हिंदी का प्रथम पशु चरित्र केंद्रित उपन्यास 'रीफ'
भारती पाठक
[ इस कालम के अंतर्गत मैं एक पाठक की हैसियत से किताब को आपके साथ पढ़ने और पढ़े हुए को शेयर करने का प्रयास करती हूं । हम सभी जानते हैं कि आज हिंदी जगत में इतनी खेमेबंदी हो चुकी है कि किताब का पठन-पाठन छूट गया है, बस उन पर अपने वैचारिक फ्रेम से फतवेबाजी अधिक की जाती है । इससे पाठक दिग्भ्रमित हो जाते हैं और स्वतंत्र रूप से पुस्तक में लिखे का न तो अध्ययन कर पाते हैं, न आनंद ले पाते हैं । इसलिए मेरी तो कोशिश है कि पुस्तक में क्या है, यही सार संक्षेप में आपके सामने रखूं, अच्छा-बुरा तो आप जानें।]
कुछ दिन पहले ही मिले इस छोटे से उपन्यास को पढना शुरू किया तो ख़त्म किये बिना रोक नहीं पाई खुद को और उसके बाद पूरी रात स्मृतियों को टटोलते अजीब सी बेचैनी में कटी । सच है कभी-कभी जीव-जंतु भी परिवार के सदस्यों की भाँति हृदय में अपने प्रेम और स्नेह की जड़ें इतनी गहरी जमा लेते हैं कि जीवन उनके ही इर्द-गिर्द मंडराता रहता है और अपने जाने पर वे ऐसा खालीपन दे जाते हैं जिसे भरने की कोई युक्ति नहीं सूझती क्योंकि उनका स्थान कोई नहीं ले सकता।
यह कहना जरूरी है कि हमारा समय कुल मिलाकर मनुष्य और मानव-समाज केंद्रित समय है जिसमें हमने मानव से इतर प्राणियों, प्रकृति और परिवेश को केवल मनुष्य की उपयोगिता और स्वार्थ की दृष्टि से देखा है। इसमें जहां एक ओर प्रकृति का विनाश हुआ है वहीं मनुष्येतर प्राणी जगत के प्रति संवेदनहीनता बढ़ी है। इस तरह के अतिचारों के चलते ब्रह्मांड में बहुत सा असंतुलन पैदा हो गया है । आज जिस तरह मनुष्य सभ्यता महामारी की चपेट में है तो यह उचित समय है इन मानवीय विचलनों पर गंभीरता से विचार करने का और यदि संभव हो तो उसमें कुछ बदलाव लाने का। यह बिना व्यापक मानवीय संवेदनशीलता के संभव नहीं है।
इसी विस्तारित मानवीय संवेदनशीलता को व्यावहारिक रूप में प्रतिफलित करते हुए डॉ. गणेश पांडेय जी ने “रीफ” नाम का यह उपन्यास लिखा है जिसका वास्तविक नायक मनुष्य नहीं पशु चरित्र है । आज उसी की चर्चा हमें करनी है।
गणेश पाण्डेय जी हिंदी के उन लेखकों में हैं जो लेखक के जीवन और लेखन की शुचिता को न केवल स्वयं के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं बल्कि इसके लिए संघर्षरत भी हैं। उनका मूल मंत्र है कि एक लेखक को नाम-इनाम-प्रचार-विज्ञापन से अधिक अपने ईमानदार व्यक्तित्व और लेखन के बल पर रहना है। नए-पुराने लेखक उनके इस संघर्ष से बल पाते हैं।
गणेश जी का जन्म १३ जुलाई १९५५ को सिद्धार्थनगर जनपद ( तत्कालीन बस्ती जनपद ) के तेतरी बाज़ार में हुआ । साहित्य में गहरी रूचि थी तो गोरखपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए. फिर डाक्टरेट किया । कुछ वक्त पत्रकारिता से जुड़े रहे । प्रोफैसर के रूप में गोरखपुर विश्वविद्यालय से रिटायर हुए। एक कवि, कथाकार और आलोचक के रूप में ख्यातिप्राप्त पाण्डेय जी साहित्यिक पत्रिका ‘यात्रा’ का सम्पादन और अपने स्वयं के ब्लॉग का संचालन भी करते हैं । इनकी कविताओं के कई संग्रह, जैसे ‘अटा पड़ा था दुःख का हाट’, ‘जापानी बुखार’ और ‘परिणीता’ के अलावा कहानी संग्रह ‘पीली पत्तियां’, उपन्यास ‘अथ ऊदल कथा’, ‘रीफ’ और कई आलोचना की पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं।
आज हम उनके उपन्यास रीफ को पढ़ेंगे।
गणेश पाण्डेय जी द्वारा लिखा गया यह छोटा सा उपन्यास “रीफ” पढ़ने के बाद मन कुछ ऐसी ही वेदना से भर गया कि मुझे लगता है कुछ लिखा नहीं उसके लिए तो रीफ को भी बुरा लगेगा । सबसे पहले तो ये नाम ही इतना खींचता है, अनोखा लगता है कि इसका अर्थ जानने की उत्कंठा होती है । तो रीफ का मतलब है “शिलाखंड या समुद्री चट्टान”।
उपन्यास शुरू होता है घर में रीफ को लाये जाने से । लेखक कुत्तों से बेहद डरता है और इसके बिल्कुल पक्ष में नहीं कि कोई कुत्ता पाला जाए क्योंकि रिश्तेदार के घर में कुत्तों के साथ उसका अनुभव कुछ खास अच्छा नहीं रहा है । पत्नी और बच्चों की इच्छा जानकर किन्हीं भावनात्मक क्षणों में वह मान जाते हैं और इस तरह रीफ का घर में आगमन होता है । रीफ का घर में आना किसी कुत्ते का आना नहीं बल्कि परिवार में एक नए बच्चे के आगमन जैसा है । जिसे लेखक की पत्नी कुशी जी माँ के रूप में मिलती हैं और तीनों बच्चे उसे छोटे भाई के रूप में स्वीकारते हैं ।
लेखक से रीफ का पहला साक्षात्कार – “बरामदे में उनका पहला डग...कभी फर्श पर कभी आसपास...थोडा इधर उधर....मेरे पैरों को दूर से देख कर पलभर के लिए ठिठकना....फिर चिकचिक की ओर देखना....जैसे चिकचिक से पूछ रहा हो यही हैं खडूस डैडी...छू लूँ इनके पैर...नहीं बाबू अभी नहीं । रीफ साहब अपनी दीदी की गोद में आकर कभी इधर कभी उधर देख लेते हैं । रीफ की छोटी-छोटी आँखों में पहली बार मुझे ऐसा कुछ दिखा कि मेरा डर जाता रहा ।”
रीफ डाबरमैन ब्रीड का कुत्ता है जिसकी पूंछ कटवानी पड़ती है तो अगले ही दिन बच्चे उसे डॉक्टर के पास ले जाकर पूँछ कटवा देते हैं । इन जानकारी से बेखबर लेखक के लिए रीफ का पूँछ काटना अत्यन्त पीड़ादायक है जिसे वो हृदय से महसूसते हैं । उसका हृदय विद्रोह कर रहा है । उसकी इच्छा होती है कि जाकर उस निर्दयी डॉक्टर को उल्टा लटका दे जिसने रीफ की नाजुक पूंछ बिना एनेस्थीसिया दिए काट दी है । फिर वह आश्चर्य चकित है स्वयं पर कि “यह क्या हो गया है मुझे कि एक पिल्ले की कटी पूँछ के लिए इतना विकल हो गया हूँ ।”
यानि शुरू में उससे खिंचे-खिंचे रहते लेखक भी आखिर उसकी बाल सुलभ चंचलताओं के मोहपाश से बच नहीं पाते और उसकी ओर खिंचने लगते हैं । रीफ परिवार ही नहीं पूरे मोहल्ले में सबका दुलारा है और एक अच्छे बच्चे की तरह लेखक को घर का मुखिया ही समझ कर अनुशासन का पूरा ध्यान रखता है । रीफ की हर हरकत को देखते लेखक उसी के नजरिये से सोचते हैं और उसके दर्द और ख़ुशी को भी महसूस करते हैं ।
रीफ में अच्छी आदतें कैसे डाली जायं, रीफ को खाने में क्या पसंद, रीफ की पसंदीदा मिठाई कौन सी, रीफ को आइसक्रीम कौन सी पसंद, रीफ को मुर्गा ज्यादा पसंद तो उसमें भी कटौती नहीं होनी चाहिए यानि जैसे छोटे बच्चे के जन्म लेने पर उसकी छोटी-छोटी जरूरतों और पसंद-नापसंद को लेकर परिवार की दुनिया उसी के इर्द-गिर्द सिमट जाती है ठीक वैसे ही लेखक के परिवार की दुनिया में रीफ सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान पर काबिज हैं । इन सारी बातों का लेखक ने बड़े ही सरल शब्दों में क्रमवार वर्णन किया है जिसमें प्रेम है, संवेदना है, और है एक मानवेतर प्राणी को अपने से अलग न समझने का गहरा भाव ।
किताब को पढ़ते हुए बार-बार महादेवी वर्मा के संस्मरण संग्रह ‘मेरा परिवार’ का स्मरण हो आता है जिसमें उनके जीव प्रेम और उनसे जुडी यादों का विस्तृत विवरण है और जिसका परिचय मैं इसी कालम में दे चुकी हूं । लेकिन रीफ के इस विवरण में उससे कहीं अधिक बल्कि एक तरह की सजीवता और गहरी आत्मीयता महसूस होती है जिसमें पाठक खुद को बंधा और प्रेम विगलित पाता है ।
लेखक कहते हैं कि कुल मिलाकर ‘रीफ और घरवालों के बीच जो पक रहा है वो अकथ है । उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है वो भी उसके द्वारा जो उसे कुत्ता न समझ कर खुद से जोड़ ले, जिसे कुत्तों से घिन न आये और जो उन्हें अपनी तरह प्रेम कर सके ।’
बड़े धूमधाम से रीफ का जन्मदिन मनाया जाता है बिलकुल उसी तरह जैसे घर के बच्चे का जन्मदिन मनाते हैं । रीफ भी परिवार में अपनी अहमियत समझते हैं । खाना कुशी जी के हाथ से ही खाते हैं और उनके स्नेह पर भी पहला अधिकार उन्हीं का हो गया है लेकिन किसी में कोई जलन या इर्ष्या का भाव नहीं है । बच्चों के साथ-साथ रीफ बडा होता है । बच्चों के आगे की तैयारियों के लिए दूसरे शहरों में चले जाने पर रीफ लेखक दम्पति के प्रेम और देखभाल का एकछत्र अधिकारी होता है, वहीँ रीफ भी उनके लिए बच्चों से खाली हुए घर की रिक्तता को भरने का साधन है । रीफ ने पूरी तरह बच्चों की जगह ले ली है ।
लेखक इस प्रेम पर आश्चर्य चकित हैं और कहते हैं कि “ प्रेम के पैर क्यों इतने अशक्त है ? वक्त के साथ प्रेम का रूपान्तर क्यों होता रहता है ? क्यों हम अपने-अपने प्रेम को एक देह की कैद से बाहर निकाल कर प्रकृति और शेष प्राणियों में देखने लगते हैं ? क्या यही प्रेम की उद्दात्तता है ? या प्रेम का पुनर्जीवन ।”
सब कुछ ठीक चल रहा होता है कि जैसे खुशियों पर ग्रहण की तरह कुछ दिनों से रीफ सुस्त रहने लगता है और खाना कम कर देता है । शुरू में छोटी मोटी दवाओं से ठीक करने का प्रयास होता है । फिर डॉक्टरों के चक्कर पर चक्कर, सुइयां दवाइयां, सब बेअसर और दिन-ब-दिन रीफ की गिरती जाती सेहत । मानसिक रूप से टूटते दोनों पति-पत्नी की विकलता और इस मनोदशा से जूझते एक दूसरे से नज़रें चुराते और ढाढस भी बंधाने के भावों को लेखक ने बड़ी खूबसूरती से पिरोया है । कहीं कोई दिखावा नहीं, कोई बनावट नहीं । दुःख असली है, आंसू असली हैं और संवेदना भी असली हैं ।
पथराई आँखों से अपने पालकों को देखता रीफ क्या सोच रहा होगा, अपनी पीड़ा को न बताकर कैसे सह पा रहा होगा और हम उसे इस असहनीय पीड़ा में देख कर भी कुछ करने में असमर्थ हैं ये सवाल लेखक के दुःख को और बढ़ाते हैं । इन सबको महसूस करते मुझे याद आती है महादेवी जी की गौरा गाय की जिसे ग्वाला ईर्ष्यावश गुड के साथ सुई खिला देता है और अब गौरा के पास मृत्यु के दिन गिनने के सिवा कोई आस नहीं । वहां लेखिका की संवेदना अपने भावों के साथ अधिक है न कि गौरा के नजरिये से सोचने की जबकि यहाँ कथा का नायक है रीफ और लेखक सहायक की भूमिका में हैं ।
फिर अंत वही जिसकी कल्पना कोई भी पाठक नहीं चाहेगा, मैं भी नहीं । लेकिन नियति पर किसका वश । तमाम कोशिशों के बाद भी रीफ इस दुनिया को छोड़ अनंत यात्रा पर निकल पड़ता है जहाँ शांति ही शांति है और छोड़ जाता है अपनी यादों से कलपते हृदयों को सदा-सदा के लिए ।
किसी मानवेतर प्राणी पर इतने करीब से और संवेदनशील तरीके से लिखा गया संभवतः यह पहला उपन्यास है जिसने मन को भिगो दिया । उपन्यास का नायक है रीफ और उसी को केंद्र में रख कर लेखक ने कुछ-कुछ जगह-जगह बड़ा अच्छी बातों का तांता लगा दिया है कि “रीफ साहब कभी-कभी अपने गले के पट्टे पर सू-सू क्यों कर देते हैं । यह मैं ठीक-ठीक नहीं जानता । क्या पता रीफ को प्लेटो के ग्रन्थ रिपब्लिक के बारे में पता हो कि उसमें साफ-साफ कहा गया है कि गुलामी मृत्यु से भी भयावह है । स्वतंत्रता के मूल्यों के प्रति ऐसी निष्ठा पशुओं में भी देखा जाना स्वागतयोग्य तो है ही एक पाठ भी है कि भोंपू लेकर हमेशा इन्किलाब-इन्किलाब चिल्लाने और आज़ादी-आज़ादी का तराना गाने से स्वतंत्रता के सच्चे अर्थों की प्राप्ति नहीं होती ।”
ये कहानी सिर्फ रीफ की नहीं मानवीय संवेदना के उस अधिकतम स्तर पर पहुंचे मानव मन की है जब प्रेम की इस भाषा को पढ़ने के लिए विशेष दृष्टि चाहिए, उन भावों को आत्मसात करने के लिए विशेष हृदय चाहिए । यहाँ लेखक की कुछ पंक्तियाँ लिखूंगी जो सच है कि “ठहरे हुए अक्षरों को पढ़ना मामूली बात है । एक पद्धति से आदमी सीख जाता है लेकिन रीफ जैसों की जीवित और गतिशील भाषा और मुद्रओं को पढ़ना मनुष्य की उन्नत संवेदना और विकसित भावतंत्र से जुडी कोई विशिष्ट चीज है जो किसी-किसी के पास होती है ।” उपन्यास की भाषा सरल, सहज बोधगम्य और हम जैसे सामान्य पाठकों के समझने योग्य जो कि इसे पठनीय बनाती है ।
भारी भरकम साहित्य के बोझ से इतर एक पठनीय किताब ।
बढ़िया समीक्षा। पढ़नी पढ़ेगी रीफ ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (04-08-2020) को "अयोध्या जा पायेंगे तो श्रीरामचरितमानस का पाठ करें" (चर्चा अंक-3783) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया समीक्षा, मजा आ गया पढ़कर ...
ReplyDeleteबढ़िया समीक्षा
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