मुगल आंशिक रूप से विजयी रहे किंतु राणा को पकड़ने में सफल नहीं हुए। यह युद्ध अरावली पर्वतमाला में जिस जगह हुआ, वहाँ की मिट्टी हल्दी की तरह पीली थी, इसलिए इसे हल्दीघाटी कहा जाता है।
हल्दीघाटी के उपरोक्त युद्ध में राजा मानसिंह अकबर के सेनापति थे। यह सहज ही कल्पनीय है कि कोई भी अपने भाई को शत्रुसेना की कमान सँभाले देखेगा तो उसका खून प्रतिशोध की आग में खौलेगा ही। राणा अपने घोड़े चेतक पर सवार होकर युद्ध कर रहे थे कि उन्हें सामने मानसिंह हाथी पर सवार दिख गए। वहीं राणा ने चेतक को एड़ लगाई और वह मानसिंह की हाथी के मस्तक पर दोनों पैर लगाकर खड़ा हो गया। राणा प्रताप ने मानसिंह पर बरछे का सधा हुआ वार किया किंतु मानसिंह हाथी के हौद में छिपकर जान बचाने में कामयाब रहा। इस बीच मानसिंह के हाथी ने अपनी सूँड़ में बँधी तलवार से चेतक के पिछले पैर पर वार कर दिया और घोड़ा घायल होकर गिर पड़ा। उल्लेखनीय यह है कि चेतक के मस्तक पर हाथी का मुखौटा लगाया गया था जिससे हाथियों को धोखे में रखा जा सके। चेतक सहित राणा को गिरा हुआ देखकर मुगल सेना उन पर टूट पड़ी किंतु उसी समय राणा के सैनिक झालामान सिंह ने राणा प्रताप की पगड़ी और वेश धारण कर खतरा खुद पर ले लिया। चेतक घायलावस्था में फिर उठा तथा अद्भुत शौर्य एवं स्वामिभक्ति का परिचय देता हुआ राणा को लेकर युद्धभूमि से राणा को बचा ले गया।
इस युद्ध में अन्य बातों के साथ राणा और मानसिंह की किस्मत ने भी बहुत बड़ी भूमिका निभायी। यदि मानसिंह पर राणा का वार सफल होता तो इतिहास अलग होता। यदि चेतक घायल नहीं होता तो मानसिंह पर राणा का दूसरा वार होता जिसमें मानसिंह बच नहीं पाता। किंतु इन दोनो ‘यदि’ के न होने पर भी अकबर को उतनी हानि नहीं होती जितनी राजपूताने की होती। यह बात मानसिंह जैसे अवसरवादियों की समझ में नहीं आती जो अपने अस्थायी सुख और मान के लिए अपने ही देश के विरुद्ध विदेशियों का साथ देने में नहीं चूकते। यह परंपरा तबसे लेकर अंगरेजी काल तक जारी रही। इतिहास की चूकों पर हमें कष्ट होना स्वाभाविक था। वैसे भी हमारे दल में इतिहास के दो प्रवक्ता थे, ऐतिहासिक चर्चाएँ होनी ही थीं। अंततः ले-देकर पश्चात्ताप के अतिरिक्त हमारे पास बचा ही क्या था?
महाराणा प्रताप संग्रहालय को ठीक से देखकर निकले तो बाहर ढाबेनुमा चाय-जलपान की दूकानें थीं। इन खुली दूकानों पर मुझे चाय पीना और माहौल का आनंद लेना बहुत अच्छा लगता है। ऊपर से हल्की फुहारें पड़ रही थीं जिनमें खराब चाय भी अच्छी लगने लगती है। वहाँ बैठकर चायपान का दौर चला, हँसी-मजाक के साथ कुछ देर बैठे रहे। कुछ यात्री सजे-धजे ऊँटों पर सवारी कर रहे थे जिसमें सवारी कम फोटो खिंचाई ज्यादा थी।
महाराणा प्रताप स्मारक : यहाँ से निकलकर हमारा अगला पड़ाव महाराणा प्रताप स्मारक था जो संग्रहालय से आधा किलोमीटर के लगभग होगा। एक पहाड़ी के समतल शिखर पर चेतक पर सवार राणा प्रताप की एक विशाल मूर्ति है। आस-पास साज-सज्जा भी अच्छी है। ऊँचे चबूतरे पर चेतक सहित राणा प्रताप की मूर्ति बहुत शानदार और गौरवशाली लगती है। चूँकि यह स्मारक ऊँचाई पर है तथा चारो ओर खुली प्रकृति है, इसलिए यहाँ ठहरना बहुत अच्छा लगता है।
प्रताप स्मारक से नीचे उतरते ही चेतक स्मारक है। यह वही जगह है जहाँ हल्दीघाटी से राणा प्रताप को लेकर भागा हुआ चेतक वीरगति को प्राप्त हुआ था। इस बीच उसने एक नाले की छलाँग भी लगाई थी। यह भी कहा जाता है कि जब चेतक के घायल होने पर हल्दीघाटी से राणा प्रताप भागे तो शक्ति सिंह ने देख लिया और उनके पीछे लग गया। शक्ति सिंह राणा प्रताप के भाई लगते थे और वे भी मुगलों की तरफ थे। जहाँ चेतक गिरा, वहाँ शक्ति सिंह पहुँच गये। किंतु वहाँ शक्ति सिंह का भ्रातृप्रेम जाग गया और वार करने के बजाय उन्होंने अपना घोड़ा राणा प्रताप को दे दिया और वहाँ से भाग निकलने में मदद की। चलिए, कुछ तो अच्छा हुआ।
चेतक स्मारक का महत्त्व भी कम नहीं है, हालाँकि यह जगह कोई बहुत बड़ी और प्रचारित नहीं है। पशुओं की स्वामिभक्ति की बहुत सी कहानियाँ लोक में व्याप्त हैं, लेकिन चेतक सही अर्थों में स्वामिभक्त ही नहीं, देशभक्त था। उसने राणा की आन-बान की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी। संभवतः चेतक ही एक पशु है जिस पर कवियों ने गीत और कविताएं लिखीं। जहाँ वीररस के प्रसिद्ध कवि श्याम नारायण पांडेय ने ‘रण बीच चौकड़ी भर-भरकर चेतक बन गया निराला था’ जैसी कविता लिखी, वहीं ‘जय चित्तौड़’ फिल्म के लिए भरत व्यास ने ‘ओ पवन वेग से उड़ने वाले घोड़े’ जैसा लोकप्रिय गीत लिखा जिसे लता मंगेशकर ने गाया।
ऐसे देशभक्त घोड़े को विनम्र श्रद्धांजलि देकर हम आगे बढ़े - हल्दीघाटी की असली युद्धभूमि की ओर। महाराणा प्रताप स्मारक से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ था। यहाँ की मिट्टी वाकई हल्दी जैसी पीली है। कहा जाता है कि जून 1576 के उस युद्ध में इतनी लाशें गिरीं की वहाँ खून का तालाब बन गया जिसे रक्त तलाई कहा जाता है। जब हम यहाँ पहुँचे तो बारिश ने ज्यादा जोर पकड़ लिया था, इसलिए वहाँ रुककर उस पवित्रभूमि को नमन करना मुष्किल था। हमने चलती गाड़ी से ही हाथ जोड़े और आगे बढ़ गए, बस यह सोचते हुए कि ऐसे सपूत बहुत कम पैदा होते हैं।
हल्दीघाटी से बाहर निकलते ही बादशाह बाग है जिसमें मुगल सेना ने डेरा डाला था। राणा प्रताप की सेना का पहला मुकाबला यहीं हुआ था। आज यह बाग पार्क के रूप में संरक्षित है। सामने सुंदर पहाड़ियाँ हैं। मानसून में यहाँ आना अच्छा लगा।
नाथद्वारा : राजस्थान के धार्मिक स्थलों में नाथद्वारा और एकलिंग जी बहुत ही मान्य और प्रसिद्ध हैं। जो भी पर्यटक उदयपुर के आसपास के स्थलों का भ्रमण करने जाते हैं, उन्हें टूर संचालक या टैक्सी वाले नाथद्वारा तथा एकलिंग जी जरूर ले जाते हैं। नाथद्वारा वैसे भी राजस्थान के ऐतिहासिक स्थलों में माना जाता है। यह एक धार्मिक और साहित्यिक नगरी है। हमारे चालक महोदय भी बादशाह बाग के बाद हमें नाथद्वारा ले गए। आजकल नाथद्वारा में भगवान शिव की एक बहुत ऊँची मूर्ति निर्माणाधीन है। यह चलन इन दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। दिल्ली के महिपालपुर की शिवमूर्ति तो ऊँची थी ही, बाद में करोलबाग में हनुमान जी की 108 फीट ऊँची मूर्ति बनी तथा दिल्ली के ही आद्या कात्यायनी मंदिर छतरपुर परिसर में संभवतः इससे भी बड़ी मूर्ति स्थापित हुई।
हमारी इनोवा कैब वहीं पार्क हो गई क्योंकि बाहरी बड़ी गाड़ियाँ नाथद्वारा नगर में प्रवेश नहीं पातीं। वहाँ से हमने श्रीनाथ जी के मंदिर तक जाने के लिए फटफट ऑटो किया और आ गए।
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जो भी हो, श्रीनाथ जी का मंदिर बहुत प्राचीन है, इसमें संदेह नहीं। कहा जाता है कि श्रीनाथ जी का विग्रह ब्रज से लाया गया था तथा इसे 20 फरवरी 1672 ई0 को यहाँ स्थापित किया गया था। पहले इस गाँव का नाम सिहाड़ था जिसे श्रीनाथ जी के पधारने पर नाथद्वारा कर दिया गया। जब पिंडारियों ने नाथद्वारा में घुसकर तोड़-फोड़ की तो श्रीनाथ जी के विग्रह को गोपनीय ढंग से घसियार पहुँचा दिया गया था। बाद में शांति स्थापित होने पर उन्हें फिर से इस मंदिर में स्थापित किया गया।
ऐसा माना जाता है कि श्रीनाथ जी का मंदिर वृंदावन के नंद महराज मंदिर की शैली में बनाया गया है। इसके शिखर पर सुदर्शन चक्र अंकित सात ध्वज फहराते रहते हैं जो पुष्टिमार्ग या वल्लभी संप्रदाय के सात भवनों का प्रतीक है। मंदिर को इसी संप्रदाय की भाषा में ‘श्रीनाथजी की हवेली’ कहा जाता है। श्रीनाथजी को ठाकुर जी भी कहा जाता है।
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पिरामिड के आकार में बने इस मंदिर का महत्त्व इसके भौतिक सौंदर्य से अधिक श्रद्धा एवं प्रभाव का है। मंडप केसम्मुख चाँदी से बनी नंदी की मूर्ति है जबकि दो अन्य मूर्तियाँ काले संगमरमर से बनी हैं। एक साथ बहुत सारे मंदिरों को देखना अच्छा लगता है। एकलिंग जी में स्थित सभी मंदिरों को देखने का समय हमारे पास नहीं था।सायंकाल हो गया था और हम सभी थक भी गए थे, अतः मंदिर परिसर में स्थित सभी मंदिरों को देखकर उदयपुर वापस लौट आए। निस्संदेह यह स्थान बहुत शांत है। एक छोटी सा बाजार है, जहाँ सामान्य आवष्कताओं की पूर्ति हो जाती है। उदयपुर के निकट होने से यात्री यहाँ ठहरने के बजाय वापस चले जाने को ही वरीयता देते हैं।
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सुस्वागतम!!