अपराध

कृष्ण बिहारी

कृष्ण बिहारी हिंदी के उन थोड़े से कहानीकारों में हैं जो अपनी हर कहानी में बार-बार अपने को ही रिपीट नहीं करते हैं। उनके पास हर कहानी में पाठक को देने के लिए एक नई भावभूमि होती है, एक नया अनुभव और नया भावबोध होता है। यह उनके व्यापक जीवनानुभव की देन है। कृष्ण बिहारी के कहानीकार पर चर्चा फिर कभी, फिलहाल उनकी यह पहली कहानी आपके लिए, उनके अपने वक्तव्य के साथ - मॉडरेटर   

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वक्तव्य : मेरी पहली कहानी 1969 में गणेशशंकर विद्यार्थी इंटर कॉलेज की वार्षिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उसका शीर्षक था मजबूरी और मित्रता। न तो वह पत्रिका मेरे पास है और न वह कहानी। वह कॉलेज भी अब बंद हो चुका है। मैं उस कहानी को दुबारा कहीं से किसी प्रकार पा सकूँगा, ऐसा प्रतीत नहीं होता। उसके बाद मेरी दो कहानियाँ लगभग एक साथ प्रकाशित हुईं, उनमें यह कहानी दैनिक जागरण के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित हुई। इसका रचनाकाल 1975-76 है। कहानी जिस रूप में प्रकाशित हुई उसमें बिना कोई सुधार किए उसी रूप में आपको सौंप रहा हूँ ताकि यह पता चल सके कि एक खास उम्र में या कि किसी रचनाकर की प्रारम्भिक रचनाएँ कैसी होती हैं। किशोरावस्था में जब लेख्नन की शुरुआत हुई तो बहुत से लेखकों की तरह मैं भी अपने नाम के साथ एक उपनाम जोड़कर लिखता था। उन दिनों की रचनाएँ कृष्ण बिहारी त्रिपाठी नरेशके नाम से ही प्रकाशित हुईं। मुझे याद नहीं कि किसने मुझे टोका कि मेरे नाम में नरेशजुड़ा होने से सामंतवाद की बू आती है। उन्हीं दिनों जे पी का समग्र क्रांति आंदोलन भी चरम पर था। मैं उससे जुड़ा और मैंने अपने नाम से जाति सूचक शब्द और उपनाम निकाल दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि कई बार साहित्यकारों को यह कहते पाया हरिजन होगा इसीलिए नाम के आगे जाति नहीं लिखता। बहरहाल , तबसे अबतक कृष्ण बिहारी नाम से ही लिख रहा हूँ। सैकड़ों कहानियाँ लिख लेने और देश-विदेश की प्रायः सभी चर्चित पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होने के बाद भी अनेक बार मंच पर अपना परिचय कृष्ण बिहारी नूरके रूप में सुनकर मुस्कराता रहा हूँ कि न तो ये नूर साहबको जानते हैं और न मुझे। यह जानना और जनवाना, दोनों ही मुझे नहीं आते। लीजिये, कहानी पढ़िये। मेरे नाम में क्या रखा है :

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अंगीठी में पड़े कोयले दहककर ठंडे हो चुके थे परंतु टीन की बटलोई अब भी चढ़ी हुई थी । बच्चे रो-धोकर अभी-अभी शांत हुए थे । अंगीठी घेरे हुए वे सब माँ की ओर आशा भरी दृष्टि से अपलक देख रहे थे । उनकी आँखों में एक अजीब-सा भय समाया हुआ था । शायद वे डर रहे थे कि अगर रोटी मांगने के लिए उन्होंने फिर जुबान खोली तो रोटी की जगह तमाचे मिलेंगे ।

वह अपने सातो बच्चों की ओर आग्नेय दृष्टि से देख रही थी जिन्होंने उसकी देह से सारा रक्त निकाल लिया था । दस वर्ष ही तो उसकी शादी के हुये और इसी बीच में सात बच्चे । बच्चे नहीं , पूरी फ़ौज । बच्चे तो बस दो तक ही कहे जाते हैं। जहां दो से अधिक हुये फ़ौज की शुरुआत हो जाती है । इन सात में से पहली चार लड़कियां थीं । बाकी तीन लड़के। बड़ी लड़की कोई नौ वर्ष

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की थी और छोटा लड़का कोई डेढ़ वर्ष का रहा होगा । मगर उस डेढ़ वर्ष के बच्चे की आँखों में भी वही भय था जो बड़ी लड़की के ।

सब्र की भी सीमा होती है और फिर बच्चों का धैर्य तो नितांत क्षणभंगुर होता है । उन्हें लगा कि बहुत देर हो गई है अपनी मांग दुहराते हुए । बड़ी लड़की ने अपनी टांगें फटी फ्रॉक में समेटते हुए अपने ओठ खोलने चाहे मगर माँ की आँखों में दहकता लावा देख सहम उठी।

क्यों बैठी है हरामजादी , लेकर जाती क्यों नहीं पुआल पर ?” माँ ने बड़ी लड़की से चीखते हुए कहा ।

दो को छोडकर बाकी सारे बच्चे उठकर बड़ी लड़की के साथ चल दिये केवल छोटा और उससे बड़ा वहीं , उसी तरह बैठे रहे ।

लुच्चो , तुम क्यों बैठे हो यहाँ ? सोते क्यों नहीं जाकर ? माँ की आँखों में वहशियाना अंदाज़ उभरा ।

एक रोटी और दो माँ ! अभी तो मुझको बहुत भूख लगी है ।बड़े ने कहा और छोटा माँ के कंधे पकड़कर छाती टटोलने लगा ।

भाग जा ! अब नहीं है रोटी ... दूर हट नालायक ।छोटे को दूर झटकते हुये माँ बिफर पड़ी । बड़ा तो हाथ कमीज़ में पोंछते हुए चला गया परंतु छोटा बड़ी जोरों से चीख-चीखकर रोने लगा ।

मौत भी नहीं आती इन्हें ! कौन मर गया है रे ! क्यों रोने लगा ?” माँ ने तड़ातड़ कई तमाचे जड़ दिये नन्हें के गाल पर । वह वहीं लेटकर हाथ-पाँव और ज़ोर से पटकते हुए चिघाड़ने लगा । जब असहनीय हो गया तो फिर एक जोरदार थप्पड़ लगते हुए माँ बोली , “ ले पी खून !और दाहिनी छाती का दूध बच्चे के मुंह में लगा दिया । वह सुबक-सुबक कर चूसता और दूध न पाने पर काटता जिससे खीझकर माँ उसे एक थप्पड़ जड़ देती । रोने की रफ्तार और तेज हो जाती ।

वह रोते-रोते सो गया था माँ कि गोद में । बाईं छाती का दूध उसके मुंह से खींचते हुए वह उठी । कमरे में आकार उसे पुआल पर लिटाया और फिर आकर चूल्हे के पास बिछे बोरे पर पैर फैलाकर लेट गई ।

 

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दरवाज़ा खुला , वह भीतर घुसा ।

सब सो गए क्या ?” उसने पूछा , बच्चों को कतार में लेटा देखकर उसने पत्नी से दुबारा पूछा , तो वह झल्लाते हुए बोली , “ देख नहीं रहे हो क्या ?”

हाँ , देख रहा हूँ , इसीलिए तो पूछा कि बड़ी जल्दी सो गए आज ....

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आज बड़ा मोह जाग पड़ा है बच्चों के लिए ?”

अपने बच्चों से मोह किसे नहीं होता ?” पत्नी की बात का जवाब देने के बजाय उसने प्रति-प्रश्न कर दिया । किन्तु वह चुप रही । मुखाकृति से लगता था कि जहर उसके सीने में भर उठा है ।

यह रख दो ; सवेरे उन्हें दे देना ...

क्या है ?” पत्नी ने लिफाफा पति के हाथ से लेते हुए उत्सुकता से पूछा ।

एक पाव बर्फी ! ... पूरे चार रुपए की है ।

बर्फी ! क्या ओवरटेम मिला है आज ?”

हूँ ...

कितना ?” पत्नी ने लिफाफा खोलते हुए पूछा ।

वही जो हर महीने मिलता है ... पैंतालीस रुपए ...।छह आने घंटे के हिसाब से चार घंटे रोज वह शाम पाँच बजे से नौ बजे रात तक ओवरटाइम करता है , न करे तो ये पैंतालीस रुपए कहाँ से मिलें । सुबह साढ़े सात बजे जो वह घर से निकलता है तो फिर यही साढ़े नौ दस बजे हाथ झुलाते लौटता है । साढ़े पाँच रुपए कुल मिलाकर एक दिन के पड़ जाते हैं । पहले इतवार का पैसा नहीं मिलता था परंतु इधर साल भर से जबसे वह परमानेंट हो गया इतवार का भी पैसा मिलने लगा है ।

कमीज़ की चोर पॉकेट से दस-दस के चार नोट पत्नी की ओर बढ़ाते हुये उसने कहा , “ चलो खाना निकालो ।

ड्रम के पानी को हाथों से पैरों पर उलीचकर वह अंगीठी के पास आ बैठा । पत्नी ने टीन की थाली में ठंडी रोटियाँ डाल दीं और फिर अंगीठी पर चढ़ी बटलोई थाली में पलट दी । बटलोई में दाल थी। दोनों खाने लगे एक ही थाली में ।

सुनो , दो टुकड़े हम भी खा लें ?” पत्नी ने बड़े इसरार के साथ पूछा । इशारा बर्फी की ओर था परंतु पति ने जान बूझकर अनजान बनते हुए जवाबी सवाल दाग दिया , “क्या ?”

बर्फी ।

मन तो उसका भी बर्फी खाने को कर रहा था किन्तु वह रास्ते में ही दो टुकड़े खा चुका था । वह सोचने लगा रास्ते में दो खाने के बजाय एक-एक अगर हम दोनों यहीं खाते तो कितना अच्छा होता ।

मन तो उसका हुआ कि वह भी एक टुकड़ा और ले ले लेकिन फिर पत्नी से आँखें चुराते हुए बोला , “ ठीक है , खा लो ... पर सिर्फ दो ही खाना ।

 

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लिफाफा खोलते वक़्त उसका इरादा सचमुच सिर्फ दो ही टुकड़े खाने का था किन्तु जब खाने लगी तो एक-एक कर पूरा लिफाफा साफ कर गई । हर टुकड़ा पहले वाले से अधिक मीठा और सुस्वादु लग रहा था । कुल आठ ही तो टुकड़े थे लिफाफे में । वह सब खा गई । लिफाफे को फाड़कर उसने आँखें फाड़-फाड़कर देखा , कहीं कुछ ज़रा-सी बर्फी कागज में लगी रह गई हो । जब उसने एक लोटा भर पानी पीकर प्यास बुझाई तो उसे पति की हिदायत याद आई ,‘ सिर्फ दो ही खानापर अब क्या हो सकता था । उसे अपने ऊपर क्रोध आने लगा । कमरे में झाँक कर देखा । वह बच्चों के साथ सो रहा था । रात शायद अब एक ही पहर रह गई थी । वह आँगन की ओर मुड़ी और एक कोने में बने छतहीन शौचालय में घुस गई ।

पाँच मिनट बाद वह पति के बगल में लेटकर उसे जगाने का प्रयास करने लगी । हिलने-डुलने के कारण वह नीद से जाग पड़ा , “ हुंह , क्या है ?”

नीद नहीं आई ।पति के कमजोर सीने में घुसने की कोशिश कर रही थी वह । पति अपनी बाँहों के घेरे में उसको बांधते हुये बोला , “ ज़रा और करीब आ जाओ ।

और वह बर्फी का मूल्य चुकाने लगी ।

 

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सांसें उखड़ने लगीं तो उसने कहा , “ तुम वह क्यों नहीं लाते ?”

क्या ?” वह टूटती साँसों को संभालते हुये पूछ बैठा , “ क्या ?”

वही ...

अच्छा , अब ले आऊँगा ।

सुनो , बर्फी की बात बच्चों से मत बताना ...

क्यों ?”

मैंने सब खा डाली ...

क्या ?” वह जैसे चीख-सा पड़ा ।

वह अवाक हो उठी । अंधेरे में भी उसे पति की आँखों के जलते दीये साफ दीख रहे थे ।

मन नहीं माना। सब खा ली । आग लगे मेरी निगोड़ी जीभ को ।उसका अस्फुट स्वर काँप रहा था।

पति ने अब कुछ नहीं कहा । चुपचाप दूसरी ओर घूमकर सोने का प्रयत्न करने लगा। कुछ देर बाद सवेरा हो गया।

                                 

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अंगीठी घेरे फिर सभी बच्चे बैठे हुए थे मगर अब उनकी माँ की आँखों का वहशियाना अंदाज कहीं दूर जा चुका था । छोटा लड़का छाती से चिपका हुआ दूध पी रहा था । रह-रहकर दाँत गड़ा देता मगर थप्पड़ मारने के लिए अब माँ का हाथ पता नहीं क्यों उठ ही नहीं पा रहा था ।

कृष्ण बिहारी

HIG – 46 , B Block , Panki

Kanpur-208020

6307435896

krishnatbihari@yahoo.com

 

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