आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें
इष्ट देव सांकृत्यायन
मैंने किशोरावस्था में तमिल सीखना शुरू किया था।
वर्णमाला सीख भी ली थी लेकिन उसके आगे नहीं बढ़ सका। तब मैं गोरखपुर में था और मेरा
कोई तमिल मित्र भी नहीं था। अपेक्षाकृत छोटा शहर होने के कारण वहाँ तमिल जनसंख्या न के बाराबर है। मेरे सहपाठियों में दक्षिण भारत एक-दो बच्चे रहे जरूर, लेकिन वे खुद तमिल या मलयालम केवल बोलना जानते थे। लिखने-पढ़ने में इतने अच्छे नहीं थे कि सिखा पाते। मेरे परिचय क्षेत्र में तमिल जानने वाला ऐसा कोई नहीं
था। इंटरनेट तब था ही नहीं। ऐसी कोई दुभाषी किताब भी नहींं मिली जिससे मैं हिंदी या
अंग्रेजी के माध्यम से तमिल सीख पाता। ऐसी स्थिति में वर्णमाला से आगे बढ़ने का कोई
उपाय ही नहीं था।
दिल्ली आने पर कुछ तमिल लोगों से मित्रता तो हुई लेकिन वे हिंदी माध्यम से तमिल सीखने लायक कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं करा सके। मुझे मानना होगा कि जिंदगी की आपाधापी में मैंने खुद भी यह बात किनारे रख दी थी। कह सकते हैं कि लगभग भूल सा गया था। कभी-कभी हूक सी उठती जरूर कि भाषाओं के मामले में दक्षिण भारत ही क्यों छोड़ा जाए, लेकिन फिर दूसरी प्राथमिकताएँ आड़े आ जातीं। समय सचमुच बहुत महंगी चीज हो गया। लेकिन लॉक डाउन के दौराने फिर थोड़ा विश्राम मिला और उस विश्राम में बार-बार यह बात भी मन में उठने लगी।
क्षेत्रीय कही जाने वाली भाषाओं के हिंदी से संबंधों तथा भारत की सभी भाषाओं के सहकार एवं विकास पर जिन थोड़े से लोगों से मेरे विचार मिलते हैं, उनमें श्रीधर एक हैं। श्रीधर जी प्रकाशक हैं और हिंदी से अत्यंत अनुराग रखने वाले हैं। गांधी जी की बनाई दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा से भी जुड़े हैं। इस सभा के योगदान पर फिर कभी लिखूंगा।
हमारे भारत के उत्तरवासी समाज में दक्षिण के लोगों को लेकर एक बड़ी भारी भ्रांति है। दुर्भाग्य से दक्षिण के ही कुछ राजनीतिक रूप से कुंठित और क्षुद्र स्वार्थपूर्ति में लगे लोग इस मिथक को और प्रबल बनाने का कार्य भी करते हैं। यह भ्रांति है हिंदी के विरोध की। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह मिथक भी प्रभावी उत्तर भारतीय समाज में केवल उन्हीं लोगों तक है जिनका दक्षिण में आना-जाना न के बराबर है। हिंदी के विरोध और क्षेत्रीय भाषाओं के कारण हिंदी के न बढ़ पाने का जो मिथ है, मेरे मित्र श्रीधर उसके एक सबल और प्रबल उत्तर हैं। अपने जैसे वह अकेले नहीं हैं। वयोवृद्ध रचनाकार डॉ. एम. शेषन और मित्रवर वासुदेवन शेष जैसे भी बहुत लोग हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन तमिल और हिंदी के आपसी परिचय को और सघन करने में लगा दिया।
हाल ही में श्रीधर जी से तमिल सीखने को लेकर बात हुई और उन्होंने तुरंत मुझसे पता पूछा। थोड़ी देर बाद व्हाट्सएप पर उनका एक संदेश आया, जिसमें मेरे पते पर भेजी जाने वाली किताबों के एक पैकेट का चित्र था। थोड़ी देर बाद एक और संदेश आया, उसमें डाक की रसीद थी। यह बात 1 अक्टूबर की ही है। सेलम से भेजी गई डाक कायदे से तो एक हफ्ते में मिल जानी चाहिए थी, लेकिन हमारा डाक विभाग सरकारी विभाग है। अपनी ही गति से काम करता है। खैर, गुरुवार यानी 15 अक्टूबर को अपराह्न श्रीधर भाई का भेजा हुआ वह पैकेट मुझे प्राप्त हुआ। उसमें उनकी भेजी हुई कुछ पुस्तकें मिलीं। इनमें तमिल से हिंदी सीखने के अलावा डॉ. शेषन की कृति 'तमिल साहित्य: एक परिदृश्य' एवं श्रीधर भाई के प्रयास से प्रकाशित पत्रिका शबरी के कुछ अंक भी हैं।
जी प्रेरक प्रयास है। मैंने भी बांग्ला सीखने का प्रयत्न किया था लेकिन संकयुक्ताक्षर पर ही रुक गया। उम्मीद है आपकी यात्रा इस बार आगे बढ़ेगी।
ReplyDeleteतमिल सीखने के लिए शुभकामनाएं
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