ज्योति और सचिन: खलनायक नहीं, नायक हैं ये
इष्ट देव सांकृत्यायन
सचिन पायलट का प्रयास एक बार उलटा क्या पड़ा पूरे परिदृश्य पर वे खलनायक नजर आने लगे। गहलोत और दूसरे कांग्रेसियों से लेकर न्यूज चैनलों-अखबारों के छापदार विशेषज्ञों और सोशल मीडिया के छापेमार विशेषज्ञों तक ने उन्हें विभीषण से लेकर रावण और दुर्योधन से लेकर शकुनि तक साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। ठीक यही बात उस वक्त भी हुई थी जब पायलट के दहिनवार सिंधिया ने मध्य प्रदेश में तख्ता पलट किया था। सिंधिया अपने प्रयास में सफल हो गए तो अब उनके खिलाफ सारी आवाजें आनी बंद हो गईं। उस वक्त अमावस के नीरव अंधकार में दहाड़ते कांग्रेसी शेरों की हैसियत अब ज्योतिरादित्य के मामले में कीं कीं करते निरीह झींगुरों से अधिक नहीं रह गई है।
अगर कहीं सिंधिया अगले चुनाव में जीत गए और भाजपा में अपने समर्थकों
की संख्या बढ़ा सके तो इन झींगुरों में से आधों से ज्यादा का पिल्लों के रूप में
पुनर्जन्म तो हम-आप दो साल बाद ही देख लेंगे। इसके लिए महाराज ज्योतिरादित्य
सिंधिया को कोई बहुत ज्यादा कुछ करना नहीं है। उन्हें कुल जो करना है, वह बस इतना ही है कि
महाराज के अपने साँचे से बाहर निकल आना है। ज्योतिरादित्य के लिए यह बहुत मुश्किल
नहीं है। क्योंकि वह केवल महाराज जीवाजी राव के वंशज ही नहीं, हार्वर्ड के
अर्थशास्त्र ग्रेजुएट और एमबीए भी हैं। मुझे नहीं लगता कि महाराज जैसे कड़े साँचे
की जकड़न से मुक्ति की कामना उनके भीतर नहीं होगी। ऐसा मैं केवल अनुमान से नहीं,
दो मुलाकातों के
अनुभव से भी कह रहा हूँ। अड़चन इसमें एक ही है और वे हैं शुभेच्छु। राजनीति में प्रतिस्पर्धियों
ही नहीं, जानी
दुश्मनों तक से ज्यादा खतरनाक शुभेच्छु होते हैं। अब इन शुभेच्छुओं से निपटना
महाराज के बस की बात है या नहीं, यह समय तय करेगा।
ठीक यही बात सचिन पायलट के मामले में भी है। हाईकोर्ट उनके बारे में क्या फैसला करता है, यह मामला ही अलग है। बाकी कालचक्र की कृपा से हम-आप जानते हैं कि लोकतंत्र में किसी जननेता के मामले में किसी कोर्ट के फैसले की कितनी अहमियत होती है। जहाँ कोर्ट द्वारा अवैध घोषित और सही मायने में स्थगित संसद पूरे देश पर दो साल के लिए एक व्यक्ति की तानाशाही थोपकर संविधान के मूल ढाँचे से खिलवाड़ कर सकती है और उस पर सवाल तक नहीं उठता, राजनीतिक पार्टियों के बीच आपराधिक रिकॉर्ड वाले सैकड़ों बाहुबलियों को टिकट देने और लोकसभा या विधानसभा तक लाने की होड़ मची हो और जिस देश में माननीय सर्वोच्च न्यायालय पूँजीपतियों द्वारा अपनी अवमानना के मामले में फैसले के नाम पर बेस्वाद जलेबी छानते हुए अपनी भूल ढूँढ निकालता हो, वहाँ जनता के मन पर किसी भी अदालती फैसले का कितना दबाव होता होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है।
यहाँ सचिन के साथ एक सुविधा है। सचिन बेशक मुँह में सोने की चम्मच लेकर धरती पर आए हैं, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि सोने-चाँदी वाली नहीं है। महाराज के साँचे में उनके कसे होने का तो कभी सवाल ही नहीं रहा और जीवन का उनका अनुभव बहुत लोगों की तुलना में बहुत व्यापक है। सचिन अपने निर्वाचन क्षेत्र से लेकर लोकसभा तक जिस बात के लिए खास तौर से जाने जाते हैं, वह उनका विनम्र और सहज व्यवहार ही है। जीत-हार और चुनाव में क्षेत्र बदलना एक अलग बात है, लेकिन उनके निर्वाचन क्षेत्रों के आमजन उनके व्यवहार की प्रशंसा करते थकते नहीं हैं। अब गहलोत जैसे जुगाड़ू लोग कुछ भी कह लें, बाकी 2014 के चुनाव में सच यही है कि मोदी की लहर मीडियाई विशेषज्ञों को छोड़कर बाकी सबको साफ तौर पर दिख रही थी। कांग्रेस की अपनी औकात क्या बची थी कि इसका अनुमान सिर्फ़ इस बात से लगाएं कि उनके तत्कालीन अध्यक्ष महोदय को अमेठी छोड़ वायनाड जाना पड़ा। बीच में 2105 किलोमीटर की इस दूरी में उन्हें 45 प्रतिशत मुस्लिम और 13 प्रतिशत ईसाई आबादी वाला कोई और क्षेत्र नहीं मिला। चूँकि कांग्रेस में नेहरू-घैंडी-गांधी परिवार की मूढ़ताओं-धूर्तताओं-विफलताओं-आशंकाओं को याद रखने का रिवाज नहीं है, इसीलिए दासानुदास गहलोत जब सचिन का निर्वाचन क्षेत्र बदले जाने संबंधी टिप्पणी कर रहे थे तब उन्हें अपने माननीय अध्यक्ष जी वाला मामला याद नहीं था।
उम्र के इस पड़ाव पर अशोक गहलोत जी के लिए यह भूल जाना तो अत्यंत स्वाभाविक है कि उनको चुनाव जिताने और सरकार बनाने में इस नाकारे-निकम्मे आदमी की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण थी। वे भूल गए कि सचिन पायलट को कांग्रेस में केवल इसलिए जगह नहीं मिली हुई है कि वे राजेश पायलट के बेटे हैं और राजेश पायलट राजीव गांधी के मित्र थे। वे यह भी भूल रहे हैं कि राजनीतिक हम्मामी नंगई में भी कोई किसी से कम नहीं है और जब सब एक ही हम्माम के हों तो एक-दूसरे की नंगई की ओर दुनिया को ललकारना कितना खतरनाक है। माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट दोनों की ही मृत्यु जिन परिस्थितियों में और जैसे हुई थी, उसमें कांग्रेस आलाकमान के खास कृपापात्रों के अलावा और किसी को भी कुछ भी सामान्य नहीं लगा था।
सचिन और ज्योतिरादित्य में समानता केवल इतनी ही नहीं है। उनमें कई और समानताएं भी हैं और उतने ही अंतर भी। दोनों ही बड़े महत्वपूर्ण हैं। दोनों ही के पिता राजीव जी के समकालीन और मित्र थे। दोनों खुद राहुल गांधी के समकालीन और मित्र हैं। इसके बावजूद ये दोनों ही राहुल गांधी की तरह जोनाथन स्विफ्ट रचित लापुटा द्वीप के वासी नहीं हैं और इसीलिए उनकी अपेक्षा छोटी राजनीतिक हैसियत वाले परिवार से होते हुए भी दोनों की अपनी राजनीतिक जमीन है। चाहे छोटे से इलाके में छोटा सा ही सही, लेकिन वे पूरी तरह जनाधार रहित राजनेता नहीं हैं। दोनों की जो पीड़ा है, उसका कारण वास्तव में यही है। महाराज के साँचे में कसे होने के बावजूद ज्योतिरादित्य केवल अपने परिवार की प्रतिष्ठा या पार्टी के नाम के भरोसे नहीं रहते हैं। जीत हार अलग बात है, लेकिन गुना में उन्होंने मेहनत भी की थी और हमेशा करते रहे हैं। यह बात सचिन के मामले में भी उतनी ही सही है। सोने की चम्मच के बावजूद इन्हें कहीं एडमिशन के लिए तीरंदाज बनने की जरूरत नहीं पड़ी। समय के साथ आने वाले भारतीय राजनीति के घाघपन की बात छोड़ दें और मेरी बात को अशोक जी जैसे वरिष्ठ राजनेता के सम्मान में धृष्टता के रूप में न लिया जाए तो दोनों के पास दुनिया की बेहतर समझ है। बेशक इसे विश्वदृष्टि कहना बहुत जल्दबाजी होगी लेकिन वैश्विक कूटनीति की समझ के साथ-साथ देश-दुनिया का इन दोनों नेताओं का अनुभव बेहतर है। आने वाले समय को इस बेहतर अनुभव की जरूरत ज्यादा होगी।
सचिन की खास बात यह है कि उन्हें भारतीय जमीन यानी आम जनजीवन की भी पर्याप्त समझ है और ज्योतिरादित्य को उन मूल्यों-मर्यादाओं की जिनकी कांग्रेस तो नहीं लेकिन आम भारतीय जनमानस में बड़ी कद्र है। सचिन की खूबी यह है कि उनके लिए सोने की चम्मच केवल एक पीढ़ी की बात है और अपनी जमीन उन्होंने पूरी तरह छोड़ी नहीं है। सचिन के पिता राजेश पायलट दिल्ली जब पहली बार आए थे, तो वह कोई पढ़ने या राजनीति करने नहीं आए थे। बुलंदशहर के एक छोटे से गाँव से राजेश्वर प्रसाद सिंह विधूड़ी यहाँ अपने चाचा की डेयरी पर उनकी मदद करने और शायद दूध का कारोबार समझने आए थे। मामूली किसान के इस बेटे के लिए राजीव गांधी से दोस्ती या पायलट बनना और भारतीय वायुसेना में अपने करतब दिखाते हुए बतौर लड़ाका पायलट पूर्वी स्टार एवं संग्राम मेडल हासिल करना सपने से भी बाहर की चीज़ें थीं।
जाहिर है, सचिन के रिश्तों में अभी ऐसे बहुत लोग होंगे जिनकी दुनिया खेत-मेड़, गाय-भैंस और गाँव-कस्बों तक ही सिमटी हुई है। इसके साथ ही अपने एकल परिवार के स्तर पर रिश्तों के मामले में वह अखिल भारतीय भी हैं। यह भी कि राजनीति में गया हुआ आदमी अपने रिश्तों से संवाद कभी नहीं छोड़ता। यह सचिन की विफलता का दिन है। आप जितनी चाहें गालियां उन्हें दे सकते हैं, लेकिन सितारे कोई एक जगह ठहरने वाली चीज नहीं हैं। समय के चक्र के साथ वे बदलते रहते हैं और उनके साथ ही आदमी की नियति के सोपान भी। मैं राजस्थान और देश-दुनिया की राजनीति को आने वाले उत्तर कोरोना दौर में जिस ओर बढ़ते देख रहा हूँ उससे यह कह सकता हूँ कि कुछ ही दिनों के बाद लोगों को यह समझ आने लगेगा कि रिश्तों को सहेजना सचिन के कितने काम आया और इसने उन्हें किस तरह ज्ञान और अनुभव संपन्न बनाया। जो लोग अभी सचिन और ज्योति को धोखेबाज, कृतघ्न और अति महत्वाकांक्षा का शिकार बता रहे हैं, उन्हें कोशों से दूसरे शब्द निकालने होंगे और बूढ़े घोड़ों पर ही लाल लगाम कसने की कांग्रेसी नीति पर पुनर्विचार की सलाह देनी होगी। ध्यान रहे, राजनीति में शुभाकांक्षियों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है और अभी के पूरे प्रकरण में सचिन के शुभचिंतकों ने उन्हें जो दुर्दम्य अनुभव दिया है, इसकी तपिश भी उस वक़्त उनके साथ होगी।
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