संबंध क्या है और दुःख से कैसे जुड़ा है?
"संबंध भी छोटे बच्चे की ही भाँति होते हैं- हरदम ध्यान रखना पड़ता है, सँवारना पड़ता
है।"
वस्तुतः, मानव जीवन व्यक्ति एवं वस्तु (सजीव अथवा निर्जीव) से संबंधों का समुच्चय होता है। ये संबंध भावनात्मक, मानसिक, शारीरिक, सामाजिक आदि हो सकते हैं।
जी हाँ, ग़ौर से देखें, तो रिश्ते हमारे जीवन की धुरी होते हैं। जो रिश्तों में नहीं बँधा है, वह संन्यासी है अथवा पशु। कोई जिस हद तक मानवीय मूल्यों, सरोकारों को निभाता है, उस हद तक रिश्तों की डोर से उद्दित या अनुबद्ध भी रहता है।
रिश्ते या संबंध सदा प्रीतिकर ही हों, यह अननिवार्य है, आवश्यक नहीं है। व्यावहारिक तौर पर देखा गया है कि व्यक्ति जानते हुए भी कि उसकी किसी पर निर्भरता है, किसी से अति-प्रीति है, वह उससे मनमुटाव भी करता है, तर्क भी करता है और लड़ता भी है। यह उसके संबंध निबाहने का संस्कार होता है। दो दिन के लिए उसे उससे अलग करके देखिए, किसी बीमारी की झूठी सूचना देकर देखिए, प्रेम सभी वैमनस्य को दबाकर ऊपर आ जाएगा।
संबंधों की चर्चा करते समय कुछ आम धारणाएँ मिलती हैं, जैसे- 'संबंध दुःख देते हैं' या 'संबंध से दुःख मिलता है'। इन बातों को परीक्षण में उतारने से पहले यह तय कर लेना समीचीन होगा कि जिसे हम संबंध की संज्ञा से अभिहित करते हैं, वह है क्या? किसे कहेंगे संबंध??
संबंध क्या है? एक वाक्य में कहें, तो संबंध आपसी जुड़ाव से अवगत होने की अवस्था है। संबंध अन्विति है, संगति है, अन्वय है, मेल है। जब कोई जुड़ाव हो और उससे आप अवगत भी हों, तभी संबंध है, अन्यथा समूची दुनिया के सब जड-चेतन आपसे किसी-न-किसी विधि संबद्ध ही हैं। तार्किक रूप से कोई भी मनुष्य इस ब्रह्मांड के सभी चीज़ों से जुड़ा है; कुछ नहीं, तो भौतिकी के गुरुत्वाकर्षण के वैश्विक-विधान से तो जुड़ा ही है। संबंध की परिधि में यह जुड़ाव तब आता है, जब व्यक्ति इससे अवगत हो, इसे स्वीकृति दे।
इसी विचारणा से तार्किक निष्पत्ति लें, तो जीवन भी एक संबंध ही है; क्योंकि अगर सभी संबंध (जड-चेतन) टूट जाएँ, तो जीवन ही नहीं बचेगा। आश्चर्य नहीं कि किसी भावुक व्यक्ति के जब कुछ महत्त्वपूर्ण संबंध टूटते हैं, तो वह मान लेता है कि सभी संबंध टूट गए और वह आत्महत्या या जीवन-अंत करने की सोचने लगता है। एक या कुछ संबंधों के संकुचन को वह सारे संबंधों की परिसमाप्ति महसूस करने लगता है, जबकि सच्चाई होती है कि तब भी संसार में कई संबंध शेष रहते हैं। ऐसे देखें, तो प्रकारान्तर से संबंध ही संसार है। जी हाँ, संसार को हम बाह्य संबंधों का समुच्चय कह सकते हैं।
संसार को हम ऐसा मान सकते हैं कि यह किसी भी प्राणी का उसके बाह्य से व्यवहार है, और कुछ नहीं। यह व्यक्ति के समवेत संबंधों का प्रतिबिंब है। कहा जाता है कि कोई व्यक्ति कैसा है, इसका पता उसके संबंधों से लगता है कि वह कैसे लोगों के साथ उठता-बैठता है।
हम ऐसा कह सकते हैं कि किसी व्यक्ति का संबंध वह दर्पण होता है, जिससे उसका व्यक्तित्व झाँकता है। इस तर्कदृष्टि से देखें, तो संसार की समस्याएँ वे समस्याएँ हैं, जिसे कोई प्राणी अपने संबंधों में पाता है, अपने बाहर के व्यवहार में पाता है। और, अगर इतनी निष्पत्ति उचित प्रतीत होती है, तो यह भी मानना पड़ेगा कि उसकी समस्याओं का समाधान उसके ही अंदर है, इसके लिए किसी 'संयुक्त राष्ट्र संघ' या किसी 'अंतरराष्ट्रीय न्यायालय' जाने की ज़रूरत नहीं है।
संबंध की प्रकृति क्या है? प्रतीत होता है कि हर संबंध परस्पर निर्भरता और सहयोग पर आधारित होता है। जितनी अधिक निर्भरता, जितना परस्पर सहयोग, संबंध उतना ही प्रगाढ़। इसमें 'परस्पर' शब्द अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और संबंध का प्राण है। जैसे ही संबंध की परिभाषा से 'परस्पर' शब्द हट जाता है, संबंध दुर्बल हो जाता है।
यहाँ एक प्रश्न उठता है कि हृद-संबंधों में असंतोष या दुःख का क्या कारण है?
देखा जाता है कि हर संबंध में 'परस्पर' संतोष, कृतज्ञता, आदि भाव विद्यमान्
रहते हैं, जो संबंध के होने का सुख देते हैं,
जब यह सुख नहीं मिलता, असंतोष होता है और
हम संबंध से छिटकने लगते हैं। यह सुख कब नहीं मिलता है? जब 'परस्पर' शब्द गौण हो जाए...
जो कि स्वार्थ, आधिपत्य-भाव आदि के कारण सामान्यतः हो ही जाता है।
इन संबंधों से हम क्या पाते हैं? सामान्य रूप में देखें, तो ऐसा लगता है कि इन संबंधों से हम प्रेम, समुल्लास, कृतज्ञता, स्थायित्व, जीने का कारण आदि पाते हैं, पर तात्त्विक रूप से विचार करें, तो हम संबंधों के माध्यम से स्वयं को ही पाते हैं।
जब संबंध आपसी जुड़ाव से अवगत होने की अवस्था है, तो यह स्पष्ट है कि अवगत होने की प्रविधि और इसका सामर्थ्य हम पर निर्भर है, हमारी चेतना पर अवलम्बित है। हम जैसे होंगे, वैसे ही महसूस करेंगे, उसी तरह जुड़ेंगे और अवगत करेंगे। ऐसे में, प्रतीत होता है कि अपने संबंधों के माध्यम से हम ख़ुद को ही पाएँगे… अपने विविध रूपों में।
हमारे अंदर व्यक्तित्व की विविध परतें, भावों के विविध संजाल और आकांक्षाओं, अनुभूतियों के विविध संस्तर होते हैं। इसकी प्रतिकृति के रूप में हमारे विविध संबंध होते हैं। जैसे भाव, वैसे संबंध। जैसे विचार, वैसे संबंध। जब अस्थिर करने वाले भाव और विचार प्रकट होते हैं, तब हम संबंध से बिदकने लगते हैं; प्रत्युत तार्किक और मनोवैज्ञानिक रूप से देखें, तो क्या हमें इसका स्मरण नहीं रखना चाहिए कि अपने संबंधों के माध्यम से हम ख़ुद को ही पा रहे हैं?
दरअसल संबंध एक जटिल प्रकिया है जिसे जुड़ाव और पारस्परिक निर्भरता के रूप में देखते हुए दर्द के साथ भी आवश्यक रूप से जोड़ दिया जाता है। बस इसकी विवेचना करते समय हमें यह जानना और मानना होगा कि एक युगल, दम्पती या कोई दो सुहृद-संबंधी असहमत हो सकते हैं, तर्क कर सकते हैं, लड़ सकते हैं; फ़िर भी प्रेम से निभा सकते हैं।
प्रेम बहकना नहीं, बहना है। एकत्व में बहना है। देखा जाता है कि एक अच्छा संबंध प्रेम उत्पन्न ही नहीं करता, इसे फैलाता-प्रसरित करता भी है। इनमें भी, सुंदरता, प्रतिभा, मेधा आदि के सहारे निर्मित संबंधों में प्रतिस्पर्धा और तनाव देखा गया है; जबकि ईमानदारी के सहारे निर्मित निष्कपट संबंधों में मिठास और प्रगाढ़ता मिलती है।
रिश्ते में अपनी हिस्सेदारी नहीं निभाने पर दूर रहने से दूरी और नज़दीक रहने से तनाव होता है। हर छोटी-छोटी चीज़ का महत्त्व होता है। अगर घर के ही काम में एकदम हाथ न बँटाएँ, तो भी झगड़ा या दुःख हो जाता है। प्रायः देखा गया है कि व्यक्ति को अपना काम ज़्यादा और दूसरे का काम (योगदान) कम लगता है। ऐसे में उपाय यही है कि अगर दोनों ही 50 प्रतिशत से ज़्यादा करने के लिए तैयार रहें, तो कोई काम नहीं रुकेगा।
रिश्ता किसी भी मोड़ पर है, इसे और अच्छा या और ख़राब किया जा सकता है। हाँ, दिशा संबंधित पक्ष चुनते हैं। कभी-कभी सुधरने और सँवरने के लिए संबंध को समय देना चाहिए। अत्यधिक प्रयास नहीं करना चाहिए। जिसे निभाना है, वह निभा ही लेता है और जिसे बिगाड़ना है उसके लिए बहानों की कमी नहीं होती। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ख़ुश रहनेवाला व्यक्ति जहाँ हरदम हास-परिहास, आनंद-उल्लास और ख़ुशी के मौक़े ढूँढता है; दुःखी व्यक्ति किसी ख़ुशनुमा मौक़े को भी बिगाड़ने की जाने-अनजाने कोशिश करता है।
प्रश्न उठता है कि संबंध कब दुःख देते हैं, या कहें कि किसी संबंध से हमें कब दुःख मिलता है? एक वाक्य में कहें, तो जब संबंध में निवेश से ज़्यादा निकासी हो, तो संबंध दुःख देने लगता है। एक दिन प्रेम से बात की और दस दिन ताना मार दिया, तो दुःख ही होगा। इसी तरह, एक दिन चिंता की, एक दिन हाथ में हाथ डालकर बैठे, एक दिन प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन किया और दस दिन उपेक्षा कर दी, नौकरी या व्यवसाय में भूल ही गए कि प्रेम भी देना है। ऐसा होने पर, प्रेम का कोष भी घटने लगता है। आग कम और धुँआ ज़्यादा निकलने लगता है।
तात्त्विक रूप से देखें, तो हृद-संबंधों में मिलने वाले दुःख का मूलभूत कारण यह है कि हम अपनी अच्छी आदतों को, अपने श्रेष्ठ को अपना स्वभाव मानते हैं, जबकि दूसरों की बुराई को, उनके निकृष्ट रूप को उनका स्वभाव मानते हैं। यह विरोधाभास ही दुःख और तनाव को जन्म देता है। अगर हमने कभी-कभी झूठ बोला, कुछ छुपाया, लोभ किया या किसी से छोटा-मोटा छल किया; तो हम स्वयं को यह समझाते हैं कि यह हमारी अवशता-विवशता थी। यह हमारा असल स्वभाव न था। हम यह मानते हैं कि हम तो लोगों की मदद करते हैं, लोगों से प्रेम करते हैं, हमारा असली स्वभाव तो बहुत ही अच्छा है। कोई छोटी सी कमी हमारा स्वभाव कैसे हो सकती है? अब इसके उलट दूसरों की कमी को हम उनका स्वभाव मानने लगते हैं। किसी की एक कमी पकड़ ली, तो उसी को उसका स्वभाव मान लेते हैं। एक बार पड़ोसी को गुस्सा करते देख लिया, तो गुस्से को उसका स्वभाव मान लेते हैं। एक बार पत्नी की झूठ दिख गई, तो झूठ बोलना उसका स्वभाव मान लेते हैं, यह भूल जाते हैं कि हम कितनी बार झूठ बोलते हैं, पर स्वयं को झूठा नहीं मानते। अपने को जितनी छूट देते हैं, उतनी छूट दूसरों को और अपने संबंधियों को भी देने लगें, तो संबंध कभी कटु न हों, कुरूप-अवरूप न हों, कभी टूटें ही न।
संबंध में प्रगल्भ प्रेम मिले, स्निग्धतम स्नेह मिले, इसके लिए हमें कुछ ध्यान रखना चाहिए। व्यावहारिक रूप से देखें, तो जिनसे हम प्रीति रखते हैं, उनके प्रति भी ग़लती कर सकते हैं। ऐसा संभव है कि किसी कारण उनका दिल दुःख जाए। ऐसे में अहम्मन्यता का त्याग कर सरल बन जाना ही उपाय है। देखा गया है कि वास्तविकता के साथ और सच्चे मन से ग़लती मान ली जाए, तो रिश्ते सशक्त होते हैं, संपोषित होते हैं। इसके विपरीत अकड़ने से, धोखा, झूठा दिखावा या आडंबर से प्रेम उड़न-छू हो जाता है। आडंबर में समय, ऊर्जा, भावनाओं आदि का बड़ा व्यय हो जाता है और अंततोगत्वा संबधों में दरार आ जाती है।
संबंधों को आत्मिक कहा गया है। सांसारिक, व्यावसायिक आदि संबंध तो बस जुड़ाव के कामचलाऊ नाम हैं। व्यवसाय हेतु जो जुड़ाव है, वह भी दिल से जुड़े और टिके अतएव उन्हें भी संबंध कह दिया जाता है। ऐसे संबंध तब टिकते हैं जब दोनों पक्षों में सुसंगति हो, सुमेल हो, मौलिक-वैषम्य या परस्पर-असंगति (विप्रतिपत्ति) न हो।
तत्त्वतः संबंध आत्मिक होते हैं जिनके द्वारा हम ख़ुद से ही जुड़ते हैं। ऐसे में, इन संबंधों की ताज़गी बनी रहे, इसलिए इनमें निवेश करना चाहिए। आँखें आत्मा की खिड़कियाँ मानी गई हैं, तो इनसे झाँकते रहना चाहिए। साथ ही, ध्यान रहना चाहिए कि मौन-संवाद ही अन्तःकरण में गहरे उतरते हैं। बीहड़ व्यस्तता, व्यर्थ की व्यस्तता और व्यर्थ की बातों को विराम देकर कभी एक-दूसरे को निहार लिया, कुछ मौन-संवाद कर लिया, तो प्रेम बहुगुणित हो जाता है और इससे बना संबंध लम्बी आयु पा लेता है। सच तो यह है कि जहाँ प्रेम होता है, वहाँ संवाद भी स्वत: और तत्क्षण हो जाता है, कोई प्रत्यूह, रुकावट, विघ्न या बाधा नहीं होती और फलत: कोई दुःख भी नहीं होता- यही संबंधों के स्थायित्व का सूत्र है।
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सुस्वागतम!!