अगर चाहते हो कि लॉक डाउन जल्दी हटे
इष्ट देव सांकृत्यायन
दिल्ली और पश्चिम बंगाल से लेकर पटियाला और कलबुर्गी
तक जो यह हो रहा है, यह धार्मिकता तो है नहीं... अधिक से अधिक अगर इसे
कुछ कहा जा सकता है तो वह है पांथिकता। कर्मकांड का एक ख़ास तरीक़ा। चाहे यह
तरीका हो या वह। एक से दूसरे की पांथिकता में कोई बड़ा फर्क नहीं है। कमोबेश एक ही
तरह के दुराग्रह।
यह बहुत थोड़े से मामलों में धर्म का बाहरी स्वरूप कहा जा सकता है। ज्यादा ढक्कन और उससे भी ज्यादा आडंबर। जैसे बहुत महंगे और सुंदर कपड़े पहन लेने से कोई अक्लमंद और इज्जतदार नहीं हो जाता, नैतिकता बघारने से कोई सचमुच नैतिक नहीं हो जाता, वैसे ही कर्मकांड या दिखावे से कोई धार्मिक नहीं हो जाता।
इस दिखावे या आडंबर से ज्यादा से ज्यादा यह पता चलता है कि वह कितना अंधविश्वासी, कितना असंतुष्ट, कितना डिमांडिंग या सीधे शब्दों में कहें तो यह कि वह कितना बड़ा भिखमंगा है। ये मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारा जाने वाले सब भिखमंगे ही हैं ज्यादातर। वहां भगवान की सेवा तो सिर्फ एक झांसा है। जो अपने को जितना बड़ा धार्मिक (सही मायने में पांथिक) बता रहा है, वह उतना ही बड़ा झांसेबाज है।
उस परमसत्ता को वह जो भी कहे, पर असल में वह उसे झांसा ही दे रहा है। और अपनी तथाकथित धार्मिकता के नाम पर इंसान को भी। धार्मिक विश्वास के नाम पर सरकार यानी शासन और प्रशासन को भी। लेकिन उसे शायद यह पता नहीं है कि जो अपने को जितना सयाना समझता है, वास्तव में वह उतना ही बड़ा मूढ़ होता है। धूर्तता असल में उसी सिक्के का पहला पहलू है जिसके दूसरी तरफ मूढ़ता की तस्वीर खुदी है। इसके लिए लोक में कौवे का उदाहरण दिया जाता है।
हमारी धार्मिकता कितनी ओछी और कितनी उथली है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाएं कि कोई पूरी दुनिया को अपनी धार्मिक मान्यता के अनुसार बनाने के लिए पूरी दुनिया को मार डालने तक को तैयार है। इस वैश्विक महामारी को भी हथियार बना ले रहा है। यह सोचे बगैर कि जिसे तुम बेवजह दुश्मन माने बैठे हो, उसका कुछ बिगड़े या नहीं, तुम अपना और अपने अजीजों का पहले बिगाड़ रहे हो। दूसरा इस जहर की जद में आए या नहीं, तुम पहले आ गए। देखो जरा, इस बीमारी का आविष्कार करने वाले को ही।
साजिश चाहे कितनी भी बड़ी कर ले, झूठ चाहे कितना भी बोल ले, पर सच तो यही है कि चीन अभी भी इससे उबर नहीं पाया है। अपने को कम्युनिस्ट कहकर मार्क्सवाद को बदनाम करने वाले मनुष्यता के इन दुश्मनों की सरकार के लिए भले अपनी जनता और उसकी जान का कोई अर्थ न हो, वह सिर्फ एक गिनती के तौर पर उसे घटाती बढ़ाती फिरे, पर दूसरे स्रोतों से छनकर ये सूचनाएं तो आ ही रही हैं कि करोड़ों लोग अकेले चीन में मरे हैं।
करोड़ों वर्षों की इस धरती के इतिहास में ऐसी कितनी सरकारें आई और गईं। कोई अमर हो पाया क्या? जब कोई अमर नहीं हो पाया तो ये क्या अमर होंगे? और जब तुम्हीं अमर नहीं हो तो तुम्हारी सरकार का क्या? तुम्हें क्या लगता है, कितने दिन गोलियों-बारुदों से दबा लोगे तुम जनता की आवाज़? किसी दिन तुम्हारे यहां भी लोकतंत्र की कोई लहर उठेगी और तुम्हारे ही हथियारों से तुम्हें निपटा देगी। फिर वह थ्येन आन मन से लेकर तिब्बत, शिनजियांग और हांगकांग तक का सारा बदला ले लेगी।
सोच लो कि अगर तुम इस तरह यानी लोगों की जान लेकर या जान की धमकी देकर या लालच देकर उन्हें अपने पंथ में लाना चाहते हो तो कैसा समूह बना रहे हो तुम? कैसी दुनिया का सृजन करने जा रहे हो तुम? याद रखना, वे भी तुम्हारे ही जैसे पंथी बनेंगे। हर वक़्त डरे हुए, भयग्रस्त, अधीर और केवल लकीर के फकीर।
ऐसी डरी हुई सेना से, जिसके पास न अक्ल हो, न संयम, न साहस और न धैर्य, तुम कोई युद्ध जीतने का ख्वाब देख रहे हो तो बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी में हो। ध्यान रहे, पांडव केवल पाँच थे और कौरव सौ। पांडवों के साथ केवल कृष्ण थे और वह भी निःशस्त्र, कौरवों के साथ पूरी नारायणी सेना। देशघात के अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए बस बीस दिन पहले तक संविधान की दुहाई देने वाले रंगे सियारों, अगर तुममें ज़रा भी भारतीयता होगी तो महाभारत की कथा के ये तथ्य तुम्हें जरूर मालूम होंगे।
और वे हिंदू जिनकी सारी धार्मिकता केवल इसी लॉकडाउन में जाग रही है और देवी पूजा के लिए कभी उन्नाव तो कभी रीवा और कभी कलबुर्गी में भीड़ उमड़ी पड़ रही है, उस समय तुम्हारी धार्मिकता कहाँ घास चरने चली जाती है जब सड़क पर किसी स्त्री का सम्मान रौंदा जा रहा होता है और तुम चुपचाप नजर बचाकर भाग निकलते हो? देवी क्या तुम्हें सिर्फ़ भीख देने के लिए बैठी हैं? जिन देवी की प्रतिनिधि मानकर तुम छोटी-छोटी बच्चियों की पूजा करते हो नवमी को उन्हीं के सम्मान के लिए अगर तुम्हारी श्रद्धा उनकी रक्षाकवच बनकर नहीं उमड़ती तो इस लॉकडाउन में तुम्हारी भिखमंगई की प्रार्थना तुम्हें क्या लगता है कि स्वीकार हो जाएगी? ऐसा कैसे लगता है तुम्हें?
ना, यह धार्मिकता तो है ही नहीं, यह धार्मिकता के नाम पर अंधविश्वास है और अंधविश्वास के मूल में होता है क्षुद्र स्वार्थ, चमत्कार की आस, भिखमंगई। भिखमंगई ही है जो तुम्हें पंडे-पुजारी या मौलाना के रूप में शैतान के एक लालची प्रतिनिधि के इशारों पर नाचने के लिए मजबूर करती है। इनकी बातों के भ्रम में बिलकुल मत रहो। ये तुम्हें कुछ देने की हैसियत में नहीं हैं। क्योंकि ये तुमसे बड़े भिखमंगे हैं। वे तुम्हें भगवान से क्या दिलाएंगे जो भगवान के नाम पर तुमसे ही माँग रहे हैं?
गौर से देखो, सारे सच्चे मंदिर बंद हैं। तुम्हारी श्रद्धा के सभी सच्चे केंद्र चाहे वह चारो धाम हो, या 51 शक्तिपीठ या फिर द्वादश ज्योतिर्लिंग, सभी बंद हैं। तिरुपति, दतिया, हिमालय स्थित श्रीपीठ, वैष्णो देवी सभी बंद हैं। अगर वहाँ कोई है तो केवल वे साधु जो उनके व्यवस्थापक हैं। ज्यादातर घर-बार छोड़े हुए संन्यासी जो चातुर्मास छोड़कर बाकी समय रमते जोगी होते हैं। लेकिन साल के आठ महीने घूमते ही रहने वाले संन्यासी भी इस समय अपना मठ छोड़कर कहीं निकल रहे। वे स्वयं भी लॉक डाउन का पालन कर रहे हैं और दूसरों को भी यही सलाह दे रहे हैं।
अगर चाहते हो कि यह लॉकडाउन जल्दी हटे, सरकार को और ज्यादा सख्ती न बरतनी पड़े, तुम्हें गोली मारने के आदेश के साथ सेना न उतारनी पड़े तो ये पुलिसकर्मियों और चिकित्साकर्मियों पर प्राणघाती हमले, अस्पतालों में महिला कर्मचारियों के साथ अश्लील हरकतें और भाँति-भाँति की बदतमीजियाँ और बेहूदगियाँ अभी और इसी वक़्त से बंद कर दो। इस लॉक डाउन सरकार का नहीं, भगवान का आदेश मानकर इसका पालन करो और अगर संबंधित अधिकारियों को जरूरत महसूस होती है तो अपना संक्रमण छुपाओ नहीं, इसे ईश्वरीय प्रेरणा मानकर उनका सहयोग करो। उन पर पत्थर चलाने के बजाय चुपचाप उनके साथ जाओ, जाँच व इलाज कराओ और स्वस्थ होकर घर लौटो। सरकार को इस बात के लिए मजबूर न करो कि उसे तुम्हें तुम्हारे पूरे खानदान के साथ तुम्हारे ही घर में घेर लेने जैसा अप्रिय निर्णय लेना पड़े। सोचो, इसके बाद क्या होगा!
उपयोगी सुझाव
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