परपीड़ा में आनंद की प्रवृत्ति
अभी कोविड-19 जी को सी-ऑफ नहीं किया जा सका है कि एपोकैलिक जी
की आहट आने लगी है.
श्रीमान कोविड-19 चमगादड़ के सूप की देन थे और एपोकैलिक महाशय चिकन मीट के.
विभिन्न प्राणियों और उनके मांस से उपजे वायरस शायद मनुष्य से कुछ कहना चाहते हैं... क्या?
आप पचास साल पहले की तुलना में देखें तो सभी तरह के फल-सब्जियां और अनाज पहले की तुलना में बहुत अधिक जगहों पर पैदा होने लगे हैं. उपज कई गुना बढ़ गई है.
इसके बावजूद मांस की खपत भी पहले की तुलना में बहुत बढ़ गई है. मैंने किसी वैज्ञानिक अध्ययन में ऐसा नहीं पढ़ा कि कोई शाकाहारी प्राणी मांसाहारी हो गया हो. जंगली प्राणियों की सूची में किसी नए मांसाहारी का नाम नहीं जुड़ा है. जो शाकाहारी थे वे शाकाहारी ही हुए हैं. बस वही मांसाहारी हैं जो पहले से मांसाहारी थे.
मैंने कभी नहीं सुना कि हिरनों की नई पीढ़ी मांसाहारी हो गई. यह बात केवल मनुष्यों में सुनी जाती है. जिनके पूर्वज कभी मांसाहारी नहीं रहे और जिनकी आँतें भी मांसाहार के लिए नहीं बनी हैं, वे मांसाहारी हो रहे हैं. मांसाहारी होने के पीछे कोई वाजिब कारण नहीं है. न तो अन्न, जल, फल आदि की कमी और न कोई संकट. अगर इस वजह से अपने प्राण बचाने के लिए कोई होता है तो उसे क्षम्य माना जा सकता है. लेकिन बड़े पैमाने मांसाहार लोग केवल स्वाद के लिए अपनाते हैं.
मनुष्य हमेशा से प्रयोगधर्मी है. उसे एकरसता उबा देती है. आज जो स्वाद उसे बहुत अच्छा लगता है, थोड़े दिनों बाद वह उससे ऊब जाता है. उसे नया स्वाद चाहिए. न हो सके तो उसी में कम से कुछ नया प्रयोग. मनुष्य की यही प्रवृत्ति दुनिया भर में लाखों व्यंजनों का कारण बनी है.
यही मनुष्य की दुनिया में हर पल नवोन्मेष का कारण है. प्रकृति भी ऐसी ही है. अपने सर्वज्ञ होने के थोथे अहंकार की बात छोड़ दें तो हम अपने बहुत पहले से बनी प्रकृति को ही अभी पूरा नहीं जान पाए हैं और जो है उसमें भी हर पल कुछ नया हो रहा है. यह नया होना ही प्रकृति की सृजनशीलता का द्योतक है.
ठीक इसी तरह उपलब्ध या प्राप्त में हर पल कुछ नया करना मनुष्य की सृजनशीलता का परिचायक है. लेकिन मनुष्य में यह 'नया करना' दो प्रकार का है. एक तो वह रचनात्मक है और दूसरा वह जो विध्वंसक है.
विभिन्न कलाएं, रचनात्मक आविष्कार, नवनिर्माण ... यह सब उसकी रचनात्मक सृजनशीलता के साक्ष्य हैं. लेकिन दूसरी तरफ समूहघाती शास्त्रास्त्र, प्रतिशोध के नित नए और अधिक बर्बर तरीके उसकी इसी सृजनशीलता के विध्वंसक पक्ष को उजागर करती है.
यह व्यंजनों के मामले में भी हो रहा है. मांसाहारी व्यंजनों का स्वाद बढ़ाने के लिए अब केवल किसी प्राणी की जान ही नहीं ले जाती. कई जगहों पर तो शिकार प्राणी को तरह-तरह की यातनाएं दी जाती हैं. इसके तमाम विडियो आप यूट्यूब से लेकर विभिन्न चैनलों तक पर देख चुके होंगे.
कहीं सुअर के मांस का स्वाद बढ़ाने के लिए उसे पचास फीट की ऊँचाई से उठा-उठाकर पटका जाता है तो कहीं गर्भिणी बकरी को हलाल कर दिया जाता है और कहीं 50 मुर्गों के रहने भर के बाड़े में 500 से ज्यादा जिंदा मुर्गों को महीनों तक कसकर रखा जाता है. यह सब मनुष्यता नहीं, राक्षसीपने को भी शर्मिंदा कर देने वाली प्रवृत्तियां हैं.
परपीड़ा में आनंद
लेने की मनुष्य की यह प्रवृत्ति ही उसे आत्मघाती बना रही है. प्रकृति उसे इसके कई
संकेत दे चुकी है. लेकिन मनुष्य है कि वह अपनी हवस के आगे कुछ समझने को तैयार ही
नहीं है.
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