बाजार और सभ्यताओं के युद्ध मे पिस रही है दुनिया
संजय तिवारी
याद कीजिये। पिछली सदी का आखिरी दशक। विश्व मे
कपड़ा उत्पादन का सबसे बड़ा केंद्र सूरत। सूरत के कपड़ो की मांग पूरी दुनिया मे बढ़
गयी थी। वे अन्य देश सूरत के इस प्रभुत्व से परेशान थे जो कपड़े का उत्पादन कर रहे
थे। अचानक सूरत में प्लेग का संक्रमण हो गया। सूरत तबाह हो गया। उस समय भी सूरत से
मजदूरों का वैसा ही पलायन हो रहा था जैसा आज आनंद विहार के जरिये दिखाया जा रहा
है। उस समय सूचना तकनीक इतनी विकसित नही थी। न कोई सोशल मीडिया था और न ही कोई
निजी चैनल। केवल दूरदर्शन था और अखबार थे। दूरदर्शन पर केवल रात 8 बज कर 20 मिनट पर एक बार समाचार आता था। रेडियो यानी
आकाशवाणी था । तब मोबाइल का कही अतापता भी नही था।
सूरत की तबाही की खबरें थी। उसी दौरान एक बड़े
विशेषज्ञ की एक टिप्पणी एक अखबार में छपी। उसमें लिखा था कि सूरत में जो प्लेग
फैला है इसमें चीन का हाथ है। चीन का यह जैविक युद्ध है । इसके पर्याप्त कारण भी
गिनाए गए थे। लिखा था कि सूरत के कपड़ा उद्योगों के कारण चीन के कपड़ा उद्योग बुरी
तरह प्रभावित हुए। चीन में इसके कारण बाजार बिगड़ने लगे। इसी से घबरा कर चीन ने
सूरत के कपड़ा उद्योग को अपने जैविक वार से तबाह किया। उस समय लिखे गए इस आलेख पर
कितने लोगों का ध्यान गया , मैं नही जानता लेकिन आपको याद अवाश्य दिलाना
चाहता हूँ कि उस समय के भारत की राजनैतिक सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां क्या
थीं।
जो लोग हमारे समकक्ष उम्र वाले होंगे उन्हें याद
आ रहा होगा। भारत मे जबरदस्त राजनीतिक उथल पुथल एवं अस्थिरता का काल था वह।
राष्ट्रीय नेतृत्व अस्थिर था। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल लागू कर समाज मे
जबरदस्त विखंडन पैदा किया था। राम जन्मभूमि आंदोलन के कारण अलग स्थिति बन रही थी ।
देश मे राष्ट्रवाद का उदय हो रहा था। पहली बार हिन्दू समाज संगठित हो रहा था।
सांसदों की खरीद फरोख्त के बल पर कांग्रेस की सरकार केंद्र में थी। उत्तर प्रदेश
सहित सभी बड़े राज्यो में लालची छत्रप पैदा हो गए थे। उदारवाद, विश्व बाजार और डंकल प्रस्तावों के लिए विदेशी पैसों के लालच में भारतीय
राजनेता विश्व बाजार के लिए भारत को मोहरा बना रहे थे। चीन ने नेपाल में दखल देकर
भारतीय सीमा पर खासा सूती कपड़ो और अपनी चीनी मिलों के लिए जगह बना ली थी। सूरत
पूरी दुनिया मे बाजार का हीरो था। चीन परेशान था। सूरत में प्लेग फैला । सूरत की
कमर टूट गयी। ऐसी कि आज तक सूरत उस तरह से खड़ा नही हो सका।
अब जरा चीन की प्रवृत्ति और उसके इतिहास पर नजर
डालिए। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि कोरोना की चपेट में जब दुनिया तबाह हो रही है और
197 देश इससे युध्द लड़ रहे है, ऐसे में चीन इसका
जनक होने के बाद भी खुद को स्वस्थ साबित कर अब कोरोना से बचाव के उपकरणों की विश्व
को आपूर्ति में जुटा है। यह शुद्ध व्यवसाय एवं मक्कारी नही तो और क्या है। चीन के
लगभग सवा करोड़ की आबादी वाले वुहान से पैदा हुई यह महामारी विश्व को लील रही है
लेकिन चीन के ही किसी अन्य नगर के किसी हिस्से में इसका कोई असर नही। फ्रांस, इटली,
स्पेन, ईरान , अमेरिका और ब्रिटेन जैसे अतिविकसित राष्ट्र इस विभीषिका में बुरी तरह
फंसे हैं। भारत तो है ही । लेकिन खुद चीन में अब सब सामान्य हो चुका है। वह दूसरे
देशों में उपकरणों की आपूर्ति शुरु कर चुका है। आपको लगता है कि कोरोना केवल एक
विषाणु से फैलने वाली बीमारी है तो गफलत में मत रहिये। कोरोना की इस प्रजाति का
निर्माण 70
के दशक में चीन के वुहान में स्थित विषाणु शोध
केंद्र में किया जा चुका था। इसको चीन के रक्षा विभाग की देख रेख में तैयार किया
गया । यह कार्य वुहान के वायरोलॉजी केंद्र ने किया।
अब बात करते हैं कोरोना के संक्रमण के समय पर।
ध्यान दीजिए कि भारत मे अत्यंत स्थिर सरकार के उदय के बाद से यानी 2014 से अब तक चीन की वैश्विक गतिविधियां किस प्रकार की रही हैं। एक तरफ तो
भारतीय नेतृत्व से वह घबराता भी रहा है और दूसरी तरफ भारत को पटखनी देने की जुगत
में भी लगा रहा है। पाकिस्तान को सह देकर भारत को अस्थिर करने में नाकामयाब रहे
चीन को बहुत ठीक से समझ मे यह बात आ चुकी है कि आज के समय मे केवल सैन्य और
कूटनीति से भारत को झुका पाना संभव नही है। दोकालाम में पीछे हटने की उसकी मजबूरी
का घाव बहुत गहरा है। पंचशील और हिंदी चीनी भाई भाई के नारे की हवा नही बची, यह जिनपिंग को ठीक से पता चल गया। सुरक्षा परिषद में बार बार हाफिज
सईद को बचा लेने के बाद भी उसे आभास है कि भारत के मौजूदा नेतृत्व से निपटना बहुत
मुश्किल है। कूटनीति इस समय ऐसी है कि भारत ने उसको चारो तरफ से घेर रखा है।
ताइवान और हांगकांग से उपजे कष्ट को वह बहुत समय तक नही झेल सकता। समय ऐसा है कि
वह सीधा सैन्य युद्ध भी नही कर सकता। दूसरी तरफ अमेरिका है। दुनिया मे उकसावे के
युद्ध करा कर हथियार बेच कर धन कमाने की उसकी पुरानी चाल को दुनिया समझ चुकी है।
वैसे भी भारत जैसे देश मे अब खुद के बनाये हथियार और सैन्य तकनीक के कारण बाहरी
हथियारों की बहुत आवश्यकता नही। भारत की अवस्था ऐसी है कि भारतीय बाजार के बिना न
कहीं को सांस मिलेगी न अमेरिका को। भारत इस समय विश्व का सबसे बड़ा बाजार है। इस
बाजार पर चीन आश्रित है। भारत मे दूसरी बार नरेंद्र मोदी की सरकार के बन जाने के
बाद से ही पाकिस्तान समर्थक चीन को लेकर भारतीय जनमानस में एक घृणा का भाव पैदा हो
गया। यह भाव पिछली दीपावली तक बहुत गंभीर रूप से बाजार में दिखने लगा। चीन के लिए
भारत के त्यौहारी बाजार बहुत महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन इस बार भारत के बाजारों
में चीनी माल की खपत बहुत ही कम हुई। यह भी चीन के लिए बहुत बड़ी चिंता थी।
परिस्थितियां कुछ ऐसी हुई कि चीन की पूरी अर्थव्यवस्था ही चरमराने की कगार पर आ
गयी। पाकिस्तान परस्ती के कारण विश्व समुदाय में उसके प्रति भाव भी बदल रहा था। इधर
भारत के प्रति अमेरिकी नेतृत्व के समर्पण ने उसको और भी परेशान कर दिया। पाक
अधिकृत कश्मीर के गिलगित और बाल्टिस्तान में चीन ने बहुत बड़ा निवेश कर रखा है।
कश्मीर से धारा 370
की समाप्ति के बाद से ही पाक अधिकृत कश्मीर के
लोग भारत के साथ आने के लिए आंदोलन कर रहे है। ऐसे में चीन का और भी परेशान होना
स्वाभाविक है।
चीन की प्रकृति को समझने के लिये कुछ ऐतिहासिक
तथ्यों को समझना आवश्यक है। चीन भी भारत कि भांति एक प्राचीन सभ्यता है लेकिन चीन
को विश्व मे जो सम्मान भारत को मिला वह कभी भी चीन को नहीं मिला , यद्यपि उसने बहुत से क्षेत्रो में उत्कृष्ट उपलब्धि प्राप्त की थी।
चीन में कोई श्री राम या श्रीकृष्ण नहीं हुये जो जीवन मूल्यों को स्थापित करते। यह
दो प्राचीन सभ्यतायें पड़ोसी थी फिर भी मूल्यों का आदान - प्रदान नहीं हो पाया।
आर्य लोग संसार के हर भूभाग में गये लेकिन चीन नहीं गये। बुद्ध के बाद जब चीन
बौद्धिष्ट हो गया तो भारतीय संस्कृति का विस्तार हुआ। इस तरह से सांस्कृतिक रूप से
चीन भारत के अधीन हो गया। चीन को यह स्वीकार नहीं था कि भारत कि बौद्धिकता स्थापित
हो, उन्होंने बुद्ध के विचारों को विदूषित किया। कम्युनिस्ट राजनैतिक
व्यवस्था आने के बाद इसको पूरी तरह से ही नष्ट कर दिया गया , जिसको माओ ने culture revolution कहा। चीन का विकास
वस्तुतः मानवीय मूल्यों का उपहास है । उसे एक दुष्ट , धोखेबाज , स्वार्थी राष्ट्र के रूप देखा जाने लगा। उसकी यह
प्रवृत्ति है। खुद की स्थापना के लिए लाखों मनुष्यो की बलि देने में उसको जरा भी
संकोच नही। पिछली कई सदियां इस बात की साक्षी है। इतिहास में कितनी असभ्य हरकतें
चीन के नाम से दर्ज हैं, हर व्यक्ति जनता है। भारत मे कथित वामपंथ के नाम
पर अनेक लोग और संस्थाएं चीन के लिए काम करते रहे हैं।इसके लिए प्रमाण खोजने की
आवश्यकता ही नही। अभी चंद दिन ही तो हुए जब कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष अचानक उस
समय चीनी दूतावास पहुच गए थे जब पूरे देश मे चीनी हरकतों को लेकर जबरदस्त उबाल था।
अपनी आर्थिक, सामरिक ताकत बढ़ाने
के लिए अपने ही लाख दो लाख नागरिकों को मौत के मुह में डाल देना चीन के लिए बहुत
सामान्य बात है। वहां न विश्व वन्धुत्व से मतलब है और न सर्वे भवन्तु सुखिनः से।
कोरोना के संक्रमण के जरिये उसने जो विश्व युद्ध छेड़ा है उसमें अब उसे केवल लाभ ही
दिख रहा है। भले ही दुनिया उसकी इस हरकत को जान चुकी हो फिर भी अपने नागरिकों को बचाने
के लिए उपकरण तो चीन से खरीदने ही होंगे। यही लाभ अमेरिका भी कमाना चाहेगा। वह तो
और भी बड़ा व्यवसायी है। उसे मालूम है कि हथियार बिक नही रहे। आने वाले दिन चुनावों
के हैं । ऐसे में अमेरिकी अर्थव्यवस्था को दवा कारोबार पर ही भरोसा है। हो सकता है
कि यह सब चीन और अमेरिका दोनो की ही मिलीभगत हो लेकिन है तो जैविक युद्ध ही। सबसे
बडी दवा मंडी अमेरिका का अटलांटा है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व मुद्रा कोष
दोनो को फंड देता है। जाहिर है कि चीन से शुरू किया गया यह युद्ध विश्व बाजार पर
काबिज होने की जुगत ही लगता है।
यदि ऐसा नही होता तो चीन इस गंभीरता से दुनिया को
आगाह तो करता। लेकिन अपनी प्रकृति के अनुसार, दुनिया को समय रहते
सावधान नहीं किया। जब तक किसी वायरस के जीनोम को हम नहीं जानते तब उसका टेस्टिंग
किट बनाना कठिन है। चीन ने संसार के शोध संस्थानों को वायरस का जीनोम बताने में
बहुत देरी कर दी। वह यह भी छुपाता रहा वायरस की संक्रामकता क्या है। वुहान शहर में
कोरोना फैलने के बाद 90 लाख लोग वहां से दुनिया मे गये। आज जंहा तबाही
मची है यह वही स्थान है, अमेरिका के न्यूयार्क शहर में सबसे अधिक लोग गये।
आज अमेरिका के आधे मरीज यही से है। भारत का सौभाग्य था यहां सबसे कम लोग आये हैं।
जैविक युद्ध की इस विभीषिका से भारत उबर जाएगा। अपनी पूरी सनातनता के साथ उभरेगा।
कारण यह कि कोरोना की दवा एक मात्र भारत की प्राचीन सनातन संस्कृति, जीवन के आदर्शों और मूल्यों में निहित है। अब तो यह लगभग प्रमाणित हो
चुका है कि बाजार और सभ्यताओं के इस महायुद्ध में कोई शामिल होने से बचेगा नही।
सभी को लड़ना ही होगा। जिसने शुरू किया उससे मानवीयता की उम्मीद नही। जहां तक
पंहुचा वहां बाजार और खजाने महत्वपूर्ण हैं। भारत के लिए यह नया नही है लेकिन
तकनीक अलग है। भारत के लिए आशा उसकी अपनी प्राचीन जीवन शैली में है। कथित
प्रगतिशीलता और घनघोर आधुनिकता के बावजूद अभी भी ढेर सारा भारत मौजूद है। उसी भारत
तत्व में निहित है कोरोना से मुक्ति भी और सनातन संस्कृति की स्थापना भी।
क्रमशः
उपयोगी आलेख।
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