...गाँव की प्रत्येक चौखट थरथराती है
शशि पाधा
जून, २०२० के अंतिम सप्ताह में ‘विश्वम्भरा’ संस्था की ओर से ‘ज़ूम’ के माध्यम से एक अनौपचारिक वेब मिलन का आयोजन किया गया था। उस कार्यक्रम में वैश्विक संस्था ‘विश्वम्भरा’ की अध्यक्षा डॉ कविता वाचकन्वी जी ने इस संस्था के उद्देशयों, पूर्व में किये गए और भावी कार्यक्रमों के विषय से हम सब को अवगत कराया। क्यूँकि हमसे कुछ सदस्य इस संस्था से नये जुड़े थे अत: हमारे लिए इस के द्वारा किये गये महत्वपूर्ण कार्यों के विषय में जानना एक सुखद अनुभूति थी। इसी स्नेह मिलन में में कविता जी ने संस्था के आगामी कार्यक्रम की घोषणा की। कारगिल दिवस आने ही वाला था, इसलिए यह निर्णय लिया गया कि आगामी गोष्ठी स्वतंत्रता सेनानियों, भारतीय सेना के बलिदानियों और उनके परिवारों को समर्पित की जाएगी। कविता जी का आग्रह था कि विशेषतया बलिदानियों के परिवार के सदस्यों की पीड़ा को अपने रचनाओं का विषय बनाया जाए ताकि इनके आन्तरिक दुःख – दर्द के मूक स्वर जन-जन तक पहुँचें।
- स्वतंत्रता सेनानियों, भारतीय सेना के वीर योद्धाओं एवं उनके परिवारों को समर्पित श्रद्धासुमन
युद्ध अनवरत शेष हमारे
मैं सैनिक पत्नी हूँ। मैंने युद्ध भी देखे हैं और युद्ध भयावह प्रभाव भी। एक सैनिक जब सीमा पर शत्रु से लोहा ले रहा होता है तो वह मन हे मन आश्वस्त होता है कि उसका देश और उसका परिवार सुरक्षित है। इधर घर में उसकी पत्नी और बच्चों के मन में कभी इस बात की आशंका नहीं होती कि एक दिन शायद वह लौट के नहीं आएगा। यह मैं अपने अनुभव से बता रही हूँ क्यूँकि न लौट के आने की बात कभी हँसी-हँसी में भी नहीं होती। किन्तु नियति कुछ और भी खेल खेल सकती है। अकस्मात जब यह समाचार मिलता है कि उनका पति , पिता , बेटा या भाई सीमा पर छिड़े युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गया है तो--- उनका जीवन सदैव के लिए बदल जाता है। ऐसी दुखद परिस्थिति में कुछ दिन तो बहुत सहानुभूति मिलती है परन्तु फिर सगे संबंधी चले जाते हैं , मीडिया को और समाचार मिल जाते हैं, नेतागण राष्ट्र हित में बहुत से मसले सुलझाने में तल्लीन हो जाते हैं।ऐसे समय में बलिदानी का परिवार अकेला पड़ जाता है। युद्ध क्षेत्र बदल जाते हैं और उनका अपनी परिस्थतियों से अपना युद्ध शुरू हो जाता है। इन्हीं बिन्दुओं को ध्यान में रख कर वैश्विक संस्था ‘विश्वम्भरा’ की अध्यक्षा डॉ कविता वाचकन्वी एवं ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की ओर से कारगिल दिवस की पूर्व सन्ध्या 25 जुलाई के दिन एक अन्तर्रष्ट्रीय काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी स्वतन्त्रता संग्राम में बलिदान देने वाले चन्द्र शेखर आज़ाद एवं भारतीय सेना के बलिदानियों तथा उनके परिवारों को समर्पित थी। गोष्ठी के आमन्त्रण पत्र पर शीर्षक था – ‘युद्ध अनवरत शेष हमारे’।
गुजरात के राज्यपाल महामहिम आचार्य देवव्रत जी इस गोष्ठी के मुख्य अतिथि थे। उनकी गरिमामयी उपस्थिति ने इस कार्यक्रम को और भी गौरवपूर्ण बना दिया। अन्तर-राष्ट्रीय कवि सम्मेलन का संचालन "विश्वम्भरा" की संस्थापक-निदेशक आचार्य डॉ. कविता वाचक्नवी (ह्यूस्टन, अमेरिका) ने किया।
माननीय राज्यपाल की उपस्थिति व विशिष्ट सान्निध्य में इस गोष्ठी का शुभारम्भ हुआ। अपने उद्घाटन वक्तव्य में माननीय राज्यपाल आचार्य देवव्रत जी ने साहित्यिक क्षेत्र में सैनिक परिवारों के कठोर व कठिन जीवन को विषय बनाकर रचनाएँ आमन्त्रित करने व रचनाकारों' को ऐसे विषयों पर कलम चलाने का उद्बोधन देने के विश्वम्भरा' के ऐसे प्रयासों व पहल के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए संस्था को साधुवाद दिया व बलिदानियों के परिजनों को समर्पित लेखन की ओर लेखकों को प्रेरित करने के उनके अभियान की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि ऐसे प्रयासों में एकजुट होकर इस अभियान को भारत के जन-जन तक पहुँचाना चाहिए। करगिल युद्ध में भारतीय सेना के शौर्य और बलिदान का स्मरण दिलाते हुए माननीय राज्यपाल ने सैनिकों के परिजनों को सामाजिक सुरक्षा एवं सम्बल प्रदान करने की आवश्यकता पर भी बल दिया।
कवि सम्मेलन में अमेरिका व भारत सहित ऑस्ट्रेलिया, कैनेडा आदि के रचनाकारों ने भी प्रतिभागिता की। कार्यक्रम के शुभारम्भ में कविता जी ने सर्वप्रथम अमेरिका वासी कवयित्री रचना श्रीवास्तव जी को अपने काव्यपाठ के लिए आमंत्रित किया। रचना जी ने अपनी कविता में शहीद सैनिक की माँ के ह्रदय का करुण चित्र खींच दिया -
जब शहीद होते हैं बेटे/ खाली होता है घोंसला/ माँ समेटती है अपनी भावनाओं को,गाँठ लगादेती है/ स्वप्न दफ़ना देती है/ उगता है इंतज़ार का सूरज/ पर डूबता कभी नहीं॥
रचना जी के बाद कविता जी ने मुझे रचना पाठ करने के लिए आमंत्रित किया। युद्ध के बाद शहीद परिवार के बच्चों की मार्मिक मानसिक स्थिति को शब्दबद्ध करती हुई अपनी कविता के कुछ अंश प्रस्तुत कर रही हूँ:-
बड़े हो जाते हैं शहीदों के बच्चे/ बड़ा होने से पहले ही/ पढ़ लेते हैं माँ की आँखों की मौन भाषा/ जान लेते हैं मूक आह की परिभाषा/ रोक लेते हैं कोरों पर आँसूं/ ढुलकने से पहले ही/ बस यूँ ही बड़े हो जाते हैं शहीदों के बच्चे/ समय से पहले ही।
मेरे कविता पाठ के उपरांत भारत के उत्तर प्रदेश से सेवानिवृत्त शिक्षक श्री इन्द्रदेव भारती जी ने अपने काव्यपाठ में सीमा पर गये हुये अपने फौजी पति को घर के प्रत्येक सदस्य की मनोभावनाओं से अवगत कराते हुए पत्नी द्वारा लिखी गयी चिट्ठी में फौजी के परिवार का बड़ा ही मार्मिक चित्रण उकेरा:-
हे रणवीरे! सकल देश को/ चिंता देश के मंगल की/ तुम भी होगे वहाँ कुशल से/ और यहाँ भी मंगल ही/ अम्मा कहतीं मेरे दूध की/ लाज नहीं लुटने देना/ और देश की सीमा वाली/ रेख नहीं मिटने देना॥
इस कार्यक्रम की अगली कड़ी में आस्ट्रेलिया से श्री हरिहर झा ने अपनी कविता के माध्यम से युद्ध के बाद सैनिक परिवार के असहाय जीवन को कुछ इस प्रकार व्यक्त किया:-
सीमा पर चली थी गोली/ जीवन में अब आँख-मिचौली/ फेंके मंत्री ने जो पासे/ पुड़िया में आ गये दिलासे/ अपनी टूटी-फूटी खोली/ जीवन में अब आँख-मिचौली॥
इस कविता पाठ के बाद भारत से दिल्ली निवासी कवयित्री अलका सिन्हा ने एक फौजी पति के विछोह का दर्द छुपाने वाली सैनिक पत्नी के मर्म को अपनी रचना में अपने शब्दों एवं भावों द्वारा कुछ इस प्रकार से प्रस्तुत किया:-
दीवाना सा चाहा है तुम्हे/ सच है, मैंने तुमसे किया/ है अटूट प्रेम/लेली है इस/ दुनिया से लड़ाई/ पर ये जनून ही हुआ/ मुहब्बत कैसी/ हाला कि मै हुई/ नहीं शामिल कभी/ तुम्हारे नाम से निकले/ जलसे, जलूसों में/ नहीं लगाए तुम्हारे नाम के/ नारे/पर टस से मस नहीं/ हुई/ अपने उसूलों से।
काव्य गोष्ठी की अगली कड़ी में अमेरिका से "विश्वम्भरा" की निदेशक डॉ. कविता वाचक्नवी ने अपने शब्दों से जो हृदय विदारक चित्र उकेरा उससे श्रोताओं की आँखें छलछला उठीं । कविता जी ने एक सैनिक के अंतिम संस्कार के क्षणों की वेदना के दारुण पलों को शब्दरूप करते हुए कहा : -
जब तिरंगे में लिपट, घर/ देह आती है/ गाँव की प्रत्येक चौखट/ थरथराती है/ अब न दीपक थाल लेकर/ द्वार अगुआई/ यात्रा पर जब विदाई घर/ बुलाती है/ जर्जरित छत की बड़ी/ शहतीर क्या टूटी/ बारिशों में गल हवेली/ बैठ जाती है॥
अंत में विश्वम्भरा के संस्थापक आचार्य डॉ. ऋषभ देव शर्मा जी ने आज की गोष्ठी के लिए अपना अमूल्य समय एवं विचार देने के लिए राज्यपाल माननीय आचार्य देवव्रत जी को धन्यवाद दिया। उन्होंने सभी रचनाकरों की रचनाओं के केंद्र बिन्दुओं को लक्षित करते हुए रचनाकारों का मान बढ़ाया और उन्हें इन विषयों पर और लिखने के लिए प्रेरित भी किया। कार्यक्रम के समापन के क्षणों में श्री ऋषभ देव जी ने अपने काव्य पाठ द्वारा सभी को हृदय की गहराइयों तक छू लिया। इस रचना में उनके शब्दबाण देखिए और अनुभव कीजिए :-
तुम कहाँ थे/ जूझ रहा था जिस समय/ पूरा देश/ समूचे पौरुष के/ साथ/ हर रात, हर दिन/ नये-नये मोर्चों पर/ तब तुम कहाँ थे?
लगभग दो घंटे तक चली यह वैश्विक काव्य गोष्ठी समाप्त हो गई किन्तु इन पलों में रचनाकारों ने तथा श्रोताओं ने जो जिया – भोगा वह शब्दातीत है। ऐसे अनुभव के उन पलों में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई से लेकर कारगिल युद्ध और उसके उपरान्त कश्मीर घाटी में आतंकवाद से युद्ध करते हुए बलिदान हुए रणबांकुरों के शौर्य और पराक्रम का तेज भी था और शहीदों के परिवार के धैर्य और कष्ट की नमी भी थी । इस पूरे पार्यक्र्म में मैं कितनी बार उन वीरांगनाओं से मिल आई, मैंने कितने बच्चों को गले से लगाया और कितने शूरवीरों को अंतिम विदाई दी, यह मेरे लिए लिखना बहुत ही कठिन और दुखदायी भी है । मेरा सौभाग्य है कि मुझे इस यज्ञ में अपने शब्दों/ भावों की आहुति देने का अवसर मिला।
सुन्दर वर्णन...
ReplyDeleteशशि जी, आपके मार्मिक,प्रभावी एवं सशक्त विवरण ने मन को छू लिया। आपने पूरे कार्यक्रम का चित्र आँखों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। साधुवाद !!
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