पेड न्यूज क्या है?
प्रकाश अस्थाना
जब भी आम चुनाव निकट होते हैं, तो चुनाव आयोग और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की ओर से एक निर्देश जारी होता है कि मीडिया में पेड न्यूज नहीं चलाई जाएं अन्यथा समुचित कार्रवाई होगी। आम पाठक भले ही इसे अधिक गहराई से न समझ सके, लेकिन मीडिया से जुड़े लोग इस बात को समझते हैं। होना यह चाहिए कि पाठकों या चैनल दर्शकों तक पेड न्यूज की बारीकियों को कोई ठीक तरीके से पहुंचाए या उन्हें समझाए...मीडिया खुद ऐसा करेगा नहीं, क्योंकि यह अपने पांव में कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा !! तो फिर कौन करेगा? ऐसे में सूचना प्रसारण मंत्रालय को ही कमर कसनी होगी, वह भी पूरी ईमानदारी के साथ..।
साभार: https://www.indianfolk.com/menace-paid-news-edited-2/ |
..जी हां, है कड़वा लेकिन सच तो यही है। अब खबरों के बदले पैसा बनाने का खेल चुनावी मौसम तक ही सीमित नहीं रह गया है..। इस धंधे का विस्तारवाद हो चुका है और यह तब हुआ, जब देश पर सबसे अधिक राज करने वाली एक पार्टी को लंबे समय तक सत्ता से बाहर रहना पड़ा है और शायद, आगे भी रहना पड़े ?
...कुछ अजीब नहीं लगता यह देखकर कि एक दशक पहले तक अखबारों, पत्रिकाओं में ज्वलंत मुद्दों पर सारगर्भित, विचारोत्तेजक, गहन विश्लेषण, सुझावपरक, ज्ञानवर्धक लेख या कॉलम लिखने वाले बुद्धिजीवी अचानक अपने विचारों में बूढ़े हो चुके हैं ? उनके लिखे को मनन करने पर आभास होता है, मानो लिखा गया कोई लेख या कॉलम 'जबरन' लिखा या लिखवाया गया है ? यदि आपको ऐसा महसूस हो रहा है तो समझिए यह पेड न्यूज है।
..दरअसल, आजकल लेखकों से अखबारों या टीवी की डिबेट में आमंत्रित करने से पहले उन्हें विषय तो समझाया ही जाता है, यह भी सुझाव दिया जाने लगा है कि उनके विचार कुछ इस तरह व्यक्त होने चाहिए जिनसे जनता के एक बड़े वर्ग में संदेश जाए कि जो हो रहा है, वह सही नहीं हो रहा है.. आप जिस सरकारी योजना या कदम को देश के लिए मील का पत्थर मान रहे हैं, वह दरअसल गहरे-अंधेरे कुएं के अलावा कुछ नहीं, एक छलावा है !! अगर लेखक खुद पर थोपे गए इस विचार को आप पर थोपने में कामयाब हो जाता है तो..विपक्ष का आधा काम हो गया..। लेकिन इस सवाल का जवाब वह लेखक नहीं दे सकता कि कोई भी सरकार ऐसा काम क्यों करेगी, जिसे पांव में कुल्हाड़ी मारने की कहावत चरितार्थ हो? हर सरकार कुछ न कुछ गड़बड़ करती है, आटे में नमक सभी दल मिलाते हैं? नमक ज्यादा और आटा कम होने पर उसके परिणाम भी जनता दिखा देती है।
साभार: https://www.seekersthoughts.com/2018/08/
paid-news-menace-to-free-and-fair.html
जनता
के पास हर पांच साल में सरकार बदलने की ताकत है.. ये महाज्ञानी लेखक क्यों भूल
जाते हैं ? दरअसल, उन्होंने जो लिखकर
जनता को बरगलाने की कोशिश की,
वही पेड न्यूज
है...। पहले किसी आर्टिकल के 1000-2000
रुपए मिलते थे.. जो
ईमानदारी के थे..लेकिन अब न केवल लेखक को मोटी रकम मिलती है, बल्कि छापने वाले अखबार या पत्रिका को भी अतिरिक्त इन्कम होने लगी है।
विरोधी राजनीतिक दलों ने नया फंडा अपना लिया है। कोई सरकार विरोधी लेख छपने पर उस
पर हंगामा मचाना ऐसे दलों का कर्तव्य तो बनता ही है। ...वरना क्या कारण है कि
पिछले कुछ सालों से सरकार के हर कदम की नुक्ताचीनी बड़ी बारीकी से की जाने लगी है ? काश...ये कथित नामचीन लेखक अपना फर्ज शुरू से ही सही ढंग से निभा रहे
होते तो आज जो समस्याएं गहरी जड़ें जमाए 50-60 सालों से हमें दुख
पहुंचा रही हैं... वे शायद नहीं होतीं..।
इस लेख के जरिये मेरा मकसद उन नामचीन लेखकों को
नीचा दिखाना नहीं है... उन्हें सठियाने से बचाना है। समुद्र में एक लोटा पानी
डालकर मैं कुछ नहीं कर सकता.. लेकिन प्रयास तो किया ही जा सकता है।
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