... यह हार सीतारमैया की कम


इष्ट देव सांकृत्यायन 

1939
जनवरी 29
मध्य प्रदेश में जबलपुर-भेड़ाघाट मार्ग पर स्थित त्रिपुरी
यहीं हुआ था वह कांग्रेस अधिवेशन.
[वही कांग्रेस जिसमें अब तक जरा सा लोकतंत्र शेष था]

नेताजी सुभाष चंद्र बोस इसके पहले भी कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके थे. उन्होंने दुबारा अध्यक्ष पद के लिए प्रत्याशी बनना तय किया. गांधी जी बिलकुल नहीं चाहते थे कि सुभाष प्रत्याशी बनें. इसका एहसास सुभाष को भी था. वे जानते थे कि उन्हें कड़ी टक्कर मिलने जा रही है.

क्यों?
यह एक अलग कहानी है.
चलिए
, कर ही देता हूँ वह जिक्र भी.
असल में अंग्रेज बहादुर यह तो कतई नहीं चाहता था कि भारत को इतनी जल्दी आजाद करना पड़े और वह भी आजादी का ही एहसास देते हुए. उसकी दिली ख्वाहिश ही यह थी कि भारत को आजाद किया भी जाए तो ऐसे कि सदियों तक हमारा गुलाम होने का एहसान मानता रहे. (ये कॉमनवेल्थ वगैरह किसी और इरादे से नहीं बनाए गए). इसी इरादे से तो कांग्रेस बनाई गई थी. पर हम भारतीयों को कोई बात समझ बहुत देर से आती है. सुभाष बाबू के तेवर तो अंग्रेज बहादुर को पहले भी अच्छे नहीं लगते रहे थे
, पर 1938 में उनकी जो गतिविधियां रहीं, उससे उसकी सरकार हिलती नजर आने लगी. वह सुभाष और उनके समर्थक भारतीयों की आतुरता को समझने लगा था.

नेताजी कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए जर्मन नाजी पार्टी के दो प्रतिनिधियों से मिले थे.  यह मुलाकात 1938 के आखिरी महीने में हुई. हालांकि जर्मन प्रतिनिधियों से हुई उनकी यह मुलाकात भी कोई बहुत सौहार्दपूर्ण नहीं रही थी. असल में उनकी सोच भारत के प्रति कुछ अच्छी न थी. नेताजी ने इन प्रतिनिधियों को भी भारत की ताक़त और साथ ही अपने अदम्य आत्मविश्वास का भी परिचय दिया था. यद्यपि इसी एहसास के चलते वे भारत की मदद को भी तैयार हुए थे.

तो अंग्रेज बहादुर नहीं चाहता था कि नेताजी फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बनें. कांग्रेस से उस समय तक भारत का एक बहुत बड़ा शांति और अहिंसाप्रेमी तबका जुड़ चुका था, लेकिन उस पूरी भीड़ में सब शांति और अहिंसा के पुजारी ही नहीं थे. सुभाष जैसे पुरुषार्थी भी बहुत थे. अंग्रेज बहादुर को पक्का विश्वास था कि सुभाष और उनके समर्थकों की यह आतुरता उसकी चाल सफल नहीं होने देगादेगा और जैसे वह शांतिपूर्वक सब समेटकर भारत पर एहसान जताते हुए ससम्मान रुखसत करना चाहता है, वैसा कुछ होने नहीं पाएगा.

आखिर गांधी जी को जरूरी लगा कि सुभाष के सामने एक प्रत्याशी खड़ा किया जाए. उनके प्रियपात्र तो थे नेहरू, लेकिन नेहरू जी को परिणाम पता था. लिहाजा उन्होंने मना कर दिया. लंबी छुट्टी मनाने यूरोप चले गए. वापस आए तो यह गुरुतर भार उन्होंने अपने ख़ास भरोसेमंद मौलाना आज़ाद पर डाल दिया. लेकिन ऐन मौक़े पर मौलाना आज़ाद ने भी अपना पर्चा वापस ले लिया.

आख़िरकार गांधी जी ने तैयार किया डॉ. पट्टाभि सीतारमैया को. ये आज के आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के रहने वाले थे और पेशे से चिकित्सक थे. सीतारमैया के तौर पर खड़े किए गए थे. 29 जनवरी को जब परिणाम घोषित हुए तो सुभाष को कुल 1580 वोट मिले थे, जबकि गांधी के अपने प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमैया को केवल 1377 वोट. यह एक मामूली लेकिन स्पष्ट अंतर था. गांधीजी और उनके पूरे लाव-लश्कर के मुकम्मल समर्थन के बावजूद सीतारमैया हार गए थे.

गांधीजी ने सीतारमैया की हार को अपनी व्यक्तिगत पराजय के रूप में लिया. यह तो सभी जानते हैं. इस मौक़े पर गांधीजी ने जो कहा, वह और भी ग़ौरतलब है, “मुझे उनकी (सुभाष की) जीत पर ख़ुशी है... और चूँकि सीतारमैया को इस चुनाव में प्रत्याशी बनने के लिए मैंने ही प्रेरित किया था, और मौलाना आज़ाद साहब के बाद उन्हें पर्चा वापस नहीं लेने दिया था, अतः यह हार उनकी (सीतारमैया की) कम, मेरी ज़्यादा है...”

और इन शब्दों पर ख़ास तौर से ग़ौर किया जाना चाहिए
, “... और आख़िरकार सुभाष बाबू कोई हमारे देश के दुश्मन नहीं हैं... उन्होंने इसके लिए कष्ट उठाया है. और उनकी दृष्टि में उनकी ही नीति सबसे अग्रगामी और योजना सबसे प्रभावशाली है...”

शेष फिर कभी....


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