बीएचयू विवाद
योगी अनुराग
यों
तो मैं उन विवादित विषयों से एकदम दूरी बना कर रखता हूँ, जिनपर स्वयं हिन्दू समाज ही एकमत न हो।
किंतु अब लगता है कि ये भ्रांतिपूर्ण विवाद अपने विराट स्वरूप धारण कर रहा है।
अतएव अब मौन का मार्ग दुर्गम होगा।
सो,
अनेकानेक प्रिय
मित्रों के आग्रह पर मैं अपनी बात कहता हूँ!
अव्वल
तो ये प्रश्न ही भ्रामक है कि क्या एक मुस्लिम संस्कृत नहीं पढ़ा सकता? इसपर मैं कहूँगा कि अवश्य पढ़ा सकता
है। किंतु आप इस विवाद का आखेट वहाँ कर रहे हैं, जहाँ ये है ही नहीं।
विवाद
एक मुस्लिम द्वारा संस्कृत पढ़ाने को लेकर नहीं, बल्कि वेदांगों में से एक “छंदशास्त्र” को पढ़ाने का है। सो, प्रश्न का आधारभूत ढाँचा बदल लीजिए।
वस्तुतः
अब प्रश्न ये है : “वैदिक
विषय “छंदशास्त्र”
का प्रवक्ता कोई
मुस्लिम क्यों नहीं हो सकता?”
इस
प्रश्न का उत्तर, प्रश्न
की ही भाषा में निहित है। निषिद्धि को “मुस्लिम” शब्द के साथ इंगित कर दिया गया है। और
इस्लामिक दर्शन के मुताबिक़ ये बात जमे जमाए तर्कों को पूर्णरूपेण श्रांति प्रदान
करती है।
“छंदशास्त्र”
यानी कि वैदिक
ऋचाओं की गेयता को सुनिश्चित करने वाला शास्त्र। इस शास्त्र को वेद-पुरुष का चरण
कहा गया है। इस वेदांग की सहायता से वेद-पुरुष पीढ़ियों दर पीढ़ियों विचरण करता है।
क्या
हो, जो
काशी विवि से वेदांग में स्नातक हो कर आए विद्यार्थी को ये ज्ञात न हो कि निरुक्त
के पंचम अध्याय के आरंभिक मन्त्रों-अर्धमन्त्रों में कौनसा छंद है?
यदि
वो विद्यार्थी इसपर अनभिज्ञता प्रकट कर दे, तो जानिए कि महामना का स्वप्न खंडित हो
गया! और यदि मुस्लिम प्रवक्ता द्वारा ये अध्याय पढ़ाया गया तो निश्चित तौर पर ये ही
होने जा रहा है।
उक्त
मन्त्रों का आरम्भ कुछ कुछ इस तरह होता है :
१) वराहो मेघो भवति वराहार:।
२) अयाम्पीतरो वराह एतस्मादेव।
३) वराहमिन्द्र एमुषम्।
१) वराहो मेघो भवति वराहार:।
२) अयाम्पीतरो वराह एतस्मादेव।
३) वराहमिन्द्र एमुषम्।
वैदिक
विषयों की साथ प्रकट हो जाने वाली इस्लामिक ग्रंथि यही है कि वे “आदिवराह” का वर्णन किस प्रकार करेंगे। वे किस
प्रकार एक “वराह”
को प्रेज़ करेंगे,
जबकि उन्हें तो
बालपन से ही वराह-घृणा की घुट्टी पिलाई गई है।
इस
और इस तरह के अगण्य परिदृश्यों का मूल कारण उनकी अपनी थियोलॉजी है, इस्लामिक थियोलॉजी!
इस्लामिक
थियोलॉजी ने विश्व इतिहास को दो भागों में विभाजित किया है : “जाहिलिया” व “इल्म”। इन्हें क्रमशः “एज ऑफ़ इग्नोरेंस” व “एज ऑफ़ एनलाइटनमेंट” भी कहा जाता है।
(“जाहिलिया”
शब्द से ही “जाहिल” शब्द का निर्माण हुआ है। इस पूरे
शब्द-परिवार का अर्थ “अंधेरे”
से है।)
इस्लामिक
थियोलॉजी इस शब्द की सहायता से, मुहम्मद साहब के आगमन से पूर्व के विश्व को
परिभाषित करते हुए कहती है कि जब तक हुज़ूर और हुज़ूर का संकलित विचार समुच्चय “क़ुरआन” इस विश्व में न था, समूचा विश्व “यौमे-जाहिलिया” था, यानी कि जाहिलों की संतति।
“हुज़ूर
आए, कुरआन
और इल्म लाए” -- ऐसी
धार्मिक विचारधारा को मानने वालों की व्यक्तिगत ज़िंदगी से हमें कोई लेना देना
नहीं, वे
अवश्य ताक़यामत अपनी धार्मिक अवधारणाओं को क़ायम रक्खें।
किंतु
कोई अब ये बताए कि जो आदमी हुज़ूर के आगमन से पहले की हर चीज़ को “जाहिलिया” मानने वाले माहौल की परवरिश पाया हो,
यानी उसके लिए
सही और ग़लत की लकीर ही चौदह सौ साल पहले खिंचती हो, उसके लिए ये मान पाना और फिर अपने
विद्यार्थियों को बता पाना कितना दुर्लभ होगा कि ऋग्वेद की इस ऋचा का कालखंड पाँच
हज़ार वर्ष पूर्व है।
जबकि
कुछ ऋचाएँ तो नौ हज़ार, दस
हज़ार और बारह हज़ार से होते हुए पचास हज़ार वर्ष पहले तक जाती हैं! ऐसे में,
एक मुस्लिम
छंदशास्त्री बिना किसी “जाहिलिया”
दुर्भावना के
कैसे पढ़ा सकेगा?
सातवीं
सदी के मध्य में, हजरत
उमर ने चार हज़ार सैनिकों के साथ मिस्र पर आक्रमण किया था। उन्होंने मिस्र को जीतकर
सबसे पहला काम जानते हैं क्या किया? मिस्र के समृद्ध पुस्तकालय को जला कर भस्म कर
दिया था।
जब
वे अग्निकांड का आदेश दे रहे थे, तब उन्होंने अपने सिपाहसालार से कहा था :
“इस
पूरे जखीरे में से एक भी किताब सहेजने के काबिल नहीं। ये सब “जाहिलिया” युग की हैं। अल्लाह ने क़ुरआन में कुछ
भी नहीं रख छोड़ा है। अगर इसमें ऐसा कोई ज्ञान है, जो क़ुरआन में नहीं भी है, तो भी वो बेकार है। चूँकि अल्लाह ने
उसे क़ुरआन में नहीं शामिल किया!”
-- ऐसी
विचारधारा तले पले-बढ़े एक युवा प्रवक्ता से वैदिक “छंदशास्त्र” का ठीक ठीक सम्मान करना भी न हो सकेगा,
उसे पढ़ना तो
बहुत दूर की बात है। वो कभी दिल से स्वीकार ही न कर सकेगा कि ये “छंदशास्त्र” पढ़ाए जाने योग्य है।
और
फिर शुरू होगा उसका नेक्स्ट स्टेप : अल-तकिया!
यानी
कि धीरे-धीरे विद्यार्थियों का ब्रेनवॉश। अब विद्यार्थी वैदिक विषयों में मुहम्मद
साहब को खोजेंगे। बावजूद इसके कि क़ुरआन में भविष्य का आंकलन करने की कतई मनाही है।
स्पष्ट लिखा है कि केवल और केवल अल्लाह ही भविष्यवाणी कर सकते हैं।
अल्लाह
द्वारा साफ़ मनाही के बाद भी मुस्लिम विद्वान् क्यों वेदों में मुहम्मद साहब को
खोजते रहते हैं। इस बात को मैं कभी फुरसत से समझना चाहूँगा।
फ़िलहाल,
मुस्लिम
प्रवक्ता के नियुक्ति विवाद पर ही बात हो!
ऐसा
इस भारतभूमि में प्रथम बार नहीं हुआ है कि किसी विश्वविद्यालय में धार्मिक आधार पर
आचार्य चुनने की परंपरा हो। ठीक ऐसी ही परंपरा, प्राच्यकाल में भी थी!
ऐसे
ढेरों उदाहरण मौजूद हैं, जब आचार्यों की नियुक्ति में धर्म ने बाधा डाल
दी हो। किन्तु यहां दो प्रसिद्व उदाहरण पर्याप्त होंगे। पहले आचार्य अश्वघोष और
दूजे आचार्य कुमारिल भट्ट।
अश्वघोष
और कुमारिल, दोनों
ही सनातनी हिंदू जन्मे थे। दोनों प्रकांड विद्वान थे। दोनों बौद्धों के हाथों
शास्त्रार्थ में पराजित हुए और दोनों बौद्धधर्म में दीक्षित हुए।
किन्तु
बौद्धधर्म में ख्यातिप्राप्त विद्वान् हो जाने के पश्चात् भी उन्हें
बौद्ध-भिक्षुओं को पढ़ाने का अधिकार नहीं मिला था! (हाँ, अश्वघोष का लिखा साहित्य अवश्य बौद्धों
में लोकप्रिय है।)
यानी
कि इतिहास ये कहता है, यदि
प्रोफ़ेसर साहब फ़िरोज़ खान किसी हिन्दू विद्वान् से पराजित होकर हिन्दूधर्म ग्रहण भी
कर लें, तब
भी वे धर्माचार्य बनने की योग्यता न पा सकेंगे।
हालाँकि,
यदि फ़िरोज़ साहब
परधर्म में प्रवृत्त होने की अश्वघोष जितनी क्षमता रखते होंगे तो उन्हें अवश्य
संस्कृत के कला व साहित्य विभाग में पढ़ाने का अवसर मिलेगा।
किन्तु
धर्म के संकाय में वे केवल विद्यार्थियों की पङ्क्ति में बैठ सकते हैं! इससे अधिक
उन्हें एक भाषा कुछ भी नहीं दे सकती। इससे आगे की व्याप्तियों पर धर्म अपना अधिकार
कर लेता है।
और
समग्र हिन्दू समाज यही चाहता है कि धर्म के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण न किया
जावै!
इति।
✍️Yogi
Anurag ©®
आशीष कुमार अंशु की फेसबुक
वॉल से साभार.
बेहद ही सुंदर व्याख्यान....
ReplyDeleteधन्यवाद मित्र.
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