विद्रूप स्थिति और आंतरिक खोखलापन
भूपेंद्र सिंह
बंद गली का आखिरी मकान अभी अभी पढ़ डाली। प्रिय
शिव कुमार जी बहुत डूबकर उसका जिक्र करते हैं,
सो खोज कर पढ़ना ही था। शानदार अंतर्संघर्ष और संबंधों
के उलझे ताने-बाने, समाज की विद्रूपता भरी स्थिति और मूल्यों का आंतरिक खोखलापन। भारती जी
का रचनाकार अपनी पूरी ताकत से उभरता है घटनाओं के बीच से। लगता है पलंग पर कोई और
नहीं मुंशी जी के रूप में स्वयं भारती जी ही
लेटे हों।
भारती यहां जीवन की अनुभूतियां भी साझा करते
दिखते हैं। नए, कोरे खपडों की गंध बिना अनुभव किए कोई न जान सकता है और न समझ सकता है।
यह बस अनुभवजन्य सत्य ही है, जिसे शब्दों में बांधना कतई सरल नहीं। भारती जी कोशिश करते हैं सफलता
से इसकी। शायद इसलिए भी कि उनके सुधी पाठक उनकी लेखनी की गहराई में उतर सकते थे। यहां
जीवन के गहरे अनुभव की बात करते भारती कहते हैं कि बीमारी कमजोर करने के साथ
सोचने-विचारने की ताकत भी छीन लेती है। यह बात मैं अपने अनुभव से स्वीकारता हूँ। मानव
मन की छोटी छोटी बातें भारती ध्यान रखते हैं।
एक आखिरी बात। प्रेमचन्द के अमर उपन्यास गोदान के
होरी की मौत और मुंशी जी की मृत्यु में अद्भुत साम्य दिखता है मुझे। दोनों ज़िंदगी
से बेतरह हारे हुए, दोनों समाज से जूझ कर भी धारा में अटके, दोनों असफल,
दोनों प्रेमी,
सहज, उदार, निश्छल, हासिल कुछ भी नहीं। यहां प्रेमचंद ने होरी के पास धनिया को बैठा रहने
का मौका दिया। भारतीय विश्वासों, आस्था के अनुरूप गौदान कर स्वर्गगत होने की सुविधा दी। पर भारती इतने
उदार नहीं निकले। मुंशी जी से आखिर के पलों में सब छीन लिया, वह सब, जिनका नाम उचारते
उन्होंने देह त्यागी। सोचता हूँ शायद इसलिए तो नहीं कि होरी को जो मिला वह उसका ही
था हमेशा। पर मुंशी जी तो बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाने थे। उन्होंने वह सब
किया जो एक पति पिता को करना चाहिए। समाज उनकी भावनाएं न समझना
चाहता था न समझा। मुंशी जी सचमुच बन्द गली के आखिरी मकान थे नितांत एकाकी, उजाड़, कुहासे और थकान में
डूबे, अभिशप्त पीपल वृक्ष की तरह अंधेरे में हवा से सांय सांय कर डोलती
जिसकी डालियां भय ही पैदा करती हैं। प्रिय शिव को आभार जिन्होंने मुझे एक और
कालजयी कथा पढ़वा दी बहुत दिनों बाद।
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सुस्वागतम!!