इस डाक विभाग का क्या होगा?

हरिशंकर राढ़ी 
आज भारतीय डाक विभाग ने दो ऐसी भयावह कर्तव्यपूर्ति की कि दंग रह गया। कुछ कहते नहीं बन रहा कि ये क्या-क्या चमत्कार करेंगे और कहाँ तक गिरेंगे। पिछले दिनों समकालीन अभिव्यक्तिके दो विशेषांक आए थे - एक तो आत्मकथ्य विशेषांक और दूसरा रामदरश मिश्र एकाग्र। ये दोनो विशेषांक कोरोना काल की चुनौतियों को झेलते हुए किसी तरह हमने एक साथ छपवाया और भारतीय डाक विभाग से पंजीकृत डाक से भेजना शुरू किया। लेट-लतीफ तो चल जाएगा, उसे हमने स्वीकार कर लिया है। किंतु आज हमें हमारी पत्रिका के दो रजिस्टर्ड पोस्ट वापस आ गए, Not Address लिखकर। गया में एक सज्जन हैं श्री राजेंद्र वर्मा जी। वे केनेरा बैंक से रिटायर्ड मैनेजर हैं और देश की लगभग सभी पत्रिकाओं के विशेषांकों का संग्रह कर रहे हैं। उन्हें कहीं से मेरा नंबर मिला और मुझसे आग्रह किया कि समकालीन के जितने विशेषांक निकले हों, उनकी प्रतियां भिजवा दें। इसके लिए वर्मा जी ने बैंक खाता नंबर लेकर डाक व्यय सहित शुल्क भेज दिया। हमने उनके पते पर पत्रिका के उपलब्ध चार विशेषांक रजिस्टर्ड डाक से भेज दिए।

बहुत दिनों तक कुछ सूचना न मिलने पर आज जब ट्रैक किया तो पता चला कि बोधगया पोस्ट आफिस से पैकेट पर अपर्याप्त एड्रैस की टीप लगाकर वापस कर दिया गया है। खैर, वह पैकेट वापस आया तो हमारी आँखें फटी की फटी रह गईं। बुक पैकेट बंद लिफाफे में भेजा नहीं जा सकता, इसलिए उसपर लैमिनेटेड ब्राउन पेपर की पट्टी लगाकर उस पर पूरा पता लिखा गया था। पट्टी को सेलो टेप से जगह -जगह मजबूती से चिपकाया गया था। ऊपर-नीचे की ओर भी मुँह को पेपर और सेलो टेप से बंद किया गया था। अब बोधगया डाकघर का कारनामा देखिए। उस पैकेट से पते की पट्टी को फाड़कर गायब कर दिया गया था। प्राप्त करने वाले का पता पूरी तरह लैमिनेशन को उखाड़ लिया गया था। इसके बाद उन्होंने आत्मकथ्य वाले अंक को पत्रिका के छपे पते पर वापस कर दिया। कानूनन रक्षा कर ली अपनी। पत्रिका पे्रषक को वापस कर दी। लेकिन महोदय, जब पत्रिका पर प्राप्त करने वाले का पता लिखा ही नहीं था तो वह बोधगया डाकघर पहुंच कैसे गई?जाना उसे बोधगया ही था। उसे तो दिल्ली से ही वापस हो जाना चाहिए था। दूसरी बात, उस पैकेट के तीन अलग-अलग विशेषांक कहां गए?

दूसरा कारनामा देखिए। उपरोक्त दोनों अंकों की प्रतियां वसुंधरा, गाजियाबाद स्थित इष्टदेव सांकृत्यायन को भेजी। उसी तरह की पैकिंग। आत्मकथ्य वाले अंक की प्रति वापस आ गई जबकि रामदरश मिश्र एकाग्र इष्टदेव जी को मिल गई। अंक को कितनी बुरी तरह हैंडिल किया गया है, यह आप चित्र में देख सकते हैं।

कितनी मेहनत से पत्रिकाएं निकलती हैं, कितना खर्च करके भेजा जाता है, इसे छोड़ भी दिया जाए तो क्या डाक विभाग का इतना पतन हो गया है कि वे ऐसी ही सेवा देंगे? आज यदि सरकार विभागों के निजीकरण की सोच रही है तो क्या इसके लिए सरकारी कर्मचारी जिम्मेदार नहीं हैं? निजीकरण के लिए काफी हद तक सरकार नहीं, सरकारी कर्मचारी ही जिम्मेदार हैं। साधारण डाक पहुंच जाए, यह तो सपना मात्र रह गया है। एक बार समकालीन अभिव्यक्ति की लगभग 500 प्रतियाँ डाक विभाग ने पता नहीं कहां उदरस्थ कर लीं क्योंकि वे साधारण डाक से भेजी गई थीं। आधार कार्ड जैसे प्रपत्र इधर-उधर फेंके हुए पाए गए हैं। सुना तो यहां तक गया है कि साधारण डाक कबाडी वालों तक पहुंच जा रही है। क्या डाक विभाग बोधगया जैसे डाकघर वालों के प्रति कोई कार्यवाई करेगा? मुझे तो उम्मीद नहीं है क्योंकि उन्होंने कम से कम एक प्रति प्रेषक के पते पर तो पहुंचा ही दी है। घूंट कड़वा भले हो, लेकिन सरकारी कर्मचारियों से सेवा की उम्मीद करना दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं।

 

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